प्रेम-पंथ : एक ऋग्वैदिक प्रणय-आख्यान
त्रिलोचन नाथ तिवारी
[१]
“उठो श्यावाश्व! कब तक चंद्रभागा की लहरें गिनते रहोगे? रात्रि का दूसरा प्रहर व्यतीत होने वाला है.”
“जी नहीं चाहता वयस्य लोमपाद!”
“तो क्या इसी प्रकार सम्पूर्ण रात्रि यहीं व्यतीत करने का निश्चय किया है? क्या इससे राजन्या तुम्हें प्राप्त हो जायेगी?”
“आह! दुखते व्रण में सूचिका न चुभाओ मित्र! तुम परिस्थिति पर विचार क्यों नहीं करते?”
“क्यों कि जिस दृष्टि से तुम विचार कर रहे हो उस दृष्टि से वह विचारणीय विन्दु है ही नहीं मित्र!”
“सत्य है मित्र लोमपाद, कि अनंग के दिये घाव की सुश्रुषा वही कर सकता है जिसने यह घाव खाया हो!”
“प्रिय श्यावाश्व! तुम्हारी व्यथा का कोई विशेष कारण ही नहीं है. तुम अपनी भावुकता के कारण व्यर्थ ही उसे महत्व दे रहे हो. तुम्हारी व्यथा का मूल कारण है तुम्हारा कवि – हृदय, जो भावुक है. तुमने अपनी कामना को कल्पना में रंग कर इतना कमनीय बना लिया है कि उसमें किसी भी आशंका से छिद्र हो जाते हैं. माना कि राजन्या मनस्विनी है और सप्तसिन्धु तथा कुभू की उपत्यका के प्रचण्ड राजन्य तुम्हारे प्रणय की बाधा हैं, किन्तु क्या तुम्हारा ब्रह्मतेज किसी राजन्य के पराक्रम से अल्प है?”
“यह तो तुम कहते हो न वयस्य! किन्तु वह क्या सोचती है? और सप्तसिन्धु, कुभू की उपत्यका तथा गंधर्व-प्रदेश के सुडौल, सुरूप एवं पराक्रमी राजन्य जिसके एक कृपा-कटाक्ष हेतु लालायित रहते हैं, वह मुझे क्यों चाहेगी? क्यों वरेगी? तुमने कभी ध्यान से उसका सौन्दर्य निहारा है मित्र लोमपाद?”
“बुद्धि खो बैठे हो क्या मित्र? राजन्या मेरे मित्र की, तुम्हारी, होने वाली पत्नी है. और मैं तुम्हारी भांति कवि भी तो नहीं! तो यदि निहार भी चुका होता तो तुम्हारे जैसी छंदबद्ध और संस्कारित भाषा कहाँ से पाता? इतना कह सकता हूँ कि वह मेरी भ्रातृजाया बन सकने योग्य सुन्दरी है!”
“ऐसी – वैसी सुन्दरी? सप्तसिन्धु में और कौन सी तरुणी है जो उसकी छाया भी छू सके? उसके कपोलों की रक्तिम शुभ्रता उषा को भी लज्जित करती है. सूर्य की आभा उसे देख कर सहम जाती है. वह जब स्वर्ण-मंडित रथ में जुते विद्युत् की चपलता और वायु के वेग वाले अश्वों की अभीशु हाथों में थाम रथ के अग्र भाग में खड़ी होती है तो सूर्य का स्यंदन ठिठक जाता है. मार्तण्ड -रश्मियाँ उसके हिरण्यवर्णी त्वचा और नील – श्याम अलक-जाल से परावर्तित होती है तो उन रश्मियों में एक तड़प होती है. आते – जाते गर्वोन्नत हंसिनी सा उसका पद-निक्षेप! आह! उसके प्रत्येक पग पर उठते – गिरते चरण मेरे हृदय पर पड़ते हैं. रथवीति की वह दुहिता मेरे हृदय का शल्य भी है वयस्य लोमपाद और मेरे हृदय के घाव की स्नेह-लेप ओषधि भी.”
“तुम्हारी यही बात मुझे प्रिय भी है श्यावाश्व और अप्रिय भी! सभा में तुम्हारी इसी पुष्पित – वाणी पर मैं मुग्ध भी होता हूँ और गर्व भी करता हूँ, किन्तु परस्पर वार्तालाप में तो शब्दों में गाँठ लगा कर न बोला करो मित्र! यही तो कहता हूँ मैं कि पुष्पित भाषा तथा शब्दों की यह गांठें तुम्हारा स्वभाव हो गयी हैं. सर्षप को पर्वत बना कर प्रस्तुत करना तुम्हारी कला है. राजन्या की भी तो सोचो! वह मनस्विनी है. वह स्वयं तो तुमसे प्रणय-निवेदन करने से रही! उस पर राजा की पुत्री! और तदोपरि अनगिन राजन्यों का प्रेम-भार! किस प्रकार संभालती होगी? तुम्हारे सभी प्रतिद्वंद्वी छाया की भांति उसका अनुसरण करते हैं, उसके पिता के सेवक तक बन जाने को उद्यत हैं, स्वर्ण-पत्रों से मंडित गौवें, रत्नादि समर्पित करने हेतु तत्पर हैं, तदापि वह मनस्विनी किसी की ओर दृष्टि उठा कर भी नहीं देखती. एक की ओर देखे तो अन्य सभी उस एक पर टूट पड़ें! जिस चंद्रभागा की लहरों को तुम संध्या-काल से ही गिन रहे हो उसमें जल के स्थान पर रक्त-प्रवाह प्रारम्भ हो जाये! इसी हेतु वह तुमसे भी उदासीन रहती है, और कुछ नहीं. और तुमने तो उससे अपने मन की बात भी नहीं कही अब तक!”
“वही तो मित्र! वही तो! जो इतने प्रबल राजन्यों को भी अवहेलित करती हो उससे प्रणय-निवेदन का साहस कहाँ से लाऊँ?”
“तो भूल जाओ उसे!”
“भूल जाऊं?”
“अन्यथा यदि प्रेम किया है तो साहस भी करो! किस राजन्य से हीन हो तुम? यह तप्त-कंचन सी दमकती तुम्हारी देह-यष्टि, ब्रह्मतेज से दीपित तेजस्वी काया, यज्ञ-शरण में जब स्रुवा में हवि लिये अग्निशिखा पर झुकती है, जब सोम की मादकता से तुम्हारे अर्धनिमीलित नेत्र अपनी विशालता से जगत् की संसृति मापते हैं, जब काव्य-माधुरी से प्रमत्त, कम्पित – घूर्णित तुम्हारा ओजस्वी स्वर साम गायन करता है और वे स्वर दिगंत में व्याप्त हो जाते हैं, जब हविर्भुज – सप्तजिह्व अग्निदेव तुम्हारे द्वारा प्रदत्त आहुति को ग्रहण करने हेतु ललक-ललक कर तुम्हारी ओर लपकते हैं और उनकी ज्वाल-जिह्वा से तुम्हारे कंचनवर्णी काया में जो दिव्य आभा प्रस्फुटित होती है, तुमने उसे नहीं देखा श्यावाश्व! मैंने देखा है! उसकी शक्ति तुम नहीं जानते! मैं जानता हूँ! और जानते हैं वे राजन्य भी जिनका तुम भय करते हो! और जाना है रथवीति – दुहिता मनोरमा ने भी! क्योंकि उसने भी देखा है!”
“किन्तु मैंने तो साम-गायन के समय जब भी उसकी ओर चौर-दृष्टि से देखा, उसे सदा शांत, निश्चल, निष्कंप ही पाया! मैं कैसे जानूं? मैं कैसे मानूं?”
