“सिद्धि की मूर्ति में प्राण हों इसलिये
कंटकों पर चले साधना के चरण।
गति रहे उर्ध्वगामी सदा इसलिये
कर लिया एक संकल्प का शुभ वरण॥
साथ पग के चले मन तथा भावना
मार्ग में मत भ्रमा ले कहीं कामना
तीक्ष्ण होता मनोबल रहे निशि दिवस
प्राण जाने न विश्राम का एक क्षण॥“
चिन्तन चल रहा है। आनन्द का परित्याग किये बिना, आनंद के परे हुए बिना चित्त ठहर नहीं सकता। और जब तक चित्त नहीं ठहरता तब तक आनन्द का पता ही नहीं चल पायेगा। हम सच को, ’सत्’ को जान नहीं पायेंगे। सच को जानने के लिए, अपने ’सत्’ को जानने के लिए चित् को ठहराना, चित् को अपने सच के साथ स्थापित करना होगा। ’चित’ को अपने सच के साथ स्थापित करके अपने इष्ट को, अपने परमेश्वर को जान सकोगे। उसको पहचानने के लिए अपने उस देवता को जगाना होगा जो मात्र तुम्हारा है। मात्र ’मैं’ हूँ। वही हमारा सर्व है, वही सर्वत्र है।
कुछ क्षण बाद कक्ष से वहिर्गत होता हूँ। वहुत समय से आसनस्थ था। अब प्रकृति की ओर चल पड़ता हूँ। सिन्दूर राग-विकिरण हो रहा है। ’आकम्पयन् पश्चिम दिग्विभागे संयाति सूर्यो दिवसांकपाल्याम्। दिवसावसान नातिदूर है। खग कुल पंख पसारे उड़ चला है। अब भुवन भास्कर अस्ताचल पर पहुँचने ही वाला है। स्वाध्यायरमण से विरमित हुआ मैं विन्ध्यपर्वत शृंखला की उपत्यका में सुशोभित जलप्रपात के पास बैठ जाता हूँ।
विन्ध्याचल निवासिनी गिरीन्द्रनन्दिनी ने स्वकीया परिभ्रमण लीला में विचरण करते हुए इस जल प्रपात में समोद मज्जन किया था। राज राजेश्वरी के अवगाहन तथा सर्वदेवशरीरजा की जल लीला-विहार के चलते इस पावन प्रपात का नाम राजदरी-देवदरी हो गया। इस स्थली को देख सर्वसत्वमयी जयन्ती चमत्कृता हो गयीं थीं अतः पार्श्वभूमि का नाम आज भी चमत्कृता (चकिया) नाम से विश्रुत है। नगपतिकिशोरी के जलावगाहन की ऐसी चमत्कृति हुई है कि राजदरी-देवदरी जलप्रपात की पावनी वारिधारा का कण-कण साक्षात् वाणी की प्रतिमूर्ति जैसा प्रतिभासित होता है। नमन कर बैठ जाता हूँ-
“मूले भाले हृदि च विलसद् वर्णरूपा सवित्री
पीनोत्तुंगस्तनभरनमन्मध्यदेशा महेशी।
चक्रे चक्रे गलित सुधया सिक्तगात्र प्रकामा
दद्यादाद्या श्रियमविकला वांगमयी देवता नः॥
मैं अरुणोपासना का हठधर्मी हूँ। उर्ध्वगामी गति के संकल्प का वरण करके ’निषेधशेषो जयतादशेषः’ का चिन्तन करता हूँ। आज हठात् श्रम निरसन के लिए प्रकृति की गोद में बैठने का मन हो जाता है।
पावसी वेला है। नीलाम्बुदाच्छन्न व्योम विद्युद्दाम प्रभा से आलोकित हो रहा है। भाद्रपद कृष्ण की चतुर्थी का चन्द्रोदय निहारने की उत्सुकता से भरा देवदरी-राजदरी जलप्रपात के सान्निध्य में संस्थित हूँ। समीपस्थ प्रस्तर शिला पर आसीन हुआ कभीं जलधरनीलालेपित व्योम को तो कभीं कल-कल निनादरत जलप्रपात की उद्दाम जलधारा को निहारता हूँ। सजलजलदावरुद्ध दिनकर किरण का कहीं किंचित अता पता नहीं। धाराधर से वारि विन्दु निपात अभीं अवरुद्ध हैं। सपदि समीपस्थ एक रूपोन्मेष झकझोर देता है। देख रहा हूँ –
घन बोझिल गदराई संध्या अभिरामा है
अति घन तरु बीच लुप्त एक शकुनि वामा है
अन्वेषण आकुल खग मंडलि ने शोर किया
नीरव उस पादप का अंग-अंग झोर दिया
मेरे मूक मानस का अलस कवि डोल उठा
पूछा तब एक कीर चंचु खोल बोल उठा
पावस में वंध्या को भी प्रसव पीर होती है
मेघदूत रच डालो….
