नर्मदा का मुहाना जहाँ वह अब समुद्र ये मिलती है, उस जगह से बहुत आगे तक एक और बहुत बड़ा भूखंड था जो भूगर्भीय हलचलों के कारण भारतभूमि से अलग होकर समुद्र में एक ओर चला गया जिसे हम आज का सेशल्स द्वीप समूह कहते हैं।
“मेरी दृष्टि में विष्णु वैकुंठ के स्वामी मात्र नही हैं। मैं भौतिकी का शिक्षक हूं तो मैं उनको इस भौतिक जगत मे जीवन को गति प्रदान करने और उसको संरक्षित कर विकसित और विकसित अवस्था में निरंतर गतिमान रखने वाली ऊउर्जा के रूप में देखता हूं जो इस धरती पर तब से गतिमान है जब जीवन अपने प्रारम्भिक रूप यानी एक-कोशिकीय अवस्था मे भी नही पहुंचा था। वह उस समय इतना सूक्ष्म स्तर पर था कि खुली आंखे तो बहुत शक्तिशाली माईक्रोस्कोप से भी उसको देखना असंभव ही था पर जीवन का विकास करता हुआ विष्णु उस समय भी क्रिया शील होकर गतिमान हो रहा था। उसी गतिमान विष्णु, या आपके शब्दो मे कहें शर्माजी तो, ‘वैष्णवी माया’ के वही पद चिह्न ये जीवाश्म हैं।”
ये शब्द थे भौतिकी के शिक्षक विशाल वर्मा के जो नर्मदा घाटी के किनारे किनारे मिलने वाले जीवाश्मो के अद्वितीय खोजकर्ता हैं।
जब हम उनसे मिलने गये तो घर के द्वार पर नाम पढ़ा, जहाँ लिखा था, ‘हरि पद आनंद मठ’। यही नाम उनके बाग नामक तहसील मे बने नर्मदा घाटी मे मिले जीवाश्म संग्रहालय का है। हमने उत्सुकतावश पूछा कि विशाल भाई यही नाम क्यों?
तब उन्होंने वह बात कही जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। घर के अंदर पांव रखते ही जैसे एक अजूबी दुनिया का द्वार हमारे लिये खुल गया। ड्राईंग रूम मे बस इतनी जगह ही खाली थी कि हम और विशाल भाई साथ साथ बैठ सकें।
अंदर के कमरे में तो और भी कम जगह थी क्योंकि धरातल से छत तक, हर जगह केवल और केवल जीवाश्म भरे हुये थे। वर्मा जी ने जैसे ही एक जीवाश्म को हाथ मे लेकर बोलना शुरू किया, यूँ लगा कि कोई एकनिष्ठ प्रेमी अपने प्रेमपात्र के स्मृति चिह्नों को स्पर्श कर उसके प्रेम को महसूस करते हुये कवितायें रच रहा है।
वे बोले,“तो हरिपद नाम पर ही ये देखिये शर्मा जी! यह है मेरे हरिपद आनंद मठ का प्रतीक चिह्न।
इसमे नीचे का प्लेटफार्म नर्मदा के किनारे मिला उस समय का चिह्न है जब धरती अर्धद्रवीय और अर्ध कठोर स्थिति मतलब पैंजिया की स्थिति से निकली ही थी। उस समय जीवन को हम जिस रूप मे देखते हैं वह एक-कोशिकीय रूप भी नही था। इसमें बना यह चिह्न जो ऐसा लग रहा है जैसे किसी व्यक्ति ने गीली मिटटी मे पांव रखने के कारण बना हो। पर वह ऐसा नही है वह सिर्फ उस समय उपस्थित द्रव जो पानी भी हो सकता है या और कुछ भी उसके प्रवाह का फल है
पर इस मिट्टी मे धंसे पद के चिह्न ने मेरे विचार को पंख दे दिये। उस पद चिह्न के अलावा जो दूसरा पद चिह्न उभरा हुआ दिख रहा है वह अलग से उसपर लगाया गया है बिलकुल पांव के निशान सा काट कर यह वह जीवाश्म है जब जीवन एक कोशकीय रूप में आ चुका था। यह पूरा चिह्न बनाने का कारण यह है कि मैं बता सकूँ कि किस तरह श्री हरि विष्णु जीवन के हर रूप का सरंक्षण करते हुये गतिमान कर रहे थे। आस पास लगे छोटे धातु के चरण गुप्त काल मे विष्णुपद के रूप मे प्रयोग करने वाली धातु मुद्राये हैं।
