डी.एन.ए. DNA, Deoxyribo.Nucleic.Acid समस्त जीवधारियों और कुछेक विषाणुओं की कोशिकाओं के नाभिक में एक अणु होता है जो अभिवृद्धि, विकास, क्रिया और प्रजनन से सम्बन्धित आनुवंशिक सूचनाओं का वहन करता है।
डॉ. मधुसूदन उपाध्याय, लखनऊ
कितना उत्तेजक और गौरव पूर्ण लगता है कि पृथ्वी के चार अरब वर्षों के इतिहास में हम आज जीवित हैं! मैं और आप इतने भाग्यशाली हैं कि लगभग पचासी करोड़ से अधिक प्रजातियों में हम महत् चेतना संपन्न प्राणी, मनुष्य के रूप में हैं। सात अरब से अधिक जनसंख्या वाली इस पृथ्वी पर निश्चित ही हम बहुत भाग्यशाली हैं। पृथ्वी के इस संपूर्ण इतिहास में हम उस काल में पैदा हुये जब हमसे बस कुछ हजार मील दूरी पर रह रहे हमारी ही प्रजाति के दो सदस्यों ने संभवतः ब्रह्मांड के महानतम, सबसे आश्चर्यजनक और फिर भी सबसे सरलतम रहस्य डी.एन.ए. संरचना की खोज की।
आइये आपको एक नितान्त भौतिकवादी फिर भी वैज्ञानिक इतिहास यात्रा पर ले चलें।
सम्भवत: 1794 ई. के जाड़े के प्रारम्भ में एक डॉक्टर ने अपनी एक नई कविता लिखनी शुरू की थी। कविता के प्रारम्भिक प्रारूप में कुछ पंक्तियाँ लिखी गईं कि क्या हम मान लें कि जीवन की उत्पत्ति एक जीवित धागे से हुई? इस चिकित्सक कवि का नाम था येरेस्मस डार्विन और लगभग 65 वर्षों के बाद उस कवि डॉक्टर का पोता चार्ल्स डार्विन उस धागे के रहस्य के और करीब पहुँचा।
फिर भी कोई धागा कैसे जीवंत हो सकता है। वास्तव में जीवन को परिभाषित करना आपदायुक्त अति दुष्कर कार्य है। जीवन कई बार अंधों के गाँव में आये हुये उस हाथी की तरह है, जिसने उसकी पूँछ पकड़ी तो उसे हाथी झाड़ू की तरह लगा, जिसने पेट पकड़ा उसे एक बड़े ड्रम जैसा! अस्तु।
जीवन को अगर समग्र वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो हम कह सकते हैं कि जीवन के सभी लक्षणों में दो लक्षण अति महत्वपूर्ण हैं:
1. अपने जैसा ही प्रतिरूप बनाना, और
2. कोशिका के भीतर या दो से अधिक कोशिकाओं के मध्य व्यवस्था या क्रमबद्धता का निर्माण।
एक शशक को देखिये। शशक अपने जैसे ही एक और प्राणी को जन्म देता है परन्तु इसके साथ ही वह और इससे अधिक भी बहुत कुछ करता है। घास खाकर उसे मांस में परिवर्तित करता है और उपापचयी ऊर्जा का निर्माण भी करता है। इस तरह से हम देख सकते हैं कि शशक और उसकी सभी कोशिकायें उष्मागतिकी के प्रथम नियम “ऊर्जा सरंक्षण के सिद्धांत का तो अनुपालन करती हैं किन्तु द्वितीय नियम ‘येंट्रापी सिद्धांत’ का उल्लंघन करती हैं। वास्तव में यहां पर येरविन स्क्रोडिंजर का वह अत्यंत महत्वपूर्ण कथन कि ‘जीवित कोशिकायें क्रमबद्धता और अनुक्रम का वातावरण से अनुप्रेरण करती हैं’ पूर्णत: सत्य है ।