अंतरंग होता हूँ। आत्मसंस्थिति से रूपाकर्षण तिरोहित करने का द्रविण प्राणायाम साधना चाहता हूँ, तभीं देवदरी की उच्छल वारि तरंग हिला देती है। कर्ण-कुहरों में कुछ कह कर सिहरन भर देती है- ’देख, ये अम्बुद मृदंग वाद्य कुशल की तरह दुंदुभिनाद करते हुए पानी का रेला बहाने आ रहे हैं, विद्युल्लता रोषभरी कामिनी की कुटिल भौंह की तरह चमक रही है। शीतल पयोदानिल गाढ़ालिंगन देती हुई चल रही है। कामदेव कामियों के हृदय पर काम तक धनुष तान कर अपने दृढ़ बाण चला रहा है। देख रे, देख!
“गाढ़ालिंगन हेतवः प्रचलिताः शीताः पयोदनिलाः
कामः कामिमनस्सु मुञ्चति दृढ़ानाकर्णपूर्णानिषून॥“
पुनः राजदरी की उदात्त नीर लहरी चिकोटी काटती है- ’देख, वे बुझे हैं जो प्रवासी हो गए हैं। वर्षा ऋतु की रूपमती रमणी का आमंत्रण स्वीकार कर काम से प्रेरित भी फिर नहीं लौट आते। वे भोले हैं जो मानिनी को मनाते नहीं या चिरकाल तक क्रोध किए रहते हैं। धन्य हैं वे जो अपनी प्रिया के वाहुपाश में हैं या प्रिया जिनके वश में हैं। यह पावस का समय मेघरूपी नगाड़ों से ऐसी उद्घोषणा कर रहा है –
“ते दग्धाः प्रवसन्ति ये समदना नायान्ति वा प्रोषिता
मुग्धास्तेऽनुनयन्ति ये न कुपिताः कुप्यन्ति वाऽत्यायतम्
धन्यास्ते खलु ये प्रियावशगता येषां प्रिया वा वशे
कालःकारयतीव मेघपटहैरेवं जगद् घोषणाम्॥“
क्या करूँ। चतुर्दिक देखता हूँ। ललितजनमनोग्राहिणी बहुवृत्तान्ता पावसी वेला का क्या कहना। अभीं बादलों से छिपी सूर्य किरणें भी तड़ित की कौंध के मिस कुछ संदेश भेज रही हैं। बावरे! ’रमणीयोऽयं कालः’। क्या तुममें औत्सुक्य नहीं कुलबुलाता? इस जलप्रपात से क्यों न पूछ लेता रूप-रहस्य और रूप-दर्शन की कथा जिसे वह कितने वर्षों से समाधि भाषा में अभिव्यक्त करते हुए गतिमान है। इसके तट को उठ कर निहार तो ले। कुंज में पुष्पों की गंध से खिंचे हुए भौंरे मँडराने लगे हैं। मयूरों का नर्तन तुम्हें कुछ बताना चाहता है। वीरबहूटी चपलायमान हैं। शीताम्बुवन्त पार्श्ववर्ती मेदिनी विहरानुकूल ही तो है। नव हरित तृणांकुर से भरी वनभूमियाँ चरण विन्यास योग्य दर्शित हो नहीं रही हैं क्या! कलुष सलिलवाहिनी नदियाँ वेगवती और दुर्लंघ्या तो हैं, किन्तु जब पवन भ्रान्त हो, जलधरमलिन दिवस हो, बरसाती प्रसून की गंध से महमहाती वनस्थली हो तो मन उत्सुकता से भर ही जाता है न।
कसमसाती कामनाओं की गुदगुदी से उठ खड़ा होता हूँ। बाहें उठा कर विद्युत प्रकाश में गलदश्रुभावुकता में बोल उठता हूँ- ’गरज रे मेघ! बरस रे मेघ! कदम्ब की धूलि से मिश्रित वायु बहो! नाचो रे मोर! नाचो-
“वाता वान्तु कदम्बरेणुशवला नृत्यन्तु सर्पद्विषः
सोत्साहा नववारिभारगुरवो मुञ्चन्तु नादं घनाः।“