इसके बाद शुरू हुये प्रसंग का विषय जो था वह हम दोनों का पसंदीदा था, अर्थात ‘नर्मदा’। नर्मदा के किनारे सृष्टि के आदिकाल से लेकर अबतक क्या क्या हुआ यह सब विशाल जी के पास लिखित रूप में है माने जिसे प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से पत्थरों पर उकेर दिया हो – एक कोशिकीय जीवों से लेकर डायनासोर काल तक। डायनासोर के सैकड़ों घोंसले जिनमें उनके अंडे जीवाश्म के रूप मे सुरक्षित थे, उनकी खोज हैं। उनसे बात करने से हमारे सामने विलक्षण जीव जगत का द्वार खुल रहा था। बातों बातों मे यह भी पता लगा कि जब वृहद उल्कापात के कारण डायनासोर अन्य स्थानों से विलुप्त हो गये थे तब भी नर्मदा घाटी की दो जगहों पर वे बचे रहे थे – थोड़े बहुत समय के लिये नही पूरे चालीस हजार वर्ष तक। डायनासोरों के सैकड़ो जीवाश्म, अंडे और उस काल के वनस्पतियों के जीवाश्मों को देख देख कर हम विस्मित हुये जा रहे थे। बात ही बात मे विशाल भाई ने कहा, “शर्मा जी, देखिये नर्मदा को लेकर जो तथ्य अन्यान्य पुराणों में वर्णित हैं वे भौतिक दृष्टि से कैसे सत्य हैं या कहें भूगर्भीय विज्ञान के अनुसार किस तरह सटीक हैं यह देखिये। हमें याद आया कि पुराणो मे कहा गया है कि नर्मदा सृष्टि के आदिकाल में भी उपस्थित थी जब धरती पर जीवन भी नहीं था।
सात कल्पों का प्रारंभ और अंत नर्मदा ने साक्षी भाव से देखा है। नर्मदा नदी क्यों है, नद क्यों नही है, नर्मदा को कुमारी नदी क्यों कहा गया है, आदि; इन सब पौराणिक तथ्यों का भौतिकी दृष्टि से उत्तर हम विशाल भाई के मुँह से सुन रहे थे तो ऐसा लग रहा था मानों नर्मदा किनारे स्थित ऋषि एक एक-कर सृष्टि के रहस्यों को अनावरित कर रहा हो। वह सचमुच जीवाश्म ऋषि है जिसके हाथ मे आते ही साधारण से दिखने वाले पत्थर करोडों वर्ष पुरानी अपनी विलक्षण कहानी कहने लगते हैं। उन्होंने जितना बताया वह सब इस लेख मे लिखना संभव नही है पर एक छोटा सा उदाहरण देखिये:
वायुपुराण और नर्मदा पुराण में उल्लेख है कि एक कल्प मे महर्षि मार्कण्डेय ने देखा कि प्रलय काल में प्रलय मेघ घनघोर बरस रहें हैं, हर तरफ सब लय हो चुका है परंतु उस लयकालीन जल मे भी एक विलक्षण सुंदरी कन्या महामत्स्य को वाहन बनाये विचरण कर रही है। उससे परिचय पूछने पर वह अपने को नर्मदा बताती है। पर नर्मदा का वाहन मकर तो है, यह बात कहने पर वह कन्या कहती है कि यह जो नया कल्प अर्थात ‘मायूर कल्प’ आरम्भ हुआ है इसमें उसका वाहन मत्स्य ही होगा, मकर नही।
अब यह भौतिक दृष्टि से कैसे संभव या सत्य है? विशाल जी ने कहा कि इस धरती पर विभिन्न हलचलें होती रही हैं। छोटी मोटी हलचल से तो कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता लेकिन कुछ बड़ी हलचलों ने धरती के जीवन को आमूलचूल बदल दिया है।
उन्होंने नर्मदा के सप्तकल्पों का बहुत वैज्ञानिक वर्गीकरण समझाया। नर्मदा का मुहाना जहाँ वह अब समुद्र ये मिलती है, उस जगह से बहुत आगे तक एक और बहुत बड़ा भूखंड था जो भूगर्भीय हलचलों के कारण भारतभूमि से अलग होकर समुद्र में एक ओर चला गया जिसे हम आज का सेशल्स द्वीप समूह कहते हैं। भड़ौच और सेशल्स द्वीप की चट्टानों में कहें तो शत प्रतिशत साम्य है जिसके कई देशी विदेशी वैज्ञानिक प्रमाण उपस्थित हैं।
