लहरता दिनमान
प्रस्थान और विश्राम बीच,
निजी पारदर्शिता के मोह में।
वर्तुल तिजहर खाड़ी अब,
थिरता में जग डोलता जहाँ।
दृश्यमान सब और सब मायावी,
सभी निकट और स्पर्श दूर।
कागज, पुस्तक, पेंसिल, काँच,
विरमित निज नामों की छाँव में।
दुहराता समय स्पंदन मेरे केनार
वही अपरिवर्तित रक्त अक्षर।
बदले प्रकाश में उदासीन भीत
भुतहा रङ्ग प्रतिभास भर।
मैं पाता स्वयं को एक नयन बीच,
देखता स्वयं को उसकी रिक्त दीठ।
है क्षण बिखरता। गतिहीन,
मैं ठहरता और करता प्रस्थान:
मैं एक विराम।
ऑक्तावियो पाज़ (1971 – 2055 वि.), एक मेक्सिकन कवि राजनयिक थे और भारत में भी कार्यरत रहे। उनकी कविताओं में भारतीय दर्शन का प्रभाव दिखता है। साहित्य के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित हुये।
उनके काव्यकर्म के बारे में कहा गया कि वह भाषा और मौन के बीच नहीं झिझकता और मौन के उस आयाम में ले जाता है जहाँ सच्ची भाषा पायी जाती है। The poetry of Octavio Paz does not hesitate between language and silence; it leads into the realm of silence where true language lives.
यहाँ उनकी एक कविता Between going and staying the day wavers का भावानुवाद प्रस्तुत है जिसे किसी कार्यालय की एक शांत तिजहर को टुकड़ा टुकड़ा मौन सम सँजोना कहा जा सकता है। भावानुवादक – गिरिजेश राव।