“हर शाम के जैसे मैं अपने ऑफिस में बैठा था। ईश्वर की दया से पिछले कुछ महीने से काम ठीक-ठाक चल रहा था। सिर खपाई तो पहले जैसी ही थी लेकिन सप्ताह में औसतन एक डील मैच्योर भी हो रही थी। मकान खरीदने और बेचने वालों से इतना कमीशन आ जाता था कि दाल-रोटी अच्छे से निकल रही थी। शाम के खर्चे-पानी का जुगाड़ किराए वाली डील से अच्छा ही निकल रहा था। दुनिया के सामने झूठे रोने जरूर पहले जैसे ही रोते थे और ब्रांड भी वही पुराना चल रहा था लेकिन सच बात ये है कि प्लेटों में प्याज के साथ सलाद और काजू भी सजने लगे थे। बोर तो नहीं हो रहे हो?”
“नहीं यार, चालू रखो।”
“उस महीने से एक नया चेला ‘सुंदर’ भी रख लिया था। क्या है कि जब ऊपरवाला मेहरबान है ही तो कंजूसी क्यों करें? महीने के दो ढाई हजार खर्च करके यह लड़का मिल गया जो छोटे-मोटे काम कर देता था, इन बातों से पार्टी पर भी इम्प्रेशन पड़ता है। वैसे भी रोज ठेके पर जाना अब below standard लगने लगा था। उस शाम भी दोस्तों के आने का समय हो रहा था। सुंदर बाजार से सामान ला चुका था और दरवाजे की तरफ पीठ करके प्लेटें सजा रहा था।”
आँखें बंद करके जैसे वह उन दिनों को पुन: जी रहा था।
“दिन तो झूठ-सच में कट जाता है लेकिन प्रॉपर्टी डीलर्स का यह ढलती शाम वाला समय बहुत मुश्किल कटता है। मैंने फिर से अखबार में नजरें गड़ा दीं, शायद कुछ पढ़ने से छूट गया हो। दरवाजा खुलने की आवाज आई, देखा तो एक चौबीस-पच्चीस वर्ष की स्त्री थी। सुंदर से कुछ बात करके वापिस चली गई। बल्कि सुंदर ने ही उसे भेज दिया कि एकाध दिन में घर आकर आराम से बात करेगा। दोनों बात कर रहे थे तो भाषा अच्छे से समझ में नहीं आई। उसके जाने के बाद मैंने सुंदर से उसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसकी बहन है। इसी कॉलोनी में रहती है और उसका पति किसी मिनिस्ट्री में कर्मचारी है।”
“कैसी थी वह देखने में?” मैंने पूछा।
उसने जैसे सुना ही नहीं, अपनी रौ में बोलता रहा, “उसके बाद भी वह कभी-कभी आती थी, कभी अकेली और कभी अपने पति के साथ। पति कम से कम पैंतालीस साल का रहा होगा और बहुत ही सज्जन था। वह साथ होता तो उसकी मुझसे नमस्ते, हालचाल हो जाती थी और वे दोनों भाई-बहन आपस में थोड़ी सी गिटर पिटर करते और चले जाते।”
मुझे उसकी बातों में अधिक रस आने लगा, मैंने स्पीकर की आवाज कुछ कम कर दी और फिर पूछा, “देखने में कैसी थी?”
“एकदम किसी हीरोइन जैसी लेकिन मुझे बहुत दिनों बाद यह ध्यान आया।”
“क्यों, पर्दा करती थी क्या?”
“नहीं यार। सुंदर को आये थोड़े ही दिन हुए थे लेकिन वह घर का मेंबर सा ही हो गया था। उसने बताया था कि उसकी बहन है तो उस तरफ ध्यान कैसे जाता?”
मुझे बहुत हँसी आई, “वाह रे सतयुगी प्रॉपर्टी डीलर।”
वह नाराज हो गया, “मतलब मैं बकवास कर रहा हूँ?”
“अच्छा बता, तुझे उसके रूप का ध्यान कब आया?”
“एक दिन मैं तहसील से पैदल ही आ रहा था। मैंने तो देखा नहीं था लेकिन सड़क की दूसरी तरफ से उसके पति ने आवाज लगाकर नमस्ते की। मैंने आवाज सुनकर देखा तो मैंने भी जवाब दिया। वह अपने पति के पीछे ही खड़ी थी, राशन वगैरह ला रहे होंगे। और हाँ, तब तक मुझे पता चल गया था कि उनकी कोई सन्तान नहीं है।”
“अच्छा फिर?”
“उसने एक पोटली और एक थैला अपने सिर पर रखा हुआ था, बिलकुल वैसे ही जैसे किसी पनिहारिन ने सिर पर पानी के मटके रखे हों। उस दिन उसने दोनों हाथ जोड़कर जिस प्यारे अंदाज में नमस्ते की, मैं चकराकर रह गया।”
“ओह, तब तुम्हें अहसास हुआ कि वह हीरोइनों से भी खूबसूरत है!”
“नहीं यार, तू समझेगा नहीं।”
“बता तो, कब समझ आई तुझे?”
“मुझे? मैं रास्ते भर सोचता आया कि जिस तरह उसने सिर पर पोटली और थैला बिना हाथ लगाये सेट कर रखे थे, शहर की तो हो नहीं सकती। मैंने ऑफिस आकर सुंदर से फिर पूछा कि वह चन्दा तेरी बहन है? वह बोला कि हाँ, बहन लगती है।
मैंने पूछा, सगी? तो सुंदर ने बताया कि उन दोनों के गाँव एक ही जिले में पड़ते हैं।”
वह फिर से जैसे ख्यालों में खो गया था। कुछ रुककर फिर बोला,”मैंने ऑफिस में एक लाठी रखी हुई थी। वो निकाली और सुंदर के सूत के मारी। साले को नौकरी से भी निकाल दिया।”
मैंने सांत्वना जताते हुए कहा, “ओह, एक जरा सी बात ने इतनी रोमांटिक कहानी खत्म कर दी।”
वह जोर से हँसने लगा, “कहानी खत्म? हा हा हा, खैर खत्म ही समझने में सबकी भलाई है।”
“मतलब चन्दा से दोबारा नमस्ते नहीं हुई?”
वह आँखे बन्द किए किये ग़ज़ल गुनगुनाने लगा, “वो कहानी फिर सही”
सुंदर को लाठी क्यों पड़ी!!?
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कथा के दूसरे अंश की प्रतीक्षा रहेगी।
कहानी तो कुछ खतरनाक मोड़ ले के मानेगी, आगे एकाध मडर भी करवाएगी।
☺😂