चित्रलेख : बनारस की गलियाँ
देवेन्द्र कुमार पाण्डेय
एक बनारसी के साथ वहाँ की गलियों का भ्रमण …‘नाम हौ हाथी गली, जात नाहीं बकरी रजा, ई काशी हौ!’
बनारस की गलियों के बारे में लिखने का मूड बना कर लिखना शुरू किया तो खुद को भूतनाथ के भूलभुलइया में फँसा पाया! कहाँ से शुरू करूँ? जिधर जाओ, उधर गली आगे मुड़ती है! कहीं-कहीं तो बंद गली भी मिलती है!! पलटी मारो तो लौट कर बुद्धू वहीं आ गये जहाँ से चले थे! भारतेंदु जी इन्हीं गलियों में रहते थे। उन्होंने अपने नाटक में लिखा – ‘नाम हौ हाथी गली, जात नाहीं बकरी रजा ई काशी हौ!’
शिवप्रसाद सिंह का प्रसिद्ध उपन्यास ‘गली आगे मुड़ती है’ इन्ही गलियों के ताने बाने, अस्सी, गुजरातियों का मोहल्ला, गोपाल मंदिर, बंगाली टोला, ठठेरी बाजार के इर्द-गिर्द घूमता रहा।
किधर से शुरू करूँ? राजघाट पुल से उतरकर सीधे प्रह्लाद घाट की गली में घुस जाऊँ या अस्सी में पप्पू चाय वाले की दूकान से एक काली चाय पीते हुए पान जमाकर भदैनी, शिवाला की तरफ चलूँ? पंचगंगा घाट में डुबकी मार कर बिन्दु तीर्थ में प्रवेश करूँ, बिन्दू माधव का दर्शन करूँ, माधवराव के धरहरे को फिर एक बार हिकारत की नज़रों से देखूँ और औरंगजेब को कोसते हुए शिवमय तैलंग स्वामी की समाधि पर मत्था टेकते, गोपाल मंदिर में घुस जाऊँ?
काशी में सदा विराजमान रहने वाले संकट मोचक हनुमान जी का दर्शन कर दुर्गाकुंड होते हुए भेलूपुर से गिरजाघर की तरफ चलूँ या फिर विश्वनाथ बाबा के दर्शन कर बंगाली टोला होते हुए मुसलमान भाइयों की गली में घुस जाऊँ? किधर से शुरू करूँ? कैसे लिखूँ? क्या लिखूँ? जितनी उलझी हुईं हैं बनारस की गलियाँ, उनसे कम कठिन नहीं उनके बारे में लिखना!
बहुत बढ़िया कपड़ा पहन कर भी इन गलियों में नहीं घुमा जा सकता। न जाने किस गली में सीवर का मैनहोल खुला हुआ हो! न जाने किसके सीवर की पाइप फुहारे मार रही हो! अब तो काफी सुधार हो गया वरना भले ही इन गलियों में धूप नहीं जाती, भले ही जाड़े का मौसम हो, सज-धज कर निकल रहे पक्के बनारसी तो जब भी घर से निकलते, छाता ओढ़कर निकलते थे! न जाने किस तिमंजिले मकान की खिड़की से गली में फेंका हुआ कूड़ा सीधे सिर पर गिर जाये! न जाने कहाँ से पान की पीक आपके उज्जर कुर्ते को लालम लाल कर दे! इन गलियों में घूमने के लिए तो एक लाल बनारसी अंगोछा कमर में, दूसरा कंधे पर मफलर की तरह लपेटा हो, तभी ठीक है। कुछ शोहदे तो गली में नीचे जा रहे व्यक्ति पर जान बूझ कर पान की पीक थूकते थे और जब वह खड़ा होकर मुँह ऊपर करके माँ-बहन की गालियाँ देता था तो छत पर चढ़े ये शोहदे और जोर से ललकारते\, फुफकारते और गाली देने वाले को साधुवाद देते। लेकिन यदि आदमी शरीफ हुआ, चुपचाप निकल गया तो शोहदों का सारा मजा किरकिरा हो जाता और वे ऊपर से ही चीखते – नामर्द हौ सरवा!
