वैदिक साहित्य -1से आगे
चेतना के स्तर अनुसार वेदों के मंत्र अपने कई अर्थ खोलते हैं। कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि किसी श्रुति के छ: तक अर्थ भी किये जा सकते हैं – सोम चन्द्र भी है, वनस्पति भी है, सहस्रार से झरता प्रवाह भी। वेदों के कुछ मंत्र अतीव साहित्यिकता लिये हुये हैं। इस शृंखला में हम कुछ मंत्रों के भावानुवाद प्रस्तुत करेंगे।
शृंगार
यथा वृक्षं लिबुजा समन्तं परिषस्वजे।
एषा परिष्वज स्वयां यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः॥
यथा सुपर्णः प्रपतन् पक्षौ निहंति भूम्याम्।
एवा नि हन्मि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः॥
यथेमे द्यावा पृथ्वी सद्यः पर्येति सूर्यः।
एवा पर्येमि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः॥
(अथर्ववेद, 6.8.1-3)
आ निकट प्रिये तूँ दूर न जा !
मेरे तन से निज तन लिपटा !!
जिस भाँति वृक्ष के सुघड़ तने से आ लिपटे एक नरम लता ।
मुझसे टिक कर निज अंग लगा॥
आ निकट प्रिये तूँ दूर न जा !
जैसे पर कटा गरुड़ कोई पृथ्वी पर वेग लिये गिरता ।
वैसे ही मेरी और लपक बन कर तूँ आज काम-विद्धा ॥
मेरे आलिंगन में बँध जा ।
आ निकट प्रिये तूँ दूर न जा !
पृथ्वी और अम्बर दोनों को जिस भाँति सूर्य है ढँक लेता ।
वैसे ही तुझ पर छा कर मैं निज बीज-भूमि दूँ तुझे बना ॥
तूँ भी मेरे मन पर छा जा ।
आ निकट प्रिये तूँ दूर न जा !
भावानुवाद: श्री त्रिलोचन नाथ तिवारी
अकल्पनीय.. अनुवाद
वेद रिचाओं में श्रंगार की पराकाष्ठा…
वेद ऋचाओं का सरल,सरस.भावात्मक काव्यात्मक अनुवाद।साधुवाद
वाह, त्रिलोचन जी । वेद इतने आसान कभी न थे ! साधुवाद !