“तो क्या वह भरी सभा में, यज्ञ-मण्डप में ही, स्वयं को अपदस्थ कर ले? अपनी मनस्विता को तिलान्जुलि दे दे? यज्ञ का विध्वंस हो जाने दे? नारियों में असीम धैर्य होता है श्यावाश्व! और उनके प्रेम का परिपाक भी अंतर्भुक्त होता है! आपाद-मस्तक विरह – दग्ध होकर भी वे स्वयं को सहज-संयत प्रदर्शित कर सकती हैं! तुमने पूछा था – मैंने कभी राजन्या का सौन्दर्य निहारा है? मैंने तुम्हारे प्रति उसकी आसक्ति निहारी है श्यावाश्व! मैंने उसकी पीर पढ़ी है! मैंने तुम्हारे प्रति उसका अनुराग लक्षित किया है! उसकी दृष्टि जब भी तुम्हारी ओर उठती है, उस दृष्टि में एक कामना, एक लालसा, एक विवशता, और इन सब को आच्छादित करता तुम्हारे प्रति एक उत्कट अभिलाष, एक अदम्य आसक्ति, एक दुर्दम्य प्रेम-पयस्विनी का प्रवाह निरखा है! राजन्या तुम्हें ही वरेगी मित्र! धैर्य न खोवो!”
“चलो! नहीं खोता! किन्तु उस दशा में भी चंद्रभागा में रक्त-प्रवाह की आशंका तो बनी ही है? भले वह रक्त श्यावाश्व का ही हो!”
लोमपाद का मुख उस अन्धकार में भी एक अप्रतिम आभा से दमक उठा. बाहुओं और भुजाओं की शिरायें स्फीत हो तन उठीं. सुगठित शरीर की एक – एक शिरा रज्जुओं की भांति तन गयीं. सहसा अपने निषंग में रखे भल्ल – मुख बाणों के फलकों में उलझे अपने स्कंध तक लहराते कुंचित – केशों को पृथक करता हुआ अपने स्कंध से धनुष्य उतार दृढ़ शब्दों में उसने कहा – “शयावाश्व! राजन्या तुम्हें ही वरेगी इसमें मुझे कोई संदेह नहीं! किन्तु तब यदि ये गर्वान्ध राजन्य तुम्हारे विरोध को उद्द्यत हुये, तो मैं अपना कर्तव्य अवश्य निभाऊंगा! सविता की शपथ! अग्निदेव की शपथ! इस चंद्रभागा की शपथ! यदि शर-संधान की आवश्यकता आ पड़ी तो मेरा कार्मुक भी प्राचीन और दृढ़ है, मेरी भुजाओं में भी बल है, मेरे बाण भी तीक्ष्ण हैं और मेरे अंगुष्ठ में भी ज्या की रेखा किसी भी अन्य राजन्य के अंगुष्ठ की रेखा से अधिक गहरी है! दुर्द्धर्ष पक्थों को आगे कर समस्त पञ्चजन भी सम्मुख आ जायें तो भी, पुरुलोमपाद उनके रक्त से अपने पितरों का तर्पण कर राजन्या को तुम्हारे हेतु विजित कर लायेगा मित्र!”
शब्दों की शक्ति बहुत दुर्द्धर्ष होती है. जिन शब्दों की अजेय शक्ति से लोमपाद का गात्र कम्पायमान था, उन्ही शब्दों की शक्ति ने श्यावाश्व के मुखमंडल पर भी आशा और आनंद बिखेर दिया. श्यावाश्व ने लोमपाद को गाढ़-आलिंगन में बाँध लिया, किन्तु सत्वर उसे निराशा ने पुनः आक्रान्त कर लिया – “आदित्यविक्रम पुरुवंशावतंस लोमपाद! मदन के साम्राज्य में तुम अभी निरे बालक हो! तुम्हारे धनुष्य-बल से विजित रथवीति – दुहिता क्या फिर मुझे प्रेम कर पायेगी? नहीं भोले लोमपाद! कदापि नहीं!”
“तो फिर उपाय क्या है?”
“उपाय है मात्र एक! जैसे मैं उसके विरह में तड़पता और कांपता हूँ, वह भी मेरे विरह में तड़पे और कांपे! जिस प्रकार अपनी आतंरिक अग्नि से मैं दहक रहा हूँ, वह भी वैसे ही उसी आतंरिक अग्नि से दहके! जैसे मैं कामशर से बिद्ध एक घायल हरिण की भांति छटपटा रहा हूँ, वह भी कामशर से बिद्ध हो कर एक घायल हरिणी की भांति छटपटाये, कांप कर उठे, उठ कर गिरे! प्रेमाग्नि की ज्वाला में दग्ध उस मनोरमा को ऐसी प्रणय-व्याधि घेरे, जिसकी चिकित्सा रथवीति के मूर्ख चिकित्सक कर ही न सकें! उसे मेरे प्रति ऐसी काम – ज्वाला विदग्ध करे जिसे सप्तसिन्धु के समस्त लेप और अंगराग शीतल न कर सकें, बल्कि ताप को और बढ़ायें! उपाय है मात्र एक!”
अन्धकार सघन हो चुका था. गगन के अंचल पर छिटके अगणित नक्षत्र जितनी किरणें धरा तक प्रेषित कर पा रहे थे, उसके प्रकाश में श्यावाश्व और लोमपाद मात्र एक दूसरे भर को कुछ-कुछ देख पा रहे थे. तभी कुछ चमका. निकट ही चंद्रभागा के आतंरिक तट पर स्थित विराट शाल्मली वृक्ष की जड़ों के समीप से एक हरित-नील आभा सी फूट उठी. उसी के साथ पीछे एक विशाल पलाश वृक्ष के तने के पास कोई हलचल सी हुई. एक साथ लोमपाद एवं श्यावाश्व की सम्मिलित दृष्टि शाल्मली वृक्ष की जड़ की ओर उठी और पुनः उसी शीघ्रता से पीछे पलाश वृक्ष की ओर पलटी. किन्तु लोमपाद ने शक्ति-भर जोर लगा कर श्यावाश्व के स्कंध पकड़, उसे पुनः अपनी ओर मोड़ लिया. अस्फुट शब्दों में कहा लोमपाद ने – “मूर्खता मत करो! पीछे न देखो! देखो उस शाल्मली वृक्ष की जड़ से फूटती उस नील-रश्मि को! उसी के समीप चंद्रभागा को छू कर आती शीतल वायु का सेवन करता वह स्वर्णवर्णी नाग! उसकी प्रिया नागिन भी वहीं कहीं होगी! सतर्कता से और निःशब्द पीछे की ओर चलो! किन्तु पलाश वृक्ष की ओर नहीं!”
“किन्तु पलाश वृक्ष की ओर चलना ही सुगम है. तो उधर क्यों नहीं?”
“क्योकि उधर भी किसी की प्रिया है!”
“प्रिया? किसकी?” श्यावाश्व का स्वर कौतूहल से कुछ तीव्र हो गया.
“धीरे बोलो मित्र! पलाश वृक्ष के पीछे तुम्हारी प्रेयसी मनोरमा है, जो इस निविड़ अन्धकार में हमारी बातें सुन रही थी. अप्रत्याशित रूप से इस नागमणि के प्रकाश में स्वयं के दिख जाने के भय से वह तने के पीछे छुपी है. चलो भी! मैं तो मदन के साम्राज्य में अभी निरा बालक हूँ! तुम तो उस साम्राज्य के अधिपति हो न? चलो अब!”