लड़के तो लड़के, मजे लेने में बनारसी रईस भी कम नहीं थे। लाल गमछा और छेदियल गंजी पहने, पान की पीक से गाल फुलाये चबूतरे पर दरिद्दर की तरह बैठे पुराने ज़माने के रईस अचानक से साफ़-सुथरा धोती-कुरता पहने श्रीमान जी पर पिच्च से पूरी पान की पीक उतार कर ऐसे मुँह फेर लेते थे जैसे कुछ जानते ही न हों! जब वह आदमी झल्लाता, आस पास मजे लेने के लिए ताक पर बैठे रईस के चेलों से उलझता तो खूब मजा लेने के बाद उस आदमी को नया कुर्ता-पैजामा दिलाते, मिठाई खिलाते और हँसी-मजाक करते हुए ऐसे विदा करते कि एक घंटा पहले मरने-मारने पर उतारू आदमीं हँसते हुए खुशी-खुशी अपने घर चला जाता।
आप एक सिरे से बनारस की गलियों में गायों, भगवान शंकर के सुस्त वाहन नंदी महाराज से बचते बचाते चले जा रहे हैं तभी अचानक से भीड़ का एक रेला चीखेगा-बच के रेऽऽऽ! पता चला कि नंदी महाराज रौद्र रूप में हैं और सँकरी गली में गइया को दौड़ा रहे हैं! गइया आगे-आगे, साँड़ पीछे-पीछे और गली में चलने वाले तितर-बितर, इधर-उधर, अबूतरे-चबूतरे पर चढ़-चढ़ कर जान बचा रहे हैं। आप के पास एक पल का समय है। एक पल में आप भी सबके देखा-देखी किसी चबूतरे पर चढ़ जाते हैं या किसी घर के खुले दरवाजे से अंदर घुस कर जान बचा पाते हैं तो यह आपकी किस्मत। जान बची लाखों पाये का भाव लिये आप आगे चलते जा रहे हैं।
गलियों पर बिखरी गन्दगी से भी मोहल्लों को पहचान सकते हैं! जिस गली में इमली के बीज (बनारसी इसे चीयाँ कहते हैं) बिखरें हों, समझ लीजिये आप मद्रासियों के मोहल्ले से गुजर रहे हैं। जिस गली में मछली की गंध आ रही हो, समझ लीजिये यह बंगालियों का मोहल्ला है और जिस गली में हड्डी लुढ़की पड़ी हो, समझ लीजिये यह मुसलमानों का मोहल्ला है। ऐसे ही कुछ न कुछ संकेतों से आप मराठियों, नेपालियों या दक्षिण भारतियों के मोहल्लों को पहचान जायेंगे।
बनारस के गलियों में रहना आपको भले ही भयावह लग रहा हो लेकिन यहाँ के लोगों के लिये ये गालियाँ स्वर्ग का मजा देती हैं। आप कहते रहिये कश्मीर को स्वर्ग मगर हम बनारसियों के लिए तो बनारस की ये गलियाँ ही कश्मीर और शिमला का मजा देती हैं। जाड़े में दिनभर छतों पर जो रौनक रहती है वह नैनीताल के माल रोड पर क्या होगी!
गर्मी में जब आप कश्मीर या शिमला का रुख करते हैं तो बनारसी घर के तहखानेनुमा कमरे में दरी पर एक पंखा चलाकर मस्त खर्राटे मारता रहता है। जाड़े के मौसम में फेरी वाले सुबह-सुबह आवाज लगाते हैं-मलइयोऽऽऽऽ! क्या बच्चे, क्या बूढ़े ‘मलइयो’ शब्द सुनते ही मुँह में पानी आ जाता है। देर शाम जब आप सोने की तैयारी कर रहे होते हैं आवाज आती है – जाड़े का मेवा…चीनियाँ बादाम, गजक! फेरी वाला ‘गज़क’ शब्द का उच्चारण इतने ठहर कर करता है कि कान से शब्द सीधे जीभ में पिघलने लगते हैं और आप दौड़ कर बरामदे से आवाज लगा कर भाव-ताव करने लगते हैं। गर्मी के मौसम में बाहर गलियों में लू चल रही होती है फेरी वाला आवाज लगाता है-काले-काले हैं, मसाले वाले हैं…गुलाब जामुन!
पचपन बरस हो गए बनारस में रहते हुए मगर अभी भी बनारस की सारी गलियाँ घूम ली हों, ऐसा नहीं है। अभी भी सड़क जाम से बचने के लिये बाइक यदि किसी गली में दावे के साथ घुसेड़ दी तो आगे चलकर पूछना पड़ता है,”भाई! गोदौलिया जाना है, किधर से जाऊँ?” छोडिये! नहीं लिखता बनारस की गलियों के बारे में, बहुत कठिन काम है। उनके बारे में तो कोई बनारसी साँड़ ही बेहतर बता सकता है।
लेखक : देवेन्द्र कुमार पाण्डेय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से वाणिज्य परास्नातक। साहित्यिक गतिविधियों और फोटोग्राफी में रुचि। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य , कविता, लेख आदि प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन वाराणसी से काव्य पाठ। काव्य संग्रह: काव्य-स्वर, संभावना डाट काम, बालार्क, पूर्वांचल की माटी में संयुक्त काव्य प्रकाशन। |
bahut sundar, sajeev prassaran jaisa anubhav hua .
अब तो एकाध बार और जाना होगा बनारसी गलियों की सैर करने 🙂
गज़ब गुरू, कभी बनारस की गालियों पर भी हो जाय रजा।
कुछ दिन बाद बनारस जाने की सोच रहा हूं। वहां एक दो मित्र हैं, पता नहीं कैसा अनुभव होगा, बीकानेर को छोटी काशी कहते हैं, बड़ी काशी को लेकर बहुत कल्पनाएं हैं। देखते हैं कैसा मिलता है बनारस…
बनारस मात्र नगर नहीं, एक संस्कृति है जो वैश्वीकरण के युग में भी सौभाग्य से बहुत कुछ बची हुई है।