मैं लालसावगाहित जल प्रपात की क्षीरधवल वारिधारा को गंभीरता से निहारता हूँ। एक अंजलि भर जल से नयन प्रक्षालित करता हूँ। उसी जल बिन्दु से जैसे स्वर फूट पड़ता है-
“सुनो उद्विग्नमन धीमान्! स्वरूपानुसंधान की यात्रा का पाथेय अनमिल है। घुणाक्षर न्याय से संहति बैठ भी जाय तो पथ में अनेकों प्रत्यूह हैं। दिव्य रूपानुभावन का रस परिपाक तो अनिर्वचनीय है। वह मन के नेपथ्य का उर्मिल संगीत है। अभीं यहीं इसी क्षण होने का भाव ही इसकी रस निष्पत्ति है। सुनो, क्षणहीनता के अछोर नीरनिधि में मन का डूब जाना और अम्बुधि होकर आकाश के चुम्बन की अनुभूति से भर जाने को रूप रहस्य का राजतिलक मानो। ’कोहं’, ’सोहं’, ’शिवोहं’, ’नाहं’ के दंडक वन का विचरण छोड़ो। इस निर्झर से उस निर्झर का फेरा किस काम का। विश्ववर वीणा की मनोज्ञ मूर्छना का रसाविल वृन्दावन हृदय के कालिन्दतनया कूल पर अवतरित होने दो।
निर्विशेष और निराकार भावना में अत्यंत उग्र आग्रह की चित्तवृत्ति रखना तो शिला संघट्टन से निज का चंदनचर्चित भाल देखना है। एक विश्वास ऐसा भी है कि रूप के सिवा और कुछ सत्य नहीं है। पर जो सत्य है, तत्व है, वह निश्चय ही रूप सम्पन्न है। रूप ही शुष्क विज्ञान भावना, Scientific abstraction में अरूप सत्तामात्र में पर्यवसित होता है। अरूप कल्पनामात्र है जी। निर्मल अनुरागवेग की आवश्यकता है। ब्रह्म को अरूप मान कर असत् बना देने वाला प्राणी स्वयं असत् हो जाता है। अरूपसत्ता असत्प्राय है। रूप के ऊपर ही सत्ता निर्भर करती है, रूप संभावनाहीन सत्ता नहीं। रविन्द्र ने गाया है न!
“आमि आपन मनेर माधुरी मिशाये
तोमार करेछि रचना……
मन असीम गगन विहारी।
तुमि आमारि ये तुमि आमारि॥
मम हृदय रक्तरंजने तव
चरण दिये छे रँगिया।
तव अधर एँकेछे सुधाविधेमिशे
मम सुखदुःख भाँगिया॥”
अर्थात् मैंने अपने मन के माधुर्य को मिला कर तुम्हारी रचना की है। मेरे असीम गगन में विहार करने वाले तुम मेरे हो, तुम मेरे हो। अपने हृदय के रक्तरंजन से मैंने तुम्हारे चरणों को रँग दिया है। तुम्हारे अधर-सुधा विन्दु से मिलकर मेरे सुख-दुःख नष्ट हो जाते हैं।
सुनो! विश्व रूपमय है क्योंकि विश्व दृश्यमान है। सर्वत्र राशि-राशि रूप, शत-शत मूर्ति, सहस्र-सहस्र शोभा किस स्रोत से उठकर, किस अज्ञात रूप के साम्राज्य से प्रवाहित होकर आ रहे हैं, कौन जानता है। परमहंस शुकदेव ने ध्यान चक्षु से ’गोविन्दवेणुमनमत्त मयूर नृत्यम्’ का दर्शन किया था। रवीन्द्र ने देखा था, समीप ही कोठे पर पुच्छ-पुञ्ज फैलाकर गर्व से वक्षस्थल फुलाये सदन का पालतू मयूर नृत्य कर रहा है। सर्वांग में मनोरम रंग की रेखायें हैं। वे कितनी हैं, इसकी गणना कौन कर सकता है? तुम कुसुम के सौन्दर्य का राज निहारो न! वर्णमय, गंधमय, असीम सुषमा-सम्भार – ’गुंजत अलि लैं चलि मकरंदा।’ नीर की विरलता को वेधती हुई मृदुला रम्या किशोरी के सुवलित बाहुवल्ली के उपमान-सी एक हृदयहारिणी मृणालिनी, नलिनी लता अंकुरित हुई है। उस पद्मा के प्राण का रूप-सौरभ-विभव जो भाव मात्र था, वही रूप में प्रस्फुटित होकर खिल उठा। पंक की छाती खुली तो वहीं से पंकज की पँखुरियाँ विलसित हो गयीं। यह रूप, वर्ण, सुषमा, यह मधु गंध किसके मन का महोल्लास था? वह क्या ’अरूपमव्ययम्’ था? किसकी है यह रस-निष्पत्ति? रस से संपृक्त वह अरूप कौन है? निखिल रूपों का जो आश्रय है, अनादि आश्रय है, उसका नाम है रूपब्रह्म। नित्य रूप के न होने पर अनित्य रूप कहाँ से आयेगा। इसी उपलब्धि की भूमि से कवि ’कीट्स’ के उद्गार निकले हैं- “A thing of beauty is a joy forever’.(सुन्दर वस्तु सुचिर आनन्द का निकेत है)। कवि ’शेली’ का मनःप्राण उसी रूप ब्रह्म के अनुभव से न भरा होता तो गुलाब पुष्प का ऐसा वर्णन कैसे हो सकता था-
“And the rose like a nymph to the bath and dressed
Which unveiled the depth of her glowing breast,
Till fold after fold, to the fainting air
The soul of her beauty and lover lay bare.
और उसी ब्रह्मानुभव के कारण ही तो ’वर्ड्सवर्थ’ फूट पड़ा था-
’To me the meanest flower that blows
Is too deep for tears.”
गतिशीलता तो मरुत की है, थिरकन तो पादप-पर्ण का है किन्तु वसुमती की छाती पर लरजती छाया का सुख तुम्हारा है। धरा की झील, पर्वत का नीर, लहरों का शीत-स्पर्श सुख तुम्हारा है। पाटल की सुरभि, व्योम की तुहिन विन्दु, कोकिला की कूक, वासंती बयार की संगीत लहरी – सब तद्भव होती हैं, किन्तु याद रहे वह परस्मैपद है। सरिता की स्वर्णिम रेत पर खिलखिलाती चाँदनी, गैरिकवसना उषा की अँगड़ाई, धेनुधूलि की विमल वेला- सब आनन्द की थाल में सजायी हुई आरती किसके लिए है। भूमि के आँचल के बाल-गोपाल बनो। मोक्ष मोद का क्षौर कर्म है। चलो गाओ-
“अगणित उडु नीलाम्बर नूतन घन निविड़ निशा
रंजित राकेश रश्मि अंशुमान अरुण उषा
धेनुधूलि खग कलरव मुकुलित तरु सुमन सौम्य
अपरा अमरावति की महानता नहीं,
उसे जानता नहीं, उसे मानता नहीं।
परम रम्य राका पति-रत्नाकर-रहस मिलन
शिशु नर्तन चंचरीक पटली कृत कल कुंजन
क्लान्त श्रान्त गिरि निर्झर वनखग वासंती स्वर
अपर गीतमाला मैं बखानता नहीं,
उसे जानता नहीं, उसे मानता नहीं।”
अपने आगे अपने आकाश की स्पष्टता में आनंदित रहो। याद रहे, सुख का ही विपरीत है दुःख, आनन्द का विपरीत नहीं। भले ही लगे कि रूप में ये सब सृष्टियाँ ससीम हैं, किन्तु यह देवदरी तुम्हारी उस व्यक्ति पुरुषोत्तमा की विजय पताका तुम्हें सौंप रही है जो देह को उत्तीर्ण करके, मन को अतिक्रम करके, वर्तमान को कुक्षि में दाबे अतीत और भविष्यत् के उपकूलों को प्लवित करती हुई चली आ रही है। तुम्हें अपनी सत्ता के प्रकाश में ऐसा रूप देने के लिए उत्कंठित हुआ हूँ जो आनन्दमय है, जो मृत्युहीन है। मंजर जैसे फल की आकांक्षा में, जननी जैसे शिशु की आकांक्षा में प्रतिमुहूर्त प्राणों की चंचलता और वेदना की अधीरता में डूबी रहती है, वैसे ही यदि रूप-भाव-सृष्टि की तपस्या में, वेदना में मिटना नहीं सीख सके तो सृष्टि के लिए व्यर्थता ही होगी।