वैदिक साहित्य शृंगार भाग-1, 2 से आगे:
चेतना के स्तर अनुसार वेदों के मंत्र अपने कई अर्थ खोलते हैं। कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि किसी श्रुति के छ: तक अर्थ भी किये जा सकते हैं – सोम चन्द्र भी है, वनस्पति भी है, सहस्रार से झरता प्रवाह भी। वेदों के कुछ मंत्र अतीव साहित्यिकता लिये हुये हैं। इस शृंखला में हम कुछ मंत्रों के भावानुवाद प्रस्तुत करेंगे।
शृंगार ( वैदिक साहित्य में )
वाञ्छ मे तन्वं पादौ वाञ्छाक्ष्यौ वाञ्छ सक्थ्यौ।
अक्ष्यौ वृषण्यन्त्याः केशा मां ते कामेन शुष्यन्तु॥
मम त्वा दोषणिश्रिषं कृणोमि हृदयश्रिषम्
यथा मम् क्रतावसो मम चित्तम् उपायसि॥
(अथर्ववेद, शौनक शाखा, ६/९/१,२)
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तूँ!
मेरे मन की कामना करे!
कामना करे इन जाँघों की!
कामना हमारे नेत्रों की!
और मदिर अपने नयनों,
लहराते घने दीर्घ केशों
से काम-ज्वरित करती मुझको
प्रति-पल मुझमें कामाग्नि जला॥
कामना मेरी उद्दीपित कर!
तुझे उठा कर बाँहों में,
सिमटा लूँ तुझे अंक में मैं,
उर में मेरे विश्राम करे,
मन से रत रहे क्रियाओं में!
बहुभाँति मेरी सहयोगी बन!
कामना मेरे तन की कर तूँ!
नित वास करे मेरे मन में!
आ और निकट कामोद्दीपा!!
भावानुवाद: श्री त्रिलोचन नाथ तिवारी
मम चित्तं उपायसि।। वेद ऋचाओं का काव्यानुवाद। आपकी नैसर्गिक प्रतिभा को नमन।