What India can learn from Israel
यशार्क पाण्डेय
आज बदले माहौल में इस्राएल के अब तक के युद्ध अनुभव से भारत क्या सीख सकता है। साथ ही ऑपरेशन थंडरबोल्ट, एंटेबे की कहानी। साथ ही संनिघर्षण युद्ध (War of Attrition) की नीतियाँ।
गतांक में हम इस्लामिक स्टेट पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकवाद के विरुद्ध स्पेशल ऑपरेशन फ़ोर्स की उपयोगिता पर चर्चा कर चुके हैं। जनमानस में प्रायः यही धारणा रही है कि जिस प्रकार इस्राएल अरब पोषित आतंकवाद का दमन करता है वैसी ही रणनीति भारत को भी अपनानी चाहिये। इसके समर्थन में इस्राएल डिफेंस फ़ोर्स (IDF) द्वारा 1976 में एंटेबे में किये गए ऑपरेशन का प्रसिद्ध उदाहरण दिया जाता है। परन्तु स्पेशल ऑपरेशन फ़ोर्स के प्रयोग की अपनी सीमाएँ हैं; युद्ध कौशल की दृष्टि से स्पेशल फ़ोर्स के अपने लाभ हैं किंतु बड़े स्तर पर कूटनीतिक, रणनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक लाभ-हानि का गणित इस पर निर्भर करता है कि किसी भी स्पेशल ऑपरेशन का अंतिम लक्ष्य क्या है।
निश्चित ही भारत 26/11 और उसके पश्चात हुई घटनाओं के आधार पर अपनी सुरक्षा हेतु स्पेशल ऑपरेशन कमांड का गठन कर सकता है तथा इसका प्रयोग एक वृहद् रणनीतिक राष्ट्रीय संपत्ति के रूप में कर सकता है। सीमापार से जारी आतंकी गतिविधियों के विरुद्ध पाक अधिकृत कश्मीर में स्पेशल ऑपरेशन फ़ोर्स के प्रयोग के सन्दर्भ में भारत को मूलतः चार बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है:
- क्या प्रतिकारात्मक कार्यवाही स्वीकार की जा सकने वाले मूल्य पर की जा सकती है?
- प्रतिकार करने से किस उद्देश्य की पूर्ति सम्भव है?
- हमारे मित्र देशों की प्रतिक्रिया क्या होगी?
- हमारे शत्रु (धुर प्रतिद्वंद्वी) देशों की क्या प्रतिक्रिया होगी?
इस्राएल के अनुभवों से भारत क्या सीख सकता है प्रस्तुत लेख का ध्येय इन्हीं बिंदुओं को विस्तार देना है।
ऑपरेशन थंडरबोल्ट, एंटेबे (3-4 जुलाई, 1976)
इस्राएल द्वारा किये गए आतंक विरोधी अभियानों में ऑपरेशन एंटेबे सर्वाधिक प्रसिद्ध है। 27 जून 1976 को PFLP (Popular Front for Liberation of Palestine जिसे बाद में फलस्तीन लिबरेशन आर्गेनाइजेशन (PLO) के नाम से जाना गया) तथा उसके सहयोगी संगठन ने तेल अवीव से पेरिस जाने वाली एयर फ्रांस एयरबस संख्या AF139 का अपहरण कर लिया था।
आतंकियों ने पायलट को इसके लिए बाध्य किया कि विमान में बेनघाज़ी से ईंधन लेने के पश्चात यूगांडा स्थित एंटेबे में उतारा जाये। चतुर पायलट ने आतंकियों के निर्देश का पालन करने से पूर्व चेतावनी का बटन दबा दिया था जिससे धरती पर स्थित नियंत्रण कक्ष के अधिकारियों को समय रहते विमान अपहरण की सूचना मिल गयी थी।
एंटेबे में विमान उतारने के उपरांत PLO आतंकियों ने फ्रांसीसी, ग़ैर-यहूदियों समेत उन्हें भी मुक्त करने का निर्णय लिया जो इस्राएली नागरिक नहीं थे। फलस्तीनी आतंकियों ने इस्राएल को 48 घण्टे का समय देते हुए यह मांग रखी कि PLO के 53 आतंकियों को मुक्त किया जाये अन्यथा वे विमान में सवार इस्राएली नागरिकों की हत्या कर देंगे। इस परिस्थिति से निबटने के लिए इस्राएल ने आतंकियों से बातचीत और समझौते की प्रक्रिया जारी रखते हुए 4 जुलाई तक का समय ले लिया।