रूप की कोई सीमा नहीं। असीम है विस्तीर्ण व्योम शिखर, किन्तु नयनों की शक्ति सीमित है। जब भी अपनी शक्ति की शेष सीमा विन्दु पर जा पहुँचोगे, जहाँ से और आगे जाना असम्भव प्रतीत होगा, वहीं से तुम्हारी रूपान्विता प्रकाश लीला काव्य हो उठेगी। इस धरणितल पर ही सुधा की त्रिपथगा है। अपने रवीन्द्र का गान सुना है न-
“पाखी जब उड़े जाय आकाशेर पाने
मने करे एनू बूझि पृथिबी त्यजिया
जत उड़े, जत उड़े, जत उर्द्धे जाय
किछुते पृथिवी तबू पारे ना छाड़िते
अवशेषे श्रान्त देहे नीड़े फिरे आसे॥”
यहीं असीम सीमा को प्यार करता है, व्यक्ति में समग्र का प्रकाश फूटता है, रूप में समग्रता अशेषतः एकाकार और निर्विकार हो उठती है।
यह प्रश्न क्यों कि रुप सत्य है या अरूप? रूप तो प्रमाणीकृत है, प्रत्यक्षीकृत है। पर वह है सत्य या मिथ्या। विचार लो! अरूप वस्तु कुछ है इसका प्रमाण कहाँ है? ’हम देख नहीं पाते, इसी से अरूप है’-यह तो कोई प्रमाण नहीं है। देखने की शक्ति नहीं है, इसी कारण देख नहीं पाते। शक्ति से स्फुरित होने पर देख सकोगे। ’दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे रूपमैश्वरम’। किसी दिन कोई तुम्हें चक्षु भी दे सकता है-
“प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्ति विलोचनेन
सन्तः सदैव हृदयेऽपि विलकयन्ति।”
याद रहे, रूपमात्र के पीछे है एक भाव शक्ति – ’सर्वेषामपिवस्तूनां भावार्थो भवतिस्थितः।’ भाव रूप के भीतर स्थान प्राप्त करना चाहता है और रूप भाव के भीतर अपने को विलीन करना चाहता है। वह असीम सीमा में अतिशय आसक्त होना चाहता है और सीमा असीम में अपने को खो देना चाहती है। जब अपने भीतर गतिमान उस रूपतरंगिता नदी और निरंतर बहते हुए, कलरव करते हुए (streaming) पानी का ध्यान हो सकेगा तब उस सूक्ष्म भावशक्तिमंत तक पहुँच होगी, मिट्टी(धरती) के अन्दर की दुनिया दिखेगी। तब समझ पाओगे- चित्रं विचित्रं महत्।”
आँखे खुलीं, बोध हुआ। हे चिरपरिचित! आनन्दधाम की वाणी का आमंत्रण स्वीकृत है। अब- ’आनन्द धाम की वाणी में ही भेजूँगा पाती प्रियतम। सुन्दरतम आमंत्रण की प्रतिध्वनि प्राण! क्यों न होगी अनुपम।’
उग गया था चतुर्थी का वह चंद्र, गणेश पर्व पर जिसके दिग्दर्शन से निहाल हुआ। बार-बार यह अभिव्यक्ति झकझोरने लगी-
’If I am not for myself
Who will be for me?
And I f I am not for others,
What I am?
And if not now, When?