इन दोनों ही विशेषताओं के लिये जो मूलभूत कारण है वह है ‘सूचना’। अगर प्रतिरूप निर्माण की बात करें तो यह प्रत्यक्ष है कि एक सम्पूर्ण वयस्क शशक के निर्माण के लिये आवश्यक सूचनायें उसके भ्रूण में निहित हैं। साथ-साथ ही उपापचय संबंधित व्यवस्था निर्माण की भी सारी सूचनायें उसके पास हैं ।
गुणसूत्र जो डी. एन.ए. के धागों से बने हैं उनके पास सारी सूचनायें हैं जो रासायनिक संदेशों के रूप में लिखी हैं। जहाँ एक रासायनिक अणु एक अक्षर को प्रदर्शित करता है। जैसे आंग्ल भाषा में 26 अक्षर हैं इस वर्णमाला में केवल 4 अक्षर हैं –
एडीनिन , ग्वानिन, साइटोसिन और थाइमिन।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही जिस एक प्रश्न ने जीव-वैज्ञानिकों के मस्तिष्क को लगातार झकझोरने का काम किया- वह प्रश्न था कि ‘जीन’ क्या है? इसके भौतिक-रासायनिक गुणधर्म क्या हैं? कैसे कोई रासायनिक अणु पीढ़ियों के बीच में सूचना आदान-प्रदान एवं स्थानांतरण का कारक हो सकता है? और प्रारब्ध देखिये, 1953 में जिन दो वैज्ञानिकों ने इस रहस्य से परदा उठया, केवल दस वर्ष पूर्व 1943 में वे क्या कर रहे थे? फ्रांसिस क्रिक पोर्ट्समाउथ में कोयले से बम बनाने की कला सीख रहे थे और जेम्स वाटसन शिकागो विश्वविद्यालय में पक्षी विज्ञान के स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने की तैयारियों में जुटे थे। मौरिस विलकिंस अमेरिका के परमाणु कार्यक्रम में सम्मिलित थे तो रोजलिण्ड फ्रैंकलिन ब्रिटिश सरकार के लिये कोयले की एक्सरे संरचना पर काम कर रही थीं।
डबलिन में 1943 में युद्ध की विभीषका से तुरन्त के उबरे एक शरणार्थी और महान भौतिकविद् येरविन स्क्रोडिन्जर ट्रिनिटी कॉलेज में ‘जीवन क्या है’ इस विषय पर अपना व्याख्यान देते हुये कहना चाह रहे थे कि जीवन का रहस्य गुणसूत्रों में छिपा हुआ है जो क्वांटम यांत्रिकी के नियमों से संचालित होते हैं। जीवन भौतिकीय, यांत्रिकी है यह कहना संभवतः उतना ही बड़ा सरलीकरण है जैसे कि यह कह दिया जाये कि प्रेम एक रासायनिक प्रक्रिया है।
ब्लेसली, ब्रिटेन, 1943 में ही एक असाधारण गणितज्ञ येलेन ट्युरिंग ने एक गणितीय सिद्धान्त दिया कि संख्याआें की गणना संख्याओं के प्रयोग से ही संभव है। इसी सिद्धांत पर एक गणत्र-संकलक कोलोसस का निर्माण संभव हुआ जो एक सार्वभौमिक मशीन थी परन्तु जिसके पास परिवर्तनशील योजना संयोजन था।
बिल्कुल कोलोसस की ही तरह जैविक आनुविंशिकीय योजना एक परिवर्तनीय साफ्टवेयर है जबकि उपापचय एक सार्वभौम मशीन।