श्यावाश्व ने देखा, नाग के पास से एक नागिन शाल्मलि के पार्श्व से हो कर चंद्रभागा की लहरों की ओर सरसराती हुई चली जा रही थी। लोमपाद ने पलाश के पार्श्व से एक छाया को सरसराते हुये रथवीति के मणिमहालय की ओर जाते देखा। नील-रश्मि जैसे अचानक प्रकट हुई थी वैसे ही अचानक तिरोहित हो गयी।
[२]
राजा रथवीति के पुरोहित अर्चनाना का पुत्र श्यावाश्व कविमना और युवा था. राजकन्या – रथवीति की दुहिता मनोरमा को बचपन से देखता आया था. दोनों की वय भी समान ही थी. अर्चनाना सप्तसिन्धु का प्रख्यात ऋत्विज! उसके पुत्र को अपनी कन्या देकर स्वयं को धन्य मानने वाले ऋषियों और राजन्यों की संख्या कम नहीं थी, किन्तु श्यावाश्व का हृदय रथवीति की कन्या के चरणों में लोट रहा था. विकंतक पुत्र लोमपाद, उसका अभिन्न ह्रदय मित्र, बचपन से ही यह भेद जानता था. बाल्यकाल में तीनों – श्यावाश्व, लोमपाद और मनोरमा, साथ खेलते, साथ सोमवल्ली संग्रह करते, साथ अध्ययन करते. किन्तु युवावस्था आते – आते मनोरमा के चतुर्दिक एक अभेद्य – अदृश्य दीवार उठ चुकी थी. लोमपाद और श्यावाश्व इसे समझ नहीं पाते थे. लोमपाद तो फिर भी कुछ-कुछ समझता था, किन्तु श्यावाश्व के लिये यह एक अबूझ परिस्थिति थी. उसे यह समझ नहीं आता था कि उसकी कल की सखी, अब उससे खिंची सी क्यों रहती है! लोमपाद सच्चा मित्र था. मित्र का दुःख उसका दुःख था. किन्तु परिस्थितियाँ जटिल थीं और वह परिस्थियों के कारण असमर्थ था. वह अपने मित्र को सांत्वना दे सकता था, देता था! किन्तु यह पर्याप्त न था. श्यावाश्व विरह में फुंका जा रहा था, और मनोरमा के हृदय का भेद गुप्त था. किन्तु आज, दोनों मित्रों को यह स्पष्ट हो गया कि प्रेम देवता की अभ्यर्थना में प्रज्वलित नेह-दीप की वर्तिका दोनो सिरों से जल रही है!
लता-वितान और झालरों से सजायी गयी यज्ञशाला की सौंदर्य छटा देखते ही बनती थी। आखिर सम्राट रथवीति स्वयं जो यज्ञ के संरक्षक और यजमान थे। संपूर्ण नगर की प्रजा इस यज्ञ की सफलता के लिए प्राण-पण से जुटी थी। नगर की गली-गली स्वच्छता ओर सजावट के मारे दमक रही थी। प्रजा का उत्साह देखते ही बनता था।
कोलाहल निस्तब्ध-नीरवता में परिवर्तित हो गया। महाराज और राजमहिषी ने आगे बढ़कर उन्हें साष्टांग प्रणिपात किया और प्रधान यज्ञ मंडप तक ले आए। महर्षि का तेज सूर्य के समान तो पुत्र चन्द्रमा के समान शीतल और तेजस्वी! उनके पांडित्य का तो कहना ही क्या? सम्पूर्ण राष्ट्र में उस समय अर्चनाना का यश पूर्णिमा की धवल चन्द्रिका की भाँति फैल रहा था।
यज्ञ सकुशल संपन्न हुआ। स्वस्तिकृत होम और देवों को वसोधारा समर्पित कर दी गयी। पुष्पाञ्जलि और विसर्जन तक की संपूर्ण क्रियायें बड़े आनंद और उल्लास के साथ संपन्न हुयीं। प्रजा प्रसाद पाकर चलने लगी। उधर एक विशिष्ट आसन पर बैठे अर्चनाना राज्य प्रमुखों सहित महाराज रथवीति से विचार विमर्श कर रहे थे। तभी उनकी दृष्टि एक ओर हठात् खिंच गयी। क्षौम परिधान धारण किए नवयुवती के अद्वितीय सौंदर्य पर दृष्टि पड़ते ही महर्षि अर्चनाना की दृष्टि एक क्षण के लिए रुक सी गयी। देखने से ऐसा लगता था, उसे देखकर महर्षि के मस्तिष्क में कोई विचार उठ पड़ा हो।
“देव! यह मेरी पुत्री मनोरमा है.” रथवीति ने परिचय कराते हुए कहा- “यही हमारी अकेली संतान है देव! इसे हमने कला निष्णात बनाने का हर संभव प्रयत्न किया है। व्याकरण और साहित्य में आचार्य है।”
“अतीव प्रसन्नता की बात है राजन्। बालिकाओं का शिक्षित होना तो आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। उसी से तो राष्ट्र में श्रेष्ठ संतति का निर्माण होता है.”
“गुरुदेव! आप अपने अंतर्मन में कुछ व्याकुलता का अनुभव कर रहे हैं। असंभव न हो तो कृपया हमें बतायें! हम आपकी क्या सेवा कर सकते है?” रथवीति ने बड़ी विनम्रता से पूछा।
उपस्थित श्रीमंत गण अभी कुछ सोच में थे। उन्हें आश्चर्य था कि महर्षि के मन में यह अटपटा प्रसंग क्यों उठ पड़ा। महर्षि ने एक बार सभी उपस्थित जन की ओर ऐसे देखा मानों वे एकांत चाहते हों। धर्मपरायण रथवीति ने सबको सादर विदा कर दिया। तब महर्षि अर्चनाना ने कहा- “रथवीति! मेरे जीवन में कभी कोई इच्छा उत्पन्न नहीं हुई, पर इस बालिका को देखते ही मेरे हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ा है। समझ में नहीं आता ऐसा क्यों कर सोचता हूँ कि यदि यह कन्या मेरी पुत्रवधू हो सकती तो श्यावाश्व को एक उपयुक्त जीवन साथी मिल जाता और मुझे अपने वात्सल्य भाव को तृप्त करने का आधार।”
रथवीति महर्षि का यह कथन सुनकर अचानक गंभीर हो गये। उन्होंने कहा – “देव मेरी पुत्री का संबंध तेजस्वी अत्रि कुल में और श्यावाश्व जैसे मेधावी युवक के साथ हो, इससे बढ़कर कन्या और हम सबके लिए गौरव की क्या बात हो सकती है? मनोरमा भी धन को नहीं, योग्यता और सदाचरण को महत्त्व देती है। यह तो उसकी इच्छा की पूर्ति ही हुई! किंतु..”
कहते-कहते एक क्षण को रथवीति रुक गये और कुछ सोच में पड़ गये ।
“किंतु क्यों राजन्! स्पष्ट कहो न! हमने अपनी इच्छा व्यक्त की है बाध्य तो नहीं किया! संपूर्ण स्थितियों पर विचार करके उत्तर दे सकते हो। अपने पुत्र के लिए योग्य वधू की खोज मेरा धर्म था। ऐसा लगा श्यावाश्व के लिए मनोरमा सर्वथा उपयुक्त है।”
“आपका कथन सत्य है, भगवन्! किन्तु मैं विवश हूँ! मैं चाह कर भी इस सम्बन्ध की स्वीकृति नहीं दे सकता!”
“मैं पूछ सकता हूँ कि क्यों?”
“अवश्य पूछ सकते हैं! मैं स्वयं कहता हूँ! महर्षि! आप मंत्रद्रष्टा ऋषि हैं! मैं स्वयं मंत्रद्रष्टा हूँ! मेरे कुल में यह परम्परा रही है कि अन्य सभी सद्गुणों के साथ जो मंत्रद्रष्टा हो, कन्या उसी को प्रदान की जाती है. श्यावाश्व हर दृष्टि से किसी भी कन्या का पति होने योग्य उपयुक्त वर है. वह मुझे प्रिय भी है. किन्तु मनोरमा का पति होने के लिये मंत्रद्रष्टा होना एक अनिवार्य योग्यता है. मैं क्षमा चाहता हूँ, किन्तु मनोरमा के माता की भी यही इच्छा है.”
“रथवीति! कन्या का दायित्व गुरुतर ही नहीं गुरुतम होता है. मेरा आशीर्वाद है कि तुम मनोरमा हेतु उपयुक्त वर का चयन कर सको. अच्छा राजन! यज्ञ परिपूर्ण हुआ! अब हमें आश्रम हेतु प्रस्थान करना होगा! शुभमस्तु! कल्याणमस्तु!”