दूसरी ओर ब्रिगेडियर जनरल डैन शोमरोन के नेतृत्व में बंधकों को छुड़ाने की सैन्य रणनीति बनाई गयी। इस्राएल डिफेंस फ़ोर्स की 35वीं पैराशूट ब्रिगेड तथा गोलानी इन्फैंट्री ब्रिगेड से कुछ विशेष सैनिकों का चयन किया गया जिन्हें एंटेबे से इस्राएली बंधकों को छुड़ा कर लाने का कार्य सौंपा गया। विशेष रूप से चयनित इन सैनिकों ने 3 जुलाई को ऑपरेशन का पूर्वाभ्यास किया तदुपरांत चार C-130 Hercules विमानों ने एंटेबे के लिए उड़ान भरी।
इनमें से एक हरक्यूलिस विमान में एक मर्सिडीज़ समेत दो लैंड रोवर कारें थीं। रात्रि 11 बजे हरक्यूलिस एंटेबे में उतरा तब उसके इंजन चालू थे। पीछे के द्वार से तीनों कारें रनवे पर उतारी गयीं जो सरपट दौड़ते हुए अपहृत फ्रांसीसी विमान की ओर चल पड़ीं। इन कारों का प्रयोग छद्म आवरण देने के लिए किया गया था ताकि ऐसा प्रतीत हो कि यूगांडा का कोई उच्चाधिकारी मिलने आ रहा है। वास्तविकता यह थी कि कारों में इस्राएल डिफेंस फ़ोर्स के सैनिक थे।
इन सैनिकों ने यूगांडा के संतरियों समेत अपहरणकर्ताओं को भी मार गिराया। इस्राएली सैनिकों की एक टुकड़ी ने बंधकों को छुड़ा कर अन्य विमानों में बिठाया तथा दूसरी टुकड़ी ने यूगांडा के युद्धक विमानों को नष्ट कर दिया। इस अभियान में सम्प्रति इस्राएल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के भाई लेफ्टिनेंट कर्नल योनी नेतन्याहू वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
ऑपरेशन थंडरबोल्ट से इस्राएल को तीन प्रत्यक्ष अनुभव हुए थे। प्रथम तो यह कि IDF और इस्राएली सत्ता प्रतिष्ठान ने विश्व को यह सन्देश दिया था कि इस्लामी आतंकवाद का वास्तविक स्वरूप क्या है और इसका फन किस प्रकार कुचला जा सकता है।
दूसरा, इस्राएली सेना का मनोबल और सेना के प्रति इस्राएली नागरिकों की निष्ठा में वृद्धि हुई थी जो 1973 के योम किप्पर युद्ध के उपरांत घट गयी थी। इस्राएल ने 1967 में मिस्र को छः दिवसीय युद्ध में पराजित किया था जिसके कारण इस्राएली सेना अहंकार से ग्रसित हो गयी थी। इसकी कीमत 1972 में म्युनिक ओलंपिक में यहूदी खिलाड़ियों ने अपनी जान गंवा कर चुकाई। पवित्र योम किप्पर मास में युद्ध लड़ना और विजयी होना इस्राएल के लिए महंगा सिद्ध हुआ था जिसके कारण जनता में भारी असंतोष व्याप्त था। ऑपरेशन थंडरबोल्ट की सफलता ने इस्राएली नागरिकों को यह आश्वासन प्रदान किया कि वे विश्व में कहीं भी हों इस्राएल उन्हें बचा लेने में सक्षम है। सन् 1973 के उपरांत इस्राएली सेना ने जो बड़े स्तर पर सुधार किये थे उसकी परिणति ऑपरेशन थंडरबोल्ट में परिलक्षित हुई।
तीसरा, सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि इस्राएल ने अपने शत्रुओं के अंदर किसी भी विधि से विनाश का भय उत्पन्न कर दिया।
इस परिस्थिति का विश्लेषण भारत-पाक के सन्दर्भ में किया जाये तो स्पष्ट होता है कि भारत पाकिस्तान से चार परम्परागत युद्धों में विजय प्राप्त करने के पश्चात भी सामान्य जनमानस में पूरी तरह यह विश्वास दृढ़ नहीं कर पाया है कि हमारे सभी नागरिक पाकिस्तान पोषित छद्म युद्ध से सुरक्षित हैं। भारतीय सेना द्वारा पाक अधिकृत कश्मीर में गत वर्ष की गयी सर्जिकल स्ट्राइक पर जिस प्रकार मीडिया और पत्रकारों ने प्रश्न खड़े किये उससे असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई। इसके अतिरिक्त भारत सरकार यह बताने में भी विफल रही कि पाकिस्तान को कितना नुकसान हुआ।
