वीर सावरकर भाग – 1 से आगे …
दृश्य 3
सितंबर 1910 प्र. स. में एक विशेष न्यायालय गठित किया था। तब के बॉम्बे प्रान्त (आज का महाराष्ट्र, गुजरात और मध्यप्रदेश के कुछ भाग) के मुख्य न्यायाधीश सर बेसिल स्कॉट, सर एन जी चंदावरकर एवं न्यायमूर्ति हिटन की पीठ के समक्ष ब्रिटिश शासन की ओर से बॉम्बे प्रांतीय सरकार के महाधिवक्ता श्री वेल्डन, वेलिंगकर एवं निकोलसन वकील थे। बचाव पक्ष से श्री बप्तिस्टा, श्री चित्रे, गोविंदराव गाडगिल और रंगनेकर थे। पहले वाद में सावरकर के साथ 37 अन्य लोग अभियुक्त बनाए गए थे, दूसरे में वीर सावरकर और गोपाल राव पाटणकर थे और तीसरे में अकेले वीर सावरकर आरोपी थे। इन 3 वादों में आठ प्रकार के आरोप लगाए गए जिनमें संगठित सैन्य विद्रोह, अंतर्राष्ट्रीय युद्ध छेड़ने तथा हत्या सम्मिलित थे। वीर सावरकर से जुड़े कुछ ऐसे लोग भी थे जो सरकारी साक्षी बन गए थे, जिनमें प्रमुख था ‘इण्डिया हाउस’ का रसोइया चतुर्भुज। ‘इण्डिया हाउस’ लंदन का वह स्थान था जहाँ सभी भारतीय क्रांतिकारी विमर्श हेतु जुटते थे। चतुर्भुज ने स्वीकार किया था कि वीर सावरकर ने उसे 20 ब्राउनिंग पिस्तौलों को लन्दन से भारत लाने का काम दिया था। काशीनाथ अंकुशकर, दत्तात्रेय जोशी एवं कुलकर्णी भी सरकारी साक्षी बन चुके थे। इनके परिवारों को डराया गया, लालच भी दिया गया। अन्य उपायों से भी वीर सावरकर के विरुद्ध अनेक साक्षी खड़े किए गए।
वाद पर न्यायिक कार्यवाही आरम्भ होने के पूर्व वीर सावरकर को यरवदा जेल से डोंगरी जेल में भेज दिया गया था जहाँ उच्च न्यायालय की यह विशेष पीठ गठित की गई थी। जब डोगरी जेल में वीर सावरकर को भेजा गया तो वहाँ 50 आग्नेयास्त्र धारी 24 घंटे सुरक्षा में लगे रहते थे। एक कवचदृढ़ गाड़ी से उतारे जा कर कारागार की निर्जन वीथियों में जब बंदी सावरकर चलने लगे तो चारो दिशाओं से तीव्र करतल ध्वनियाँ सुनाई देने लगीं परन्तु उन्हें वहाँ निकट कोई नहीं दिखा। चकित वीर सावरकर को अनन्तर ज्ञात हुआ कि पाँवों के नीचे बने कारागार कक्षों में बंदी सह-अभियुक्त उनके आने की सूचना पा चुके थे तथा स्वागत में तालियाँ बजा रहे थे। इनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनको सावरकर ने वर्षों से देखा नहीं था। सबसे रोचक बात यह थी की इन 37 आरोपियों के बीच एक ऐसा भी युवक था जिसे अंतिम बार एक छोटे बच्चे के रूप में ही सावरकर ने देखा था और वह था ‘बाल’ अर्थात उनका अपना अनुज नारायण दामोदर सावरकर जिसके ऊपर नासिक के जिला अधिकारी की हत्या का आरोप था। उस संध्या गोपाल राव पाटणकर ने नारायण से कहा- “तुम्हें गर्व होना चाहिए बाल कि तुम तात्या के छोटे भाई हो, उन्हें देख पाना भी करोड़ों भारतीयों के लिए सौभाग्य है, यदि आज तात्या को फाँसी का दण्ड सुना मिल जाए तो भी युगों युगों तक यह ऋणी भारतवर्ष उसकी स्मृति को सँजोये रखेगा।”