[३]
राजा रथवीति अपने रत्नियों के साथ सभागार में बैठे थे. पुरोहित ऋषि अर्चनाना भी कुशासन पर आसीन मंत्रणा में योग दे रहे थे. दर्भ की पौत्री, रथवीति की पुत्री, मनोरमा भी सभा में उपस्थित थी. रथवीति की कन्या राजसभा में उपस्थित रह कर राजनीति का अनुभव प्राप्त कर रही थी.
प्रसंग कुछ चिंताजनक था. दास सेना रथवीति के राज्यपार्श्व पर उत्साह पूर्वक आक्रमण कर रही थी. अंशुमती (यमुना) के तट पर दस सहस्र की सेना लिये दासराज कृष्ण प्रतीक्षा कर रहा था. कृष्ण ने अंशुमती के दक्षिणी तट पर भरतों का पूर्वाभिमुख प्रसार रोक रखा था. समिति और विदध में दी हुई श्यावाश्व की वक्तृतायें लोगों के कानों में गूँज रही थीं. रथवीति के रत्नी युद्ध के कार्यक्रम तथा रंध्र-प्रहार की सुविधा पर विचार कर रहे थे. अचानक सभा में श्यावाश्व ने प्रवेश किया. विचारों के संघर्ष से उसके प्रशस्त ललाट की रेखाएं गहरी हो गयी थीं. भौहों का चढ़ाव कुछ उतरा सा लगता था. तेजस्वी मुखमंडल पर चिंता की छाया थी.
राजन्या का मन उछल कर कंठ में आ फंसा. भावनाओं की एक बाढ़ सी आयी. एक कली पल भर में खिली, मुरझायी और झर गयी. दो प्यासे दृगों ने पल भर में जीवन भर की संचित लालसा से प्रिय को निरखा और झुक गयीं. पिता रथवीति की भृकुटि तनी हुई थी.
धीर-गंभीर वाणी में श्यावाश्व ने कहा – “राजन! आपके पुरोहितपुत्र श्यावाश्व की एक भिक्षा है!”
उमड़ते विचारों को संयत करते हुये रथवीति ने कहा – “बोलो ऋषिकुमार! क्या लोगे? स्वर्णमंडित सींगों वाली गौवें? गंधर्वदेश की ऊर्ण-प्रसविनी भेड़ें? निष्कभूषित अश्वयूथ? क्षौमदुकूल एवं अधोवस्त्र? कहो तनय-सम प्रिय श्यावाश्व! क्या दूं?”
राजकन्या का उद्वेलित हृदय क्षणार्ध को थम सा गया. आशा की एक तड़ित रेखा कौंध कर शांत हो गयी. उसने एक उत्कंठा से पहले श्यावाश्व की ओर देखा, फिर एक आशा के साथ पिता की ओर, और फिर उत्फुल्ल पुण्डरीक-सम आनन पर जडित अपराजिता के पुष्प-द्वय समान नेत्र अपने ही उपानहों से झांकते पदनखों पर जा स्थित हुये!
श्यावाश्व को प्रतीत हुआ कि उसकी कामना की सिद्धि का यही एक मात्र उपलब्ध क्षण है. कवि-हृदय का अंतर्नाद मुखरित हो उठा – “राजन! न तो मुझे स्वर्णमंडित सींग वाली गौवें चाहिये न ही गंधर्वदेश की ऊर्ण-प्रसविनी भेड़ें! न निष्कभूषित अश्वयूथ और न ही क्षौम – दुकूल एवं अधोवस्त्र! मेरी भिक्षा बहुत ही साधारण भी है और बहुत ही मूल्यवान भी!”
श्यावाश्व एक निमिष हेतु रुका. सभा स्तब्ध थी, पुरोहित अर्चनाना शांत एवं गंभीर! रथवीति एक टक श्यावाश्व को देख रहा था, और उसकी कन्या एक टक अपने पद – नख!
आशा, संदेह, हर्ष और विषाद से उबर कर श्यावाश्व ने समभाव ग्रहण किया. तभी उसकी दृष्टि मनोरमा की ओर उठ गयी. दृष्टि से दृष्टि का सम्मिलन हुआ. चंद्रमुख के आकर्षण से हृदय – सागर में एक आलोड़न हुआ, जलराशि में आवर्त उठ खड़े हुये. उथल-पुथल मच गयी. तल चमक उठा. अपने सवाष्प नेत्रों को रथवीति की ओर मोड़, रोम-रोम को वाणी प्रदान करते हुये, रुंधे कंठ से, कुछ अटकते, कुछ सहमते याचक ने अपनी याचना प्रस्तुत कर ही दी – “राजन! मैं माँगता हूँ अपने बालपन की सहचरी, यज्ञार्थ सोमवल्ली ढूँढने में अपनी सहायिका, मेरे हृदयाकाश की सूर्या, मेरी जन्मान्तरों की प्रेयसी, आपकी कन्या मनोरमा!”
राजकन्या के कपोल लज्जा से आरक्त हो उठे, रथवीति के कपोल क्रोध की उत्तेजना से! दोनों ने स्वयं को संयत किया. दोनों इस याचना से पूर्व-परिचित थे. अप्रत्याशित परिस्थियों के समाधान में दक्ष नृपति की नीति-सिद्ध वाणी प्रस्फुटित हुई – “सप्तसिन्धु में सुंदरियों की कमी तो नहीं ऋषिपुत्र! और तुम्हारी कोमलकांत पदावली से विभोर कितनी ही आर्य-ललनायें तुम्हारी कामना करती हैं यह भी मुझे भली प्रकार ज्ञात है. उनमें से किसी भी सुन्दरी से विवाह करो. द्रविण-राशि से कोष भरा है – ले जाओ, और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करो!”
“द्रविण-राशि की मुझे चाह नहीं राजन! मेरी तो उषा की स्वर्ण-राशि अपनी है, संध्या की प्रतीची का समस्त रजत-प्रासार मेरा अपना है, जिसे मैं आर्य-जगत के श्रीमानों को और दरिद्रों को भी मुक्त-हस्त लुटाता हूँ! जिस प्रकृति से आपकी यह द्रविण-राशि उद्भूत हुई है वह प्रकृति मेरी एकांत-सहचरी है. मेरी कोमलकांत पदावलियों का चिन्मय साम्राज्य आपके इस मृण्मय साम्राज्य से कहीं अधिक वैभवशाली है राजन! मात्र एक रत्न है जो मेरे पास नहीं, किन्तु आपके पास है! मेरे हृदय के उपासना गृह की देवी – आपकी पुत्री – मनोरमा!”
लालसा भरे हृदय को पसार कर श्यावाश्व कहता जा रहा था – “मेरे इस सर्वथा भरे विश्व में मेरा यह हृदय सूना है राजन! इस हृदय में प्रतिष्ठित मेरी कामना-मूर्ति की मैं याचना करता हूँ! सितारों की आभा मैंने उसके हीरक-खण्डों की भाँति चमकते नेत्रों से पायी, चन्द्रमा की धवलता उसके चंद्रमुख का व्याज-मात्र है, सूर्य का अप्रतिहत तेज मेरे प्रति उसके अगाध विश्वास की देन है, स्वप्नों की अक्षय निधि उसके साथ की लालसा ने संजोये, उसाँसों की पीर उसके विरह से जन्मी, प्राणों का राग उसके प्रेम का प्रतिफलन है, कल्पना का असीम वैभवशाली साम्राज्य उसके कोमल चरणों के पदचाप से विजित हो कर मुझे प्राप्त हुआ, मेरे गीतों की मधुता में उसके वाणी की झंकृति है, अश्रुकणों की दाहकता उससे अलग रह कर बिताये गये दिनों की छाती के अंगार हैं, तथा भाषा की सामर्थ्य उसी के मनुहार के प्रयास में मेरा सम्बल! यह सब कुछ फिर भी न होता, यदि उसने मेरे हृदय को अपनी तरल भावुकता न दी होती! मैं अपनी सारी कोमल पदावली उसके चरणों पर निछावर करना चाहता हूँ राजन! उसी के सीमंत पर चढ़ाना चाहता हूँ! मेरे अगाध कल्पना-सागर में आपकी कन्या की कामनायें लहरें बन कर बसेंगी. उसके स्पर्श से काव्य-कला चमत्कृत होगी तथा अखिल-विश्व अ-क्षर शब्दघोष से व्याप्त हो उठेगा! मैं आपकी दुहिता की कमनीय मूर्ति को वसंत की विभूतियों से सजाऊंगा, विधु से झरते पीयूष-रश्मि से उसकी प्यास मिटाऊंगा, सम्पूर्ण जगत की समस्त कामनाओं को एकत्रित रूप से सामबद्ध कर, उसके सम्मुख बिखेर दूंगा! वैभवशाली तथा महेंद्र-विक्रम राजन्य उसकी श्री को अथक नेत्रों से निहारेंगे और मैं निहाल हो जाऊंगा! राजन! इस एक पुष्प के भ्रमर को उसका शतदल-कमल प्रदान करें!”