संनिघर्षण युद्ध (War of Attrition 1968-70)
सन् 1967 में छः दिवसीय युद्ध (Six Days War) में मिस्र को इस्राएल के हाथों पराजय का मुँह देखना पड़ा था, साथ ही सिनाई मरुस्थल की भूमि भी छिन गयी थी। इसका प्रतिशोध लेने के लिए मिस्र ने इस्राएल के विरुद्ध संनिघर्षण का युद्ध छेड़ा। मिस्र द्वारा इस्राएल को थका देने का वही तरीका अपनाया गया था जो आज पाकिस्तान भारत के विरुद्ध करता है। युद्ध में सीधे चुनौती न देकर सीमापार से समय-समय पर गोलाबारी कर शत्रु को थका देने की रणनीति संनिघर्षण का युद्ध कहलाती है।
मिस्र के अतिरिक्त फलस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) और हिज़्बल्लाह जैसे गुट विश्व में कहीं भी इस्राएली नागरिकों की हत्या करने को लालायित रहते हैं। इनका एकमेव उद्देश्य है कि इस्राएल थक कर पराजय स्वीकार कर ले। इसी रणनीति के तहत पाकिस्तान भी भारत के विरुद्ध छद्म युद्ध लड़ता रहा है।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि मिस्र के विरुद्ध इस्राएल ने 1969-70 में मध्य कई स्पेशल ऑपरेशन किये थे परन्तु मिस्र तो जैसे इन हमलों का आदी हो चुका था। मिस्र अथवा इस्राएल कोई भी संनिघर्षण के युद्ध में विजयी नहीं हुआ था किंतु मिस्र ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को पीड़ित घोषित कर सोवियत रूस का साथ प्राप्त करने में सफलता पायी थी। ठीक उसी प्रकार जैसे आज पाकिस्तान पहले अमरीका और अब चीन का हाथ थामे है।
दूसरा बिंदु यह है कि फलस्तीन के PLO, हमास और हिज़्बल्लाह की भाँति ही पाकिस्तान ने लश्कर ए तय्यबा जैसे संगठनों को पोषित किया ताकि वे भारत के विरुद्ध अपारंपरिक युद्ध में सहायक हो सकें। फलस्तीन PLO के क्रियाकलापों द्वारा इस्राएल को शेष विश्व के सहयोग से अलग कर स्वयं एक पीड़ित देश होने का नाटक करता है।
इन संगठनों ने अपनी उपयोगिता इस मायने में सिद्ध की है कि ये आतंक का पोषण करने वाले देशों के सहयोगी देशों में अपनी गतिविधियां नहीं करते। उदाहरण हेतु लश्कर ए तय्यबा जैसे संगठनों के निशाने पर कभी चीनी अथवा अरबी नागरिक नहीं होते। गेहूं संग घुन पिस जाये तो अपवाद ही माना जायेगा। यह एक प्रकार का भयादोहन (blackmail) है जिससे लश्कर जैसे संगठन यह प्रमाणित करते हैं कि राज्येतर कर्ता (non state actors) भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
अतः कोई भी स्पेशल ऑपरेशन करने से पूर्व भारत को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि राज्येतर कर्ताओं से लड़ते हुए राज्य कर्ताओं से सम्बंध नहीं बिगड़ने चाहिये। किसी भी स्पेशल ऑपरेशन में गुप्तचर स्रोतों से प्राप्त सूचना का बड़ा महत्व है। ऑपरेशन थंडरबोल्ट एंटेबे में केन्या से सहयोग लिया गया था। मुम्बई पर हुए 26/11 हमलों के पश्चात अबू जुंदाल, फसीह अहमद और अब्दुल करीम टुंडा को पकड़ने में सऊदी अरब ने हमें गुप्त सूचनाएं प्रदान की थीं।
सन्दर्भ:
- Israeli defence forces since 1973 by Samuel M Katz
- Israel’s National Security: Issues and Challenges since the Yom Kippur War by Efraim Inbar
- An Eye For An Eye: Decoding Global Special Operations and Irregular Warfare: A vision for India by Prem Mahadevan
- SAS and Elite Forces Guide: Special Forces in Action by Alexander Stillwell