न्यूजर्सी, 1943, क्लाउडे शैनन के मस्तिष्क में दो सिद्धांत आपस में मिलकर एक क्रांतिकारी विचार उत्पन्न कर रहे थे, अरस्तू का पैनजेनेसिस और न्यूटन की यांत्रिकी । शैनन ने कहा कि इन्फार्मेशन और येंट्रापी असल में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जितनी कम येंट्रापी उतनी अधिक सूचना।
वास्तविकता में डी.एन.ए. जैविक सूचनाओं का डिजिटल प्रतिरूप ही है। कल्पना करें कि मनुष्य का जीनोम एक पुस्तक है, ऐसी स्थिति में:
- 23 जोड़े गुणसूत्र, इस पुस्तक के 23 अध्याय हैं।
- हर अध्याय में हजारों कहानियाँ हैं और हर कहानी एक जीन का प्रतिनिधित्व करती है।
- हर कहानी कुछ पैराग्राफ की बनी है जिन्हें येक्सॉन कहेगें, हर येक्सॉन के बाद में कुछ विज्ञापन हैं जिन्हें इन्ट्रॉन कहेगें।
- पैराग्राफ कुछ वाक्यों और वाक्यांशों से बने हैं जिसे विज्ञान की भाषा में ओपन रीडिंग फ्रेम ( ORF) कहते हैं ।
- हर वाक्य कुछ शब्दों का बना है- अर्थात कोडॉन्स ।
- सभी शब्द केवल ३ अक्षरों के हैं- नाइट्रोजनस बेसेस
इस किताब में कुल अक्षर संख्याओं के जोड़ दें तो 8000 बाइबल बन जायेंगी।
मानव जीनोम एक चतुर एवं अत्यंत बुद्धिमान कूट-पुस्तक है। साधारणतः पुस्तकें हमें केवल भूतकाल के बारे में बताती हैं, परन्तु जीनोम एक ऐसी पुस्तक है जो भूत, भविष्य, वर्तमान का त्रिकालदर्शी साक्ष्य है। यह पुस्तक स्वयं अपना फोटो-कापी बना सकती है जिसे आप रेप्लिकेशन या द्विगुणन कह सकते हैं। यह पुस्तक स्वयं को अभिव्यक्त भी करती है जिसे ट्रॉन्सलेशन या प्रोटीन संश्लेषण कहा जाता है। द्विगुणन इसलिये सम्भव हो पाता है क्योंकि एडीनिन हमेशा थायमिन के साथ और ग्वानिन हमेशा साइटोसिन के ही साथ जोड़ा बनाता है।
आणविक जीवन विज्ञान के ’ सेंट्रल डोग्मा के प्रकाश में देखें तो कहा जा सकता है कि प्रोटीन जीन का वह माध्यम है जिससे एक और जीन बनाई जा सके तथा जीन प्रोटीन का वह माध्यम है जिससे और प्रोटीन बन जाये बिल्कुल वैसे ही जैसे गुरू को योग्य शिष्य अथवा जिज्ञासु शिष्य को गुरू की आवयकता होती है।
किसी कोशिका के लिये प्रोटीन, उसके रासायनिक उपापचय, शारीरिकी एवं व्यवहार को प्रदर्शित करता है जबकि डी.एन.ए. सूचना, सेक्स, द्विगुणन और इतिहास को।
इस इतिहास को भी अगर एक अलग जातीय ,सामाजिक तथा मानव विकास के दृष्टिकोण से पढ़ा जाये तो कई ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे। यथा:
- कथित आर्य क्या मध्य एशिया से आये या वे सदैव से भारतीय उपमहाद्वीप के निवासी थे?
- प्रथम मनुष्य अफ्रीका में पैदा हुआ था या अण्डमान में?
- वर्ण शुद्धता और रक्त शुद्धता का वैज्ञानिक आनुवंशिकीय आधार क्या है?
- मनु-शतरूपा, आदम- हव्वा और एडम- इव क्या कहानियाँ मात्र हैं?