अमृत बरस रहा था. राजकन्या सिहर-सिहर कर उस अमृत में स्नान कर रही थी. श्यावाश्व मौन हो चुका था किन्तु उसके शब्दों का नाद देर तक गूंजता रहा था.
“असंभव! असंभव है श्यावाश्व! आर्य-जगत की जिस लावण्यवती की अभिलाषा करो, उसे मैं तुम्हारे हित प्रस्तुत कर दूंगा, किन्तु मनोरमा नहीं! आर्यजगत के समस्त युवा परस्पर जूझ मरेंगे! तुम्हारी याचना स्वीकार करना गृहदाह को आमंत्रण है! पार्श्व में शत्रुओं का तांडव हो रहा है. उसके दमनार्थ राजन्यों का प्रसादन आवश्यक है. और यह एकमात्र कारण नहीं है ऋषिपुत्र! मनोरमा का पति कोई मंत्रद्रष्टा ऋषि ही हो सकता है. तुम मंत्रज्ञ अवश्य हो किन्तु मंत्रद्रष्टा नहीं! तुममें मेरी पुत्री के पति बनने की समस्त योग्यतायें हैं, कमी मात्र एक है. मैं चाह कर भी तुम्हारी मनोकामना पूरी नहीं कर सकता श्यावाश्व!”
“आयुष्मान राजन! मैं तो जा रहा हूँ, किन्तु आपकी इसी राजसभा में मैं अपनी विदग्ध कामना को छोड़े जा रहा हूँ. मेरा प्रणय यदि योग्यता की तुला पर तुल चुका है तो यही सही! मंत्रद्रष्टा होना न मात्र प्रातिभ है, यह भाग्याश्रित भी है. किन्तु अब कहने – सुनने को कुछ शेष नहीं रहा. श्यावाश्व इस सभा से यह ज्ञान ले कर जा रहा है कि प्रणय एवं परिणय भी किसी निष्ठुरता की शुक्ति में बंद महत्वाकांक्षा का मुक्तक है, जिस पर सरल हृदयों का कोई अधिकार नहीं!”
श्यावाश्व मंथर गति से कुशासन पर आसीन पिता अर्चनाना के समीप जा उनके चरणों में प्रणिपात किया और बिना किसी ओर देखे सभाभवन से प्रस्थान कर गया. राजकन्या मनोरमा का हृदय टूक-टूक हो रहा था. वह एक निष्कंप दीपशिखा की भांति अपलक नेत्रों से श्यावाश्व का पृष्ठभाग देखती रह गयी. सभी स्तब्ध थे. सभी शांत थे. सूचिका-पतन निस्तब्धता में अचानक विक्षोभ उत्पन्न हुआ. ताम्बूल-वाहिनी दासी के हाथ से सुवर्ण-थाल छूट कर गिरा और खदिर – राग आपूरित स्फटिक पात्र एक छनाके के साथ टूट कर बिखर गया. शुक्ति-अवलेह का कांस्य-पात्र दूर तक लुढ़कता चला गया जिसकी झनझनाहट में मनोरमा की एक मात्र बार उभरी सिसकी कोई लक्षित न कर सका.
[४]
श्यावाश्व ने अपने पितामह महर्षि अत्रि का स्थापित एवं मान्य आश्रम त्याग दिया. परुष्णी के तट पर एक गहन विपिन में स्वयं एक कुटिया का निर्माण कर वहीं रहने लगा. एक धुन, एक प्रश्न – “मंत्रद्रष्टा कैसे हो सकता हूँ? मंत्रद्रष्टा कोई कैसे होता है?” अंतःकरण से उत्तर आया – “तप से!”
श्यावाश्व के एकाकी दिवस और एकांत रात्रियाँ यूं ही व्यतीत होती रहीं.
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी. अचानक भयंकर वेग से वायु चलने लगी जो शीघ्र ही भयकारक आंधी में परिवर्तित हो गयी. विपिन का वातावरण विक्षुब्ध हो उठा था. कुटी के निकट ही पिछवाड़े का जम्बू-वृक्ष समूल उखड़ का घोर ध्वनि के साथ गिरा. श्यावाश्व के मन में भय व्याप्त हो गया. तभी कहीं और से किसी वृक्ष के गिरने की ध्वनि सुनायी दी. कुटी कुछ वृक्षों के संकुल में अवस्थित थी. श्यावाश्व के मन में उठा – “यदि कोई वृक्ष इस कुटी पर भी गिर पड़ा तो? कुटी तो आखिर कुटी ही है! यदि इस आंधी ने कुटी ही ध्वस्त कर दी तो?” बाहर निकलना भी निरापद न था. “हे मरुद्गण! इस अकिंचन श्यावाश्व पर दया करो! मैं तुम्हारी प्रार्थना करता हूँ!” अन्तःकरण के अतल – तल से कोई कह रहा था – “हे श्यावाश्व! तुम धैर्यपूर्वक स्तुति के पात्र मरुद्गण की अर्चना करो!
प्र शयावाश्व ध्रिष्णुयार्चा मरुद्भिः ऋक्वभिः! य अद्रोघमनुश्वधं श्रवे मदन्ति यज्ञिया!!”
काव्य-सुन्दरी की संगति प्राप्त हो तो प्रत्येक भय, प्रत्येक शोक सद्यः तिरोहित हो जाते हैं. कैसी आंधी? कैसा भय? कहाँ है विपिन? कैसा एकांत? काव्य-निर्झरिणी प्रस्फुटित हो उठी. कुटी के बाहर प्रमत्त प्रभंजन का भयावह अट्टहास था, कुटी के भीतर अनुष्टुप, त्रिष्टुप, वृहती, गायत्री तथा जगती छंदों में उच्च स्वर में बह रही काव्य-निर्झरिणी थी. सृष्टि में कुछ और है? नहीं! कोई और है? नहीं! यदि कुछ है तो श्यावाश्व है और उसकी वाग्धारा है! “आ रुक्मैरा युधा नर ऋष्वा ऋष्ठी सृक्षत!…”, “को वेद जानमेषां को वा पूरा सुम्नेष्वास मरुतां…” भाव को शब्द मिलते गये.! एक नहीं, दो नहीं, एक पर एक अनवरत! झंझा कब थमी, पर्जन्य कब बरसे, कब बरस कर थम गये, हाहाकार करता वन-प्रांतर कब निस्तब्ध – मूक हो गया, श्यावाश्व को ज्ञात नहीं. जब वह अपने भावावेश से मुक्त हुआ तो प्राची में शुक्रोदय हो चुका था. भय कभी का तिरोहित हो चुका था और भय का कारण भी. श्यावाश्व के चतुर्दिक एक उथल – पुथल की साक्षी वन्य – प्रकृति थी और था उसके अपने मन का असीम आनंद!
