‘नावक के तीर’ की संक्षिप्ति वाले दोहे को लगभग हम सभी ने बचपन में पढ़ा हुआ है और अधिकांश लोग यही समझते हैं कि ‘नावकु कै तीरु’ में प्रयुक्त शब्द ‘नावक’ हिंदी के नाविक का पर्यायवाची होगा। हमारे बालमन ने सोचा कि पुराने नाविक जबर धनुर्धर रहते होंगे सो कवि ने अपने दोहों को यह उपमा दे दी। समय निकलता गया और यह सब उहापोह बिसर गयी।
बहुत बाद में, जब हम बारहवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब के प्रसिद्ध ग्वालियर मेले में लगने वाले शिल्प बाजार में पहुँचे। बाजार की उस सप्ताह की थीम थी ‘जनजातीय शिल्प एवं हैंडलूम’। मेले में एक व्यक्ति जनजातियों द्वारा उपयोग किये जाने वाले हथियार बेच रहा था, फरसे, बका, भाले, और दो तीन तरह के धनुष और बाण। उनमें बिलकुल धार नहीं थी सो हानि पहुँचने की समस्या कम थी, रूचि की वस्तु दिखने पर हम वे हथियार परखने लगे।
वहाँ प्रदर्शित धनुष मुख्यतः दो प्रकार के थे, बड़े और छोटे। छोटों की विशेषता यह थी कि उन्हें पकड़ने की जगह, तीर रखने के स्थान पर एक आधी कटी नलकी समान खाँचा बना था जिसमें तीर को रखकर चलाया जाता था। यह व्यवस्था सम्भवत: तीर द्वारा सटीक लक्ष्य भेदन के लिये रखी गयी थी। उत्सुकतावश हमने विक्रेता से पूछा कि यह क्या चीज है तब उसने कहा, “भैय्या, ये नाबक धनुष है इसका निशाना बहुत सटीक लगता है।”
उसने उस धनुष से निशाना लगा कर भी हमें दिखाया। उसके मुख से ‘नाबक’ शब्द सुनते ही सतसई के बारे में बचपन में पढ़ा उपर्युक्त दोहा दिमाग में घूम गया और सारी उलझी कड़ियाँ पलभर में सुलझ गयीं।
उस विक्रेता ने बताया कि उसकी जाति ‘राजभर’ थी जो फिलहाल उत्तरप्रदेश में अनूसूचित जाति है। उसके अनुसार यह धनुष राजभर समुदाय में बहुत प्रचलित रहा है। पुराने समय में लगभग हर राजभर युवा पहलवानी, लाठी बाजी, तलवारबाजी और इस धनुष का अभ्यास करता था।
बाद में मैंने इस धनुष का थोड़ा बदला रूप गढ़ा मण्डला के गोण्ड (या गोंड़) जन के पास भी देखा। अधिक जानकारी की खोज करने पर जाना कि यह धनुष मुगलकाल के भारत का प्रिय हथियार रहा है। लगभग दो सवा दो फीट का यह धनुष पकड़ने में आसान, हल्का होने से घुड़सवारी करते समय निशाना वेधने में अचूक रहता था।
खाँचा बना होने से तीर उसमें सध जाता था और हिलता नहीं था जिससे लक्ष्यवेध आसान हो जाता था। विषय को थोड़ा और गहोरने पर मालूम हुआ कि राजभर और गोंड दोनों ही योद्धागण भारी लड़ाके रहे हैं। इतिहास में बहराइच में सालार मसूद गाजी और राजा सुहेलदेव के बीच हुये युद्धों में राजभर लोग सुहेलदेव के नेतृत्व में लड़े थे। यह प्रवाद भी रहा कि राजा सुहेलदेव राजभर थे। बाद में सल्तनत काल में यह लोग पिछड़ते चले गये पर मुगलकाल में यह सेना में आये। लगभग यही कहानी गोण्डों की है। गढ़ा मण्डला के पतन के बाद गोंड मुगलों के करद राजा (करदाता, मांडलिक नरेश) हो गये थे।
इन दोनो दुर्धर्ष योद्धा जातियों ने मुगलों से इस धनुष विशेष उपयोग सीख लिया। ‘नावक’ नाम के इस धनुष का उपयोग बहुत छोटे लक्ष्य को भेदने के लिये किया जाता था। इसमें प्रयुक्त तीर भी अलग होता था। उसका ‘फाल’ आगे से नुकीला और पीछे चपटा और चौड़ा नहीं रहता बल्कि बेंत के बराबर मोटाई का तीर आगे से बेहद पैना होता था ताकि वह नावक के बने खांचे में सरलता से रखा जा सके।
