वैदिक साहित्य शृंगार भाग-1, 2, 3 से आगे:
अथर्ववेद के चौदहवें काण्ड की ऋषिका ‘सूर्या सावित्री’ हैं। इस काण्ड में केवल दो सूक्त हैं किंतु उनमें मंत्र संख्या अधिक है। दूसरे सूक्त के अंतिम पाँच मंत्रों का भावानुवाद यहाँ प्रस्तुत है।
शृंगार ( वैदिक साहित्य में )
मैं प्रखर ‘साम’, तूँ ‘ऋक्’ ललाम!
मैं महद्व्योम! तूँ धरा सरस!
मैं विष्णु रूप! तूँ विष्णुप्रिया!
हैं सदा साथ, हाथों में हाथ,
आ चल अभिसार करें॥
मन-प्राणों से हिंसाविहीन!
हम एक दूसरे में विलीन!!
उत्पन्न करें एक सुत दानी!
हम प्रणय-उदधि में साथ-साथ,
एक नौका पर विहरें॥
उस अगम-लोक से आज उतर,
यह शीलवती नववधू, पितर,
हर्षित हो देखें जी भर कर,
उनके अमृतमय शुभाशीष,
प्रतिपल कल्याण करें॥
तेरी कटि में मेरी बाहें,
रशना समान बँधना चाहें,
सम्मुख हैं अनजानी राहें,
संतति और सम्मति की महिमा,
तेरे पग में बिखरें॥
मैं स्वर दूँ तुझे जगाने को,
सुख-संग तुम्हारा पाने को,
शत-शरद सनेह निभाने को,
हे सुबुद्धि! हे परिणीता! उदित सहस्रांशु सविता,
तुझे शतायु करें॥
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[अथर्ववेद, शौनक शाखा, 14.2.71-75]
भावानुवाद: श्री त्रिलोचन नाथ तिवारी
कलाकार ईश्वर की सबसे प्यारी संतान होते हैं। आप उन्हीं में से एक है।
संतति और सम्मति की महिमा
तेरे पग में बिखरे 🙏🙏🙏
हे सुबुद्धि, हे परणीता;उदित सहस्त्रांशु सविता,
तुझे शतायु करें।।
सरस भावानुवाद । ऋचाओं का गद्यात्मक भावार्थ भी मुश्किल होता है, लेकिन पद्यात्मक भावानुवाद एवं सरस,सरल।माँ सरस्वती कृपालु रहें।
आभार। प्रणाम।