नाटकीय ढंग से प्रारंभ हुई उस न्यायिक प्रक्रिया में पूरे भारत की रुचि थी पर अंग्रेजों के कुछ चाटुकार पत्रकारों के अतिरिक्त सभी समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों को शासन ने उसकी कार्यवाही देखने से प्रतिबंधित कर दिया था। पहले दिन सावरकर के विरुद्ध मुख्य अभियोजक जार्डिन ने आरोपपत्र पढ़ा।
लकड़ी के कांतिमान घेरे में खड़े सावरकर के मुख पर स्मित पसरी थी परन्तु उस न्यायालय में अन्य सभी के मुख तनाव की रेखाओं से भरे थे। एक-एक कर आरोप पढ़े जा रहे थे। आरोपों के अनुसार 13 मार्च 1910 को उन्हें लन्दन में बन्दी बनाया गया था। एस एस मोरिया नामक जलयान से जब उन्हें भारत लाया जा रहा था तब फ्रांस के मर्सलिस पत्तन पर वह सागर में कूद पड़े। जलयान में आई यान्त्रिक बाधा को ध्यान में रखते हुए उसे मर्सिलिस में विराम देने की योजना बनाई गई थी। 27 जून को ही इंग्लैंड ने फ्रांस को सूचना दे दी थी कि ‘इस पोत में एक दुर्धर्ष युद्धबन्दी है जिसे छुड़ाने हेतु फ्रांस में उपस्थित कुछ लोग प्रयास कर सकते हैं। फ्रांस में पैठ कर यह व्यक्ति एक शरणार्थी के रूप में युद्ध की व्यापक योजनायें बना सकता है क्योंकि यह पूर्व में यहाँ निवास कर चुका है तथा इसके सम्मोहन में अनेक सक्षम फ्रांसीसी पड़े हुए हैं।’
लन्दन के सी. आई. डी. अधिकारी पार्कर तथा बॉम्बे के पुलिस उपनिरीक्षक पॉवर इस यात्रा में केवल वीर सावरकर पर नियंत्रण करने हेतु ही नियुक्त किए गए थे। नासिक के जिलाधिकारी की हत्या के अभियोग में भी वीर सावरकर मुख्य प्रेरक माने गए थे। 1909 के मोर्ले-मिंटो सुधारों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने के आरोप में गोपालराव व बाल(नारायण सावरकर) पर भी आरोप थे।
जब आरोप पढ़े जा रहे थे तब सावरकर अपनी असफल योजना के बारे में सोचकर भी पुलकित थे। उनके हृदय में भाव आ रहे थे कि यदि क्रांतिकारी मित्र अय्यर की सूचना पर फ्रांस में लोग समय पर आसपास आ गए होते तो अभी मैं बेड़ियों में बँधा हुआ नहीं होता और इस न्यायालय के क्रियान्वयन में लगे कुछ अंग्रेज जीवन-मृत्यु के बंधन से कब के मुक्त हो गये होते।
7 जुलाई 1910 की संध्या मार्सिलिस में जलयान पहुँचा एवं धीरे धीरे सभी यात्री और सुरक्षाकर्मी निद्रा की गोद में जाने लगे पर सावरकर को नींद नही आ रही थी, उन्हें प्रतीत हो रहा था मानों कृष्ण कह रहे थे,”यदि मथुरा का कारागार खुल सकता है तो तुम्हारे कक्ष के गवाक्ष भी खुल सकते हैं, यदि वसुदेव यमुना के पार उतर सकते हैं तो तुम भी सागर के पार उतर सकते हो। यदि मिठाई की टोकरी में छिपकर शिवाजी आगरा के बन्दीगृह से भाग सकते हैं तो तुम भी यहाँ से भाग सकते हो।”