भारत में आकर इसके तीर में एक और परिवर्तन किया गया जिससे नावक के तीर और भी घातक हो गए। तीर के आगे का फाल ऐसे बनाया जाने लगा कि जब वह निशाने को भेदे तो घाव में से तीर खींचने पर भी उसका फल घाव के भीतर ही छूट जाता था। तीर निकालने पर फल छूट जाने वाला बाण बनाने की यह विशुद्ध भारतीय पद्धति थी। वस्तिभेदन में प्रयुक्त इस प्रकार के बाण को धनुर्विद्या के सन्दर्भों में ‘बास्तीक’ बाण कहा गया है। नावक ने कई बार मुगलों की डूबती नय्या को पार लगाकर उनको हारने से बचाया और अपना नावक नाम हिंदी अर्थो में सफल किया।
मुगल बादशाह अकबर और दिल्ली के सम्राट महाराज हेमचंद्र विक्रमादित्य ‘हेमू’ के बीच के युद्ध में मुगल बस हारने को ही थे परंतु एक मुगल धनुर्धर ने नावक का प्रयोग करके मुगलों को मृत्युदान करते महाराज हेमचंद्र विक्रमादित्य की आँखे भेद दी और वे मूर्च्छित हो गये, उसी क्षण पासा पलट गया। दूसरी ऐसी घटना मुगल धनुर्धरों द्वारा गोंड रानी दुर्गावती की आँख भेदे जाने की है जिससे गोंडो का पतन हो गया था।
तीसरा ऐसी घटना में मतभेद हैं। पेशवा सवाईं माधवराव के समय निजाम से हुये युद्ध में निजाम के सेनापति विट्ठल शिवदेव को इसी पद्धति से भेदा गया था। एक पक्ष कहता है कि वह भाला था, दूसरा पक्ष कहता है कि विट्ठल शिवदेव को नावक धनुष के एक बड़े रूप से भेदा गया था और निजाम सेना हार गई थी।
सुहृदजनों! नावक की यह संक्षिप्त गाथा पूर्ण हुई। जब भी किसी प्राचीन संग्रहालय में जायें तो शस्त्रास्त्र खण्ड में ध्यान से देखने पर आपको नावक के दर्शन हो जायेंगे।
सम्पादकीय नोट: नावक एक पारसी (Persian, फारसी) शब्द है जिसका अर्थ ‘वानस्पतिक नलकी’ होता है। पारसी भाषा, अपने पह्लवी और अवेस्ता पूर्वजों के द्वारा संस्कृत से गहराई से जुड़ी हुई है। संस्कृत शब्द ‘नीवि’ पर ध्यान दें जो कि कटि पर बाँधा जाने वाला वस्त्र था और जिसका विकास एवं संगति नाड़े से है जिसमें कपड़े की नली में से डोरी खींची जाती है। लम्बी मांसपेशी ‘स्नाव’ कहलाती है और धनुष की प्रत्यञ्चा के लिये भी ‘स्नावन’ प्रयोग मिलता है। नावक के मौलिक ईरानी स्वरूप के लिये ऊपर संलग्न चित्र देखिये। नावक के प्रयोग को समझाने की दृष्टि से, इस लिंक (https://www.youtube.com/watch?v=TgTj1JADUqs) पर मेक्सिको से नावक के एक आधुनिक प्रयोगकर्ता का विडियो भी द्रष्टव्य है। |
लेखक: अविनाश शर्मा, |
आभार श्री मान
Incredible article
अत्युत्तम् ज्ञानवर्धन लेख ।
ऐसे ही और लेखों कि प्रतिक्षा है
हा!
😕
यह ज्यान हमारे माट्साब लोगन को भी नहीं था!
उनने बताया होता समय पर, तो हम भी बाल्यकाल में नावक बना-चला लेते।
अतुलनीय महोदय
बहुत विश्लेषण परक जानकारी। साधुवाद।
आभार
उत्तम जानकारी….
Ati-uttam
Navak k teer ka matlab pata na hona bada bura lagta thaa.
Kalank sa dhul gaya .
Hridaya se dhanyawad.
saabhaar.
बहुत अच्छी जानकारी।
बहुत अच्छी जानकारी। चित्र से एक बात और स्पष्ट होती है, धनुष चलाने मव अंगूठे के प्रयोग नहीं होता था। (मैंने कहीं पढा था आज प्रमाण मिल गया).