कुछ भारतीय शास्त्रज्ञों जैसे कि डॉ. चन्द्रशेखर त्रिवेदी आदि का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित त्वष्टा, विवस्वत या विश्वरूप वास्तव में डी.एन.ए. ही हैं। कुछ का मानना है कि जल के आयनीकरण से धनावेशित प्रोटान और ऋणावेशित हाइड्राक्सिल आयन के बनने की चर्चा ऋग्वेद में है:
देवानाम्.माने.प्रथमा.अतिष्ठन्.कृन्तत्राद्.एषाम्.उपरा.उदायन्।
त्रयस्.तपन्ति.पृथिवीम्.अनूपा.द्वा.बृबूकम्.वहतः.पुरीषम्॥ (10.27.23)
कतिपय विद्वानों ने ऋग्वेद के सूक्त 1.163 को डी.एन.ए. में हाइड्रोजन बंधों के निर्माण और टूटने की प्रक्रिया से जोड़ा है। डी.एन.ए. के बहुलकीकरण प्रक्रिया से ऋग्वेद सूक्त संख्या 4.58 का संबंध स्थापित किया जाता है, वहीं डी.एन.ए. की आणविक ऊष्मागतिकी का संबंध सूक्त संख्या 10.90 (पुरुषसूक्त) से बताया जाता है।
पहली जीवित कोशिका की उत्पत्ति समुद्र के जल में हुई, ऋग्वेद में इससे संबंधित एक पूरे मंत्र 1.63.1 का अनुमान लगाया गया है। कुछ विद्वानों ने ब्रह्मसूत्र 2.2.11 महद्दीर्घवद्वा हृस्वपरिमण्डलाभ्याम् को डी.एन.ए. की द्विकुंडलित संरचना एवं परमाणुवाद से जोड़ने का प्रयत्न किया है।
ऋषयोः मंत्रद्रष्टारः। वास्तविकता तो मंत्रद्रष्टा ऋषि ही जानते होंगे।
सन्दर्भ:
1. Schrodinger, E. (1967). What is life? Mind and matter. Cambridge University Press, Cambridge.
2.Huxley, T. H. (1863/1901). Man’s place in nature and other anthropological essays, p. 153. Macmillan, London.
3.Rogers, A. and Jorde, R. B. (1995). Genetic evidence and modern human origins. Human Biology 67: 1—36.
4.Miescher is quoted in Bodmer, W. and McKie, R. (1994). The book of man. Little, Brown, London.
5. Dawkins, R. (1995). River out of Eden. Weidenfeld and Nicolson, London.
6.Cookson, W. (1994). The gene hunters: adventures in the genome jungle. Aurum Press, London.
7. Rigveda
8.Vedanta darshan, Brahmasutra,gitapress:156
लेख का अन्त सायास असंगत रुप से थोड़ा गया है। अन्यथा यह एक अच्छा प्राथमिक जानकारी देने वाला रोचक लेख है।
डीएनए की संरचना को वैदिक ऋचाओं से जोड़ना हास्यास्पद है।
भारतीय ऋषि जब करोड़ों किलोमीटर दूर ग्रहों, नक्षत्रों, सूर्य, आकाशगंगा , मंदाकिनी आदि के बारे में दिव्य चक्षुओं से जान गए थे, तो फिर निकटतम गुणसूत्रों के बारे में कैसे अज्ञात रहते, हम अभी भी परा विज्ञान के सूत्रों को नहीं जान सके हैं जो ध्यान से ही प्राप्त होते हैं, ऋषियों के ज्ञान को सहेजने की जरूरत है, दिव्य ज्ञान को जाग्रत करने की आवश्यकता है आज के वैज्ञानिकों को, जिससे अदृश्य जगत भी जाना जा सके
मेरी किशोरावस्था थी, उन्हीं दिनों अचानक पत्र-पत्रिकाओं में धूम मच गयी थी कि भारतीय मूल के अमरीकी वैज्ञानिक डॉ हरगोविंद खुराना ने डी एन ए सम्बंधी खोज की है. क्या भारतवासी प्राचीनकाल से इस विषय में कुछ जानते थे!