वीर सावरकर ने देखा कि सूर्योदय होने को है तथा उनके दोनों सुरक्षा अधिकारी गहरी नींद में सोए हैं। उन्होंने पास ही अधलेटे एक सुरक्षाकर्मी को जगाया और कहा कि मुझे नल निकासी के कमरे तक ले चलो ताकि हाथ मुँह धो सकूँ। सुरक्षाकर्मी ने अपने साथ एक अन्य सहयोगी को लिया और दोनों सावरकर को लेकर चल पड़े। कुछ ही आगे जाने के पश्चात सावरकर ने एक सुरक्षाकर्मी से कहा कि मेरे कुछ वस्त्र पीछे छूट गए हैं, तुम कृपापूर्वक उन्हें ला दो। उसके जाते ही सावरकर दरवाजे के भीतर प्रविष्ट हुए और उसमें लगे काँच से सुरक्षाकर्मी उन्हें देखता रहा। पलक झपकते ही सावरकर ने अपना चोला उतार फेंका और जल निकासी के मार्ग से कूद पड़े। शीतल समुद्री जल उनके शरीर पर अनेक तीरों की भाँति लगा तथा नाक से खारे जल का स्वाद उनके गले तक उतर गया। वह तीव्रता से तट की दिशा में तैरने लगे। जलयान के किनारों से गोलियों की अंधाधुंध वर्षा प्रारम्भ हो गई। कुछ क्षणों में कुशल तैराक भी जल में कूद पड़े और फ्रांस की भूमि को स्पर्श करने से पूर्व पुनः सावरकर को पकड़ लेने का प्रयास करने लगे।
सावरकर किनारे पहुँच गए। मुख्य मार्ग पर टैक्सी पाने के असफल प्रयास के पश्चात उन्हों ने वहाँ के एक स्थानीय सुरक्षाकर्मी से कहा कि मैं शरणार्थी हूँ, मुझे स्थानीय दण्डाधिकारी के सम्मुख ले चलो। जब तक वह कुछ प्रतिक्रिया दे तब तक अंग्रेज सैनिक वहाँ पहुँच गए और सावरकर को घसीटते हुए जलयान की दिशा में लौटा ले चले। नगर में इसकी मूहामूही सूचना प्रसारित होने लगी। जबतक लोगों की भीड़ इस पूरे घटनाक्रम में रुचि लेने जमा हुई, विलम्ब हो चुका था।
एक अधिकारी ने अपनी भरी हुई पिस्तौल सावरकर के माथे पर टिका दी एवं उन्हें नीचे गिराने का प्रयास किया। सावरकर ने उससे अंग्रेजी कहा,”मैं तो फाँसी पर चढ़ने मन बना कर आया हूँ। मेरे पास खोने को कुछ नहीं है क्योंकि मैं अपना घर जलाकर निकला हूँ। तुम यदि अपना जीवन अपने परिवार के साथ सुख से जीना चाहते हो तो मेरे आत्मसम्मान से मत टकराओ, तुम बहुत कुछ खो सकते हो।” वह अधिकारी पीछे हट गया।
यह 8 जुलाई के सूर्योदय की घटना थी। सावरकर को भगाने की योजना के अनुसार अय्यर और भीकाजी कामा अपनी मोटर से जब तक वहाँ पहुँचे, तब तक इस विचित्र नाटक का प्रथम दृश्य समाप्त हो चुका था। अब उनके पास दुर्भाग्य को रोने के अतिरिक्त कुछ शेष नही था।
सावरकर की इस असफलता ने भी विश्व में कोलाहल मचा दिया, यूरोप और अमेरिका के समाचारपत्रों में उनकी तुलना मैजिनी, गैरीबाल्डी और नेपोलियन से होने लगी। अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस वीर की प्रशंसा में संसार लग गया एवं भारत में भी सावरकर की चर्चा सर्वत्र छा गई।
उनको बेड़ियों से बाँध कर ‘एस एस सास्ति’ नामक जलयान के द्वारा 4 फ़ीट के एक पिंजरे में बन्दी बना कर भारत के लिए भेज दिया गया। 22 जुलाई 1910 को वह यान मुम्बई पहुंचा था।
तब से लेकर आज तक (न्यायिक प्रक्रिया का प्रथम दिन अर्थात 15 सितंबर 1910) निरन्तर उनके कारागार परिवर्तित किये गये थे।
सुनवाई की अगली तिथि 26 सितंबर को रखी गई, उस दिन दो सरकारी साक्षियों के कथन पूरे होने के उपरांत वीर सावरकर के अधिवक्ता ने कहा कि इस वाद को स्थगित कर दिया जाए जिससे कि सावरकर फ्रांस के वाद की सुनवाई हेतु हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में अपना पक्ष रखने जा सकें।