“कोई है? इस कुटी में कोई है?” एक धीर और गहन – गंभीर ध्वनि सुन कर श्यावाश्व अपने भाव-लोक से बाहर आया. कुटी द्वार पर कोई पुकार रहा था. इस दुष्काल में द्वार पर अतिथि? हां हन्त! और इस ब्रह्म-वेला में यह आगंतुक अतिथि है कौन? श्यावाश्व कुटी से बाहर निकला. दीर्घकाय, घने दीर्घ श्वेत केश और श्मश्रुओं वाला एक बलिष्ठ प्रौढ़ कुटी द्वार पर उपस्थित था! “के या नरः श्रेतमा य एकएक आयय? कौन हैं आप? स्वागत है आपका! मैं महर्षि अत्रि का पौत्र, महर्षि अर्चनाना का पुत्र, अकिंचन श्यावाश्व आपका स्वागत करता हूँ!”
“भद्र श्यावाश्व! इस विजन में एकाकी क्या कर रहे हो? यह स्थल भय-प्रद है. वातावरण भय-प्रद है. तुम अपने पितामह का आश्रम त्याग कर यहाँ क्यों निवास कर रहे हो? लौट जाओ अपने पितामह के आश्रम को! चलो मेरे साथ! मेरे साथ कुछ और लोग भी हैं. प्रमत्त प्रभंजन से वन के मार्ग अवरुद्ध हो चुके हैं. पर्जन्य-वृष्टि से पथ पिच्छिल है. इस वन से बाहर जाने हेतु हमें मार्ग दिखाओ! और तुम भी अब यह कुटी त्याग दो!”
प्रौढ़ के स्वर में स्नेह भी था और आदेश भी. श्यावाश्व जिस स्थिति में था वैसे ही चल पड़ा. परस्पर वार्तालाप करते जब पचास लोगों की यह टोली वन-प्रांतर से बहिर्गत हुई तब प्राची में अरुणोदय हो रहा था.
यह टोली परुष्णी के तटीय मार्ग पर ही चल रही थी. सभी ने नदी में स्नान किया और सवित्रि देव को जलांजलियां अर्पित कीं . इन सब से निवृत्त हो, प्रौढ़ ने श्यावाश्व से कहा – “वार्तालाप में तुमने बताया था भद्र श्यावाश्व! कि गत रात्रि को तुमने कुछ रचा है! सुनाओगे नहीं?” एक क्षण को श्यावाश्व झिझका किन्तु दूसरे ही पल संयत हो, दोनों हथेलियों को प्रणाम की मुद्रा में बद्ध करते हुये, उसने अपनी आँखे बंद कर लीं. वाग्धारा पुनः प्रवाहित होने लगी. टोली के सभी जन झूम-झूम उठे. जब श्यावाश्व मौन हुआ तो एक स्वर में साधु-साधु की ध्वनि से वह निर्जन गुंजित हो उठा. प्रौढ़ ने अपने कंठ से उनचास सुवर्ण निर्मित पुण्डरीकों से बना रुक्म-माल निकाल कर श्यावाश्व के कंठ में डालते हुये कहा – “तुम मंत्रद्रष्टा हुये भद्र श्यावाश्व! नहीं! आप मंत्रद्रष्टा हुये ऋषि श्यावाश्व!”
“मैं मंत्रद्रष्टा? क्यों हास्य करते हैं आदरणीय?”
“इसकी पुष्टि आपके पिता ऋषि अर्चनाना तथा पितामह ऋषि अत्रि कर देंगे ऋषिवर! अब आप अपने पितामह के आश्रम को लौट जायें! हमें भी अब अपने मार्ग जाने दें. कल्याणमस्तु! शुभमस्तु!”
प्रणिपात कर श्यावाश्व जब चलने को उद्यत हुआ तो उसके मन में यह शंका उभरी – “ये लोग कहीं मरुद्गण ही तो नहीं?” किन्तु तत्क्षण ही उसने इस विचार को झटक दिया. फिर भी लगता था जैसे कोई कह रहा हो – “वे मरुद्गण ही थे!”
महर्षि अत्रि ने जब अपने पौत्र को अपने चरणों पर से उठा कर वक्ष से लगाया तो उन्हें आभास हुआ, उनका पौत्र एक अनिर्वचनीय आत्मविश्वास की आभा से दीप्त है. श्यावाश्व के कंठ में पड़ा रुक्म-माल अंशुमाली की किरणों में झिलमिला रहा था.
सांध्य – उपासना के पश्चात जब श्यावाश्व ने आश्रम में अपने रचे सूक्त सुनाये तो सबने एक स्वर में कहा – “श्यावाश्व अब ऋषि है! श्यावाश्व अब मंत्रद्रष्टा है!”
कुछ ही दिनों में मरुद्गण की अभ्यर्थना में रचे श्यावाश्व के सूक्त वायु की लहरियों पर चढ़ कर सप्तसिन्धु में प्रसारित हो गये! श्यावाश्व अब निर्विवाद रूप से ऋषिपद प्राप्त कर चुका था.
[५]
गन्धर्व देश की राजकन्या शशीयसी कुभू के राजा पुरुमिल्ह के एकमात्र पुत्र ‘तरन्त’ पर आसक्त थी. कुमार भी शशीयसी पर रीझा हुआ था किन्तु वह शशीयसी के मन का रहस्य नहीं जानता था. शशीयसी महर्षि अत्रि के आश्रम आयी थी. श्यावाश्व और शशीयसी सम-वयस्य थे. शसीयसी उत्साह-पूर्वक आश्रम का भ्रमण कर रही थी. आतिथेय के रूप में श्यावाश्व साथ था. एकांत में अवसर देख शशीयसी ने कहा – “मित्र श्यावाश्व! मुझे आपके हृदय का कष्ट ज्ञात है. मेरी और आपकी दशा एक जैसी है. अभिन्न – हृदय मान कर आपसे एक निवेदन करना चाहती हूँ. क्या आप मेरी सहायता करेंगे?”
“गन्धर्व देश की राजकुमारी की कोई भी सहायता कर के मैं स्वयं को सम्मानित अनुभव करूंगा देवी शशीयसी! आप निःसंकोच कहें. श्यावाश्व किस योग्य है?”
“मैं कुभू के राजा पुरुमिल्ह के पुत्र राजकुमार तरन्त से प्रेम करती हूँ. किन्तु यह उन्हें ज्ञात नहीं. उनके हृदय में क्या है यह मुझे ज्ञात नहीं. और उन तक मेरा प्रेम-निवेदन ले जा सकने वाला आपसे योग्य कोई अन्य नहीं. आप कवि हैं. आप प्रेमी भी हैं. हृदय के समस्त गोपन आपके समक्ष अगोपन हैं. मेरे बिना कुछ कहे भी आप मेरे मन की भावना समझ सकते हैं, और इसे कुमार तरन्त को समझा भी सकते हैं. क्या आप मेरा दौत्य स्वीकार कर पुरुमिल्ह – तनय तक मेरा प्रेम-सन्देश ले जायेंगे? यदि आपने यह दायित्व वहन करना स्वीकार कर लिया तो मुझे विश्वास है कि मेरा प्रेम अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा. दो प्रेमियों को मिलाने के पुनीत कर्म से प्राप्त पुण्य का भागी बनिये ऋषि श्यावाश्व! मैं बहुत आशा के साथ आपके पास आयी हूँ!”
श्यावाश्व को लगा, यह कार्य करना चाहिये! उसने दौत्य स्वीकार किया. नियति भी संभवतः सदय थी. लोमपाद ने सुना – मित्र श्यावाश्व आश्रम लौट आया है. वह दासों के प्रतिरोध हेतु पुरुमिल्ह को निमंत्रण देने जा रहा था. सोचा, मार्ग में मित्र श्यावाश्व से भी मिलता चलूँ!
जब लोमपाद ने अत्रि – आश्रम से कुभू के लिये प्रस्थान किया तो वह अकेला नहीं था, श्यावाश्व भी उसके साथ था.