जब वह भूखंड मुहाने से हटा तो समुद्र का पानी खाली हुये स्थान को भरने दौड़ा। वही जल खाली स्थान को भरने के साथ साथ नर्मदा घाटी में बहुत भीतर तक प्रवेश कर गया। बड़वानी के आगे या पीछे के एक स्थान विशेष तक यह रहा। उस लाखो वर्षों के समय में नर्मदा में समुद्री जीवों की भरमार रही है, विशेषकर महामत्स्य शार्कों की। पूरी नर्मदा घाटी में बहुत छोटे से लेकर बहुत बड़े आकार के शार्क विचरण करते थे जिन्होंने नर्मदा के मकर का एकाधिकार पूर्णतः समाप्त कर दिया। इसीलिये उस कल्प में मार्कण्डेय से नर्मदा ने अपना वाहन इस मायूर कल्प में मकर नही मत्स्य कहा।
प्रमाण में वर्मा जी ने अनेकानेक लिखित वैज्ञानिक तथ्य तो दिखाये ही, साथ ही सामने रखे प्रत्यक्ष प्रमाण मतलब नर्मदा मे मिले शार्क के जीवाश्म जिनमें उनके दाँत स्पष्ट दिख रहे थे। थोड़े बहुत नही उन्होंने करीब एक बोरे भर कर शार्क के दाँतों के जीवाश्म हमें दिखाये। समुद्र अंदर तक आ गया था इसका दूसरा प्रमाण अनेक प्रकार के समुद्री जीवों के जीवाश्म जो नर्मदा में मिले वह सब भी देखे।
वायुपुराण में मत्स्य को वाहन बताते नर्मदा का वर्णन
ये सब तो केवल बानगी हैं। नर्मदा की पूरी कहानी या मत्स्यावतार का विशद वर्णन या आदिवाराह का विशद वर्णन सुनना यूँ था जैसे अनादि काल से अविछिन्न ऋषि परंपरा हमारे सामने वर्तमान हो गई हो। साधारण रूप से मत्स्य या कूर्म सबसे ध्यान दिये गये अवतार हैं जिसमें वर्तमान के वृहत केशधारी ‘बालव्यासों’ का बहुत योगदान रहा है पर जब विशाल जी के मुख से मत्स्यावतार का वर्णन सुन रहे थे तब हम आँखों के सामने उसे अनुभव कर रहे थे।
“बहुत विशाल महामत्स्य प्रलय जल को भी क्षुब्ध कर रहा है, महासमुद्र में रहने वाले सभी जीव उसको भय और श्रद्धा से देखकर नतमस्तक हो रहे हैं … “
अहा! वार्तालाप याद करते हैं तो शरीर रोमांचित हो जाता है। समय कम और विषय बहुत बहुत ज्यादा तो मन मसोस कर ही उठे हम। ऋषि कल्प विशाल जी मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले स्थित मनावर मे निवासरत हैं। अपने लक्ष्य के लिये एकनिष्ठ ऐसे व्यक्ति हम बहुत कम देखे हैं। पर बलिहारी भारत की और वर्तमान लोकतंत्र की कि इतने विशद ज्ञान को सहेजने के लिये बन रहे बाग स्थित संग्रहालय को प्रशासन का कोई सहयोग नही है, परन्तु फिर भी यह ऋषि अपने सकुंचित साधनों से इसमे निरंतर लगा हुआ है। हम बार बार ऋषि इसलिये कह रहे हैं क्योंकि हम या आप चाहे अनचाहे रूप से अपने या परिजनों के सुख के लिये प्रयासरत हैं, सुख चाहे भौतिक हों या आध्यात्मिक, परंतु ऋषि उस व्यक्ति की उपमा है जो अपने सुख तो छोड़ अपने ‘मैं’ को भी निरस्त कर सकल समाज के हित और ज्ञान संवर्धन हेतु अपने को होम कर देता है।
सो सुहृद जनों! यह लेख यहाँ पर मंगल हुआ, समाप्त नहीं क्योंकि इसकी प्रेरणा देना वाली ज्ञान परंपरा अभी भी क्रियाशील है।
संपादकीय टिप्पणी: नए महाद्वीप Zealandia के प्रमाण पुष्ट होने के साथ ही नर्मदा की आयु, घाटी के जीवाश्मों और पौराणिक साक्ष्यों पर और गहनता से कार्य की आवश्यकता है। सरकारी प्रकल्प और सहायता प्रारम्भ होने ही चाहिये। नये महाद्वीप से संबन्धित समाचार यहाँ देखिये: Zealandia |
लेखक: अविनाश शर्मा, |
🙏
ऋषि शब्द परिभाषित हुआ।
❤