उपनयन की पद्धतियों के ४ भाग दीखते है। विद्यारम्भ, वेदारम्भ, ब्रह्मचर्य व्रत, उपनयन।
(१) विद्यारम्भ
इसका एक लौकिक रूप है- खली छुआना। खली से स्लेट पर लिखते हैं। सबसे पहले वर्णमाला सीखते हैं। देवों का चिह्न रूप में नगर देवनागरी लिपि है। इसमें ३३ देवों के चिह्न क से ह तक स्पर्श वर्ण हैं। १६ स्वर मिलाने पर ४९ मरुत् हैं। अ से ह तक पूर्ण विश्व या उसकी प्रतिमा मनुष्य शरीर है। अतः शरीर या क्षेत्र अ से ह = अहम् है। इसका क्षेत्रज्ञ आत्मा है। उस चेतन तत्त्व क्षेत्रज्ञ का प्रतीक क्ष, त्र, ज्ञ-तीन अक्षर जोड़ ते हैं नहीं तो प्रायः ४०० प्रकार के संयुक्ताक्षर सम्भव हैं। शरीर और चेतना मिला कर ५२ अक्षर हुये जो शक्तिपीठों की भी संख्या है। अतः ५२ अक्षरों को सिद्धक्रम की वर्णमाला कहते हैं। पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त चेतन तत्त्व का विकास भी करने के लिये सिद्ध क्रम की वर्णमाला है, जिसे स्मरण करने के लिये-ॐ नमः सिद्धम्-य ओनामासीढम् कहते हैं।
(२) वेदारम्भ
वेद पढ़ने के लिये गायत्री मन्त्र से आरम्भ किया जाता है। गायत्री से वेद में प्रवेश होता है जैसे आजकल +२ पास करने पर इंजीनियरिंग या मेडिकल में प्रवेश की योग्यता होती है। गायत्री से वेद का प्रवेश होने के कारण तथा २४ तत्त्वों और पुरुष रूप ॐ से सृष्टि होने के कारण गायत्री वेदमाता है। अथर्ववेद में एक वेदमाता सूक्त भी है। गायत्री मन्त्र में वेद पढ़ने की विधि के कई पकार निहित हैं-
(क) ॐ से सृष्टि और ज्ञान का आरम्भ,
(ख) ३ व्याहृति-कई प्रकार की त्रयी माध्यम से अध्ययन। प्रायः ५० त्रयी के उदाहरण तैत्तिरीय ब्राह्मण में हैं। (ख) ३-३ के संयोग से ७ भेद रूप ७ लोक हैं। बीच के २-२ भेद समान हैं। अतः सभी प्रकार के शास्त्रों का आधार ७-७ के विभाजन हैं-राज्य के ७ तत्त्व (मार्क्स आदि ने केवल ४ का विचार किया अतः वे अपूर्ण हैं), ७ कारक, ७ धातु आदि। ३ और ७ भेद सभी ज्ञान के आधार हैं, यह मूल वेद अथर्व का प्रथम मन्त्र है-ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः।
(ग) सभी छन्दों के ४ पाद होते हैं। पर अर्थ के अनुसार कम या अधिक पाद हो सकते हैं। जैसे गायत्री छन्द में ६-६ अक्षरों के ४ पाद होते हैं। पर अर्थ के लिये गायत्री मन्त्र में ८-८ अक्षरों के ३ पाद हैं। प्रति पाद के अर्थ जोड़ कर पूर्ण अर्थ होता है। मीमांसा सूत्र (१/२३) के अनुसार ऋक् मन्त्रों की अर्थ व्यवस्था छन्द और पाद के अनुसार है। पादों को तोड़ मरोड़ कर अन्वय नहीं हो सकता।
(घ) गायत्री मे प्रथम पाद में १ अक्षर कम है (निचृद् छन्द) अतः उसे थोड़ा फैला कर पढ़ते हैं-’तत्स्सवितुर्वरिण्यम्’ को ’तत् सवितुर्वरेणियम्’ जैसा।
(ङ) गायत्री का प्रथम पाद आधिदैविक, द्वितीय आधिभौतिक और तृतीय आध्यात्मिक है। सभी वेद मन्त्रों के इसी प्रकार ३ अर्थ होंगे (गीता ८/१-४, सांख्य का तत्त्व समास ७)। तैत्तिरीय उपनिषद् के अनुसार ५ प्रकार के अर्थ हैं जो गायत्री मन्त्र के ॐ और व्याहृति को मिलाने पर होते हैं। कुल भेद १५ होंगे-यानि पञ्चधा त्रीणि त्रीणि तेभ्यो न ज्यायः परमन्यदस्ति (छान्दोग्य उपनिषद् २/२१/३)।
(३) ब्रह्मचर्य व्रत
ब्रह्मचर्य व्रत से ही ज्ञान होता है जिसके बाद मनुष्य गृहस्थाश्रम के योग्य होता है।
ब्रह्मचारि व्रते स्थितः (गीता ६/१४)।
ब्रह्मचर्येण ह्येवात्मनमनुविन्दते। (छान्दोग्य उपनिषद् ८/५/१)
ब्रह्मचर्यं परिसमाप्य गृही भवेत् (जाबालोपनिषद् ४)
ब्रह्मचारी ज्ञानवान् भवति (नारायण उत्तरतापिनी उपनिषद् ३/१)
(४) उपनयन
गुरु के निकट जाना (उप = निकट, नयन = ले जाना)। वहां अपना काम करने से और गुरु सेवा से स्वयं और दूस्रों की जिम्मेदारी लेने का अभ्यास होता है। तभी वह गृहस्थाश्रम का दायित्व सम्भाल सकता है। घर पर रहने से वह बाहर जाने में डरेगा और केवल माता पिता पर आश्रित रह जायेगा।
ब्रह्मचर्याश्रमे क्षीणे गुरुशुश्रूषणे रतः। वेदानधीत्यानुज्ञात उच्यते गुरुणाश्रमी (कुण्डिकोपनिषद् १/६)। ब्रह्मचर्ये भगवति यत्स्याम्युपयां भगवन्तमिति। (छान्दोग्य उपनिषद् ४/४/३)