श्यावाश्व ने एकांत में राजपुत्र तरन्त से कहा – “कुमार! वह अनूपरूपा शशीयसी भारती के समान विदुषी तथा रति की भांति सुन्दरी है. उसके अधरों पर उभरने वाली मुस्कान के व्याज से चपला अपनी चमक पाती है और उसके पद-निक्षेप से हंसिनी को गर्वोन्नत गति से चलने हेतु अनुकरण की सुविधा मिलती है. उसकी प्रभा से चंद्रिका प्रतियोगिता करती है किन्तु सदा पराजित होती है. उसकी अलकों में शत-शत काली नागिनें सोती है तथा उसके कमल-नेत्रों के कटाक्ष में अटूट भ्रमरावलि बसती है. उसकी नासिका की शोभा को देख शुक लज्जित होता है, तथा उसकी दन्त-पंक्ति को देख कर दाड़िम की लड़ियां समझ कर ललचाता है. उसके बिम्बाधर की छवि पर सहस्रों राजन्य अपना सर्वस्व निछावर करने हेतु उद्यत हैं, किन्तु वह शशीयसी किसी की ओर देखती तक नहीं. उसे मात्र तुम्हारी कामना है. प्रति-पल, प्रति-क्षण तुम्हारी कामना करती वह देवी क्रूर काम के कष्टप्रद आघात सह रही है. ऐसा दुर्लभ रमणी – रत्न भाग्य से मिलता है. अपने भाग्य की सराहना करो और उसे स्वीकार करो कुमार!”
श्यावाश्व का दौत्य सफल हुआ. तरन्त और शशीयसी परिणय – सूत्र में आबद्ध हुये. दंपत्ति के सहर्ष दिये दान से श्यावाश्व का गृह धन-धान्य-अश्व-गौवों से भर उठा.
* * *
सब कुछ सहज दिखता था, किन्तु श्यावाश्व के दिन अपाहिज थे. कहीं कोई व्यतिक्रम न था किन्तु उसकी रातें घायल थीं. रथवीति की पुत्री का प्रेम श्यावाश्व के रोम-रोम में व्याप्त था और उसका विरह उसकी शिराओं में दहकते पारद की भांति मचल रहा था. वेदना से व्याकुल उसके कंठ से एक दिन फूट उठा, “सनत्साश्व्यं पशुमुत गव्य शतावयम्। श्यावश्वस्तुताय या दोर्वी रायोपबवृंहत्॥
त त्वा स्त्री शशीयसी पुंसो भवति वस्यसी। अदेवत्रादराधसः॥
वि या जानाति जसुरिं वि तृष्यन्तं वि कामिनम् । देवत्रा कृणुते मनः॥
उत घा नेमो अस्तुतः पुमाँ इति ब्रुवे पणिः। स वैरदेय इत्समः॥
उत मेऽरपद्युवतिर्ममन्दुषी प्रति श्यावाय वर्तनिम्।
वि रोहिता पुरुमील्हाय येमतुर्विप्राय दीर्घयशसे॥
यो मे धेनूनां शतं वैददश्विर्यथा ददत्। तरन्त इव मंहना॥”
शशीयसी के दिये दान से गृह भरा है – किस काम का? अन्य नारियों से भिन्न शशीयसी तो दान एवं सहृदयता में पुरुषों से भी श्रेष्ठ है. पुरुषों में तो देवों के प्रति अश्रद्धा तथा लोभ ने आश्रय ले लिया है. हाँ! विददश्व पुत्र पुरुमिल्ह ने भी बहुत दिया, किन्तु प्रेम के बिना धन का क्या मूल्य? क्या प्रयोजन?
दासों के साथ साम्मुख्य आवश्यक हो गया था. पुरुलोमपाद को आर्य-सेना के दक्षिणी पार्श्व का सेनापति नियुक्त किया गया. श्यावाश्व ने कहा – “मित्र लोमपाद! इस युद्ध में मैं भी सम्मिलित होना चाहता हूँ!” लोमपाद ने उत्तर दिया –“ऋषि श्यावाश्व! मैं स्वयं आपसे यह निवेदन करना चाहता था. आपकी ओजस्वी वाणी सैनिकों में अप्रतिहत तेज का संचार करेगी.” श्यावाश्व ने पुनः कहा – “आभार सेनापति! किन्तु यदि हम ऋषि और सेनापति संबोधन को भूले ही रहें तो अधिक उचित हो! क्या हमारी मित्रता इन संबोधनों की अपेक्षा करती है?” एक सहज हास्य के साथ लोमपाद ने कहा – “नहीं मित्र!” श्यावाश्व नहीं हंस सका. वह इस युद्ध में रथवीति की पुत्री मनोरमा को भूलने के लिये जा रहा था, स्वयं को भूलने के लिये जा रहा था.
युद्ध में लोमपाद के कठिन धनुष्य से एक साथ छूट रहे तीन – तीन भल्ल-मुख बाण दासों के कंठ, वक्ष तथा उदर में एक साथ धंसते. श्यावास्व अपने कज्जल-श्याम अश्व पर मृगचर्म के नीचे बांधे ताम्र-पत्तर का वर्म धारण किये सेना को ललकारता. सेना दासों पर ऐसे टूटती जैसे कपोतों पर गरुड टूटता है. अति शीघ्र कुटिल दास भाग उठे तथा गोवर्धन की कंदराओं में और वृंदा के वनों में जा छिपे. इस विजय का श्रेय लोमपाद के उद्यत कार्मुक तथा श्यावाश्व की ओजस्वी वाणी को मिला.
[६]
“सांझ घिर आयी हैं मधुरिके! चक्रवाक-मिथुन को अलग – अलग पंजरों में डाल दे!” मनोरमा ने दासी को आदेश दिया.
“दया करें देवि! कम से कम आपकी उदारता के फलस्वरूप तो ये दोनों एक साथ रात्रि व्यतीत कर सकें! प्रतिदिन का आपका यह आदेश मेरे हृदय पर छुरियाँ चला जाता है.”
“निशाकाल हेतु चिर-अभिशापित चक्रवाक मिथुन एक साथ रात्रि-यापन नहीं कर सकते! मनुष्य को नियति के विरोध का अधिकार नहीं! ये दोनों दिवस में तो कम से कम एक साथ रह सकते हैं! इस संसृति में अनेक ऐसे प्रेमी – युगल हैं जिन्हें दिन में भी परस्पर साहचर्य का सौभाग्य प्राप्त नहीं! जो कहा गया उसका पालन कर मधुरिके!”
चक्रवाक – मिथुन विलग कर दिये गये. मनोरमा का यह कथन उसकी माता, रथवीति की धर्मपत्नी भी सुन रही थी. भीतर कहीं एक चीस उठी. श्लेष-अभिव्यंजना को मधुरिका ने भी लक्ष्य किया.
महर्षि अत्रि से श्यावाश्व का विरह छिपा न था. उन्होंने अर्चनाना से कहा – “श्यावाश्व हेतु रथवीति से वार्ता अनिवार्य है पुत्र!” किन्तु अर्चनाना पुनर्प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे. उचित भी था. एक बार का ठुकराया हुआ प्रस्ताव पुनर्प्रेषित करना याचना करने जैसा था और श्यावाश्व तो राजसभा में याचना भी कर चुका था.
महर्षि अत्रि ने कहा – “किसी और के माध्यम से प्रयास करो पुत्र! यह विरहाग्नि श्यावाश्व की प्रतिभा को भस्मसात कर देगी.”
उसी रात्रि की बात है. श्यावाश्व की शैया पर सलवटें उसके हृदय के पीर का आलेख थीं. उसे नींद नहीं आ रही थी. प्रेम क्या इतना निष्ठुर है?
श्यावाश्व के मनोभावों को मनोरमा अथवा उसके माता-पिता तक कौन पहुंचाये? विरह – दंश भोगता सृष्टि का आदि-यक्ष श्यावाश्व! मूर्त जो न कर सके कवि वह कार्य अमूर्त को सौंपता है. मूर्त की सीमा है. अमूर्त असीम है. यह रात्रि ही क्यों नहीं? वह यहाँ भी है, वहाँ भी! मेरा सन्देश ले जाने में यह रात्रि भी सक्षम है. बल्कि यह रात्रि ही सक्षम है. रात्रि की नीरवता में नाद-कम्पन करता श्यावाश्व गा उठा:
एतं मे स्तोममूर्म्ये दार्भ्याय परा वह। गिरो देवि रथीरिव॥ उत मे वोचतादिति सुतसोमे रथवीतौ। न कामो अप वेति मे॥ एष क्षेति रथवीतिर्मघवा गोमतीरनु। पर्वतेष्वपश्रितः॥ “रजनी! तूं जाग और मेरी प्रिया को भी जगा! मेरा सन्देश वहन कर! देवि! उस दर्भतनय के समीप मेरी याचना का रथ बन कर प्रस्थान कर! हे शर्वरी! तुम्हारे स्पंदनहीन साम्राज्य में मात्र दो प्राणी निद्रा से वंचित हैं – एक मैं और एक रथवीति-सुता! हे देवि! मेरी याचना की अनंत व्याख्याएं कर के उस राजा रथवीति को सुना! हे रात्रि देवि! राजा रथवीति से मेरी दशा का वर्णन करना! उससे कहना कि जिस प्रकार वह प्रातःकाल यज्ञशाला में होम करता है, श्यावाश्व भी उसी प्रकार उसकी पुत्री के प्रेमांकुरों पर अपनी कामनाओं का होम कर रहा है.”
कौन बताता श्यावाश्व को कि ऐसे विक्षिप्त प्रेम-सन्देश भी कहीं प्रेमास्पद के पास तक पहुँचते हैं?
उसी रात्रि की बात है. रथवीति के शयनकक्ष में उसकी बाईं भुजा पर सिर धरे लेटी रानी ने रथवीति से कहा – “विजय की पुनः वर्धापनिका राजन! किन्तु अब?”
“अब क्या? युद्ध एक आवश्यक अकाल ले कर आता है! विजय के पश्चात राजा का दायित्व प्रजा को उस अकाल से मुक्ति दिलाना है. कुछ योजनाओं का अविलम्ब क्रियान्यवन आवश्यक है. उस दिशा में कार्य चल रहा है. किन्तु आप इन सबसे व्यथित न हों राज्ञी! वह सब मैं कर लूँगा!”
“आपका दायित्व क्या मात्र प्रजा के प्रति है आर्य?”
“तो और किसके प्रति राज्ञी?”
“मनोरमा के प्रति! उसका विवाह कब करेंगे राजन?”
“किन्तु उसके योग्य वर भी तो मिले! देवताओं का अनुग्रह है कि हम युद्ध में विजयी हुये अन्यथा पक्थराज का वह लज्जास्पद सन्देश तो तुम्हें स्मरण ही होगा! वन्यशूकर मेरी मृणाल सम कन्या से परिणय का अभिलाषी था. मेरी पुत्री हेतु कोई वीर, साहसी, विद्वान् और मंत्रद्रष्टा युवक ही योग्य हो सकता है. मैं शीघ्र ही मनोरमा हेतु कोई उचित जीवनसाथी खोज लूंगा राज्ञी! आप चिंता न करें!”
“कैसे चिंता न करूं आर्य? उसकी आयु में मैं उसकी माता बन चुकी थी. और खोजना कहाँ है? श्यावाश्व अब ऋषि-पद प्राप्त कर चुका है. दासों से हुये युद्ध में उसका साहस और वीरता भी प्रकट हो चुकी है. शील और स्वभाव उसका अग्निस्नात सुवर्ण जैसा है. और मनोरमा उसके प्रति प्रेमभाव भी रखती है. श्यावाश्व अपने प्रेमभाव का उद्घोष भरी सभा में कर ही चुका है. तो श्यावाश्व क्यों नहीं?”
“हूँ! सत्य है! तो श्यावाश्व क्यों नहीं?”
“शुभस्य शीघ्रम् राजन! कल प्रातः ही महर्षि अत्रि के आश्रम चलना होगा!”
“अवश्य राज्ञी! प्रातः ही महर्षि अत्रि के आश्रम चलना होगा!”
रात्रि-देवी ने श्यावाश्व का सन्देश सुना ही दिया, शब्द अवश्य रथवीति की रानी के थे!
प्रातः रथवीति अपनी रानी के साथ जब अत्रि के आश्रम को प्रस्थान कर रहे थे, मनोरमा ने मधुरिका को आदेश दिया – “चक्रवाक मिथुन को मुक्त कर दे मधुरिके!”
[७]
प्रशस्त कुटी के अलिंद में मनोरमा वृहती वीणा के तारों को समंजित कर रही थी. पिंग … पिंग.. बुंग… पिंग … पिंग.. बुंग! कपिला गौ के मधु-मिश्रित समशीतोष्ण दुग्ध के साथ निर्मित सोमरस के प्रभाव से लोमपाद और श्यावाश्व के नेत्र अर्धनिमीलित हो रहे थे. दोनों मित्र बहुत दिनों बाद मिले थे. श्यावाश्व और मनोरमा के परिणय के पश्चात लोमपाद श्यावाश्व से आज ही मिल सका था. गृह में आनंद था, हृदय में आनंद था, और कार्तिकी पूर्णिमा की उस रात्रि में संसृति के कण – कण में आनंद ही आनंद था. अचानक मनोरमा ने पूछा – “यदि मैं तुम्हें नहीं मिलती श्यावाश्व! तो?”
कवि अनमना हो गया – “शतद्रु की लहरों से पूछो प्रिये! यदि उन्हें सागर नहीं मिलता तो?”
“तो तुम परुष्णी तट पर विक्षिप्तों की भांति भटक रहे होते!”
लोमपाद को हंसी आ गयी. श्यावाश्व ने भी लक्षित किया कि यह गंभीर कथन नहीं हास्य है.
“और तुम्हे यदि उस मेदबहुल श्मश्रुल पक्थराज की भार्या बनना पड़ता तो मैं कूद-कूद कर हंसता!” श्यावाश्य का हास्य व्यंग्य की परिधि छू गया. निचला होंठ काटते हुये मनोरमा ने लक्ष्य परिवर्तित कर दिया,“और चंद्रभागा के तट पर तुम्हारे लिये सप्तसिन्धु के राजन्यों के विरुद्ध अपने कार्मुक का यशगान कर रहे तुम्हारे ये मित्र? क्या ये आजीवन अपने धनुष के साथ ही शय्या बंटायेंगे? ये अपना विवाह कब कर रहे हैं? मुझे भी तो देवरानी का सुख मिलना चाहिये?”
लोमपाद ने ऐसा अभिनय किया जैसे वह बहुत डर गया हो – “क्षमा भ्रातृजाया! यदि इस अधम से अनजाने कोई अपराध हो गया हो तो अन्य कोई भी दंड दे लें, किन्तु…! अरे! मैंने दो – दो प्रेमी – युगलों की पीड़ा बहुत निकट से देखी है. यह प्रेम – पंथ मुझ जैसे व्यक्तियों हेतु है ही नहीं! मुझे तो बस क्षमा ही करें भ्रातृजाया!”
एक उन्मुक्त हास्य से अलिंद आपूरित हो उठा. कार्तिक पूर्णिमा की चंद्रिमा आश्रम पर पसरी हुई थी. मनोरमा की उंगलियाँ वीणा के तारों पर थिरक रही थीं…. पिंग … पिंग.. बुंग… पिंग … पिंग.. बुंग….पिंग … पिंग.. बुंग….
[एक घटना से नहीं बनती कहानी, हर कहानी में कई इतिहास होते हैं…
…कहानी का आधार ऋग्वेद के पंचम मण्डल के सूक्त ५२ से ६१ तक हैं. मूल कथ्य को अक्षुण्ण रखते हुये शब्द-योजना और कल्पना का वितान मात्र मेरा अपना है. मुंज-रज्जु की ऐंठन के साथ जीने वाले विद्वानों से क्षमा-प्रार्थना के साथ वेद-वर्णित यह प्रेमाख्यान उन्हीं महर्षियों की अभ्यर्थना में, जिनमें द्रष्टा हो सकने की क्षमता भी थी और साहस भी.]