पंथीय जनसंख्या और उसके वितरण के ऐतिहासिक और समकालीन प्रभाव देखें तो भारतीय उपमहाद्वीप की स्थिति अनूठी है। यहाँ के निवासियों को पंथसमूहों के आधार पर दो बड़े वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहला वर्ग भारतीय भूमि पर उपजे और फले फूले पंथों का हैं जिनमें हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध और अन्य लघु वर्ग आते हैं। सुविधा के लिये इस वर्ग को हम ‘भाव’ कहेंगे। दूसरा वर्ग अभारतीय भूमि पर उपजे पंथों का है जिनमें अन्य नगण्य पंथों के अतिरिक्त इस्लामी और ईसाई आते हैं जो कि प्रमुख हैं। इन दो को मिला कर बने वर्ग को हम ‘अभाव’ कहेंगे।
सर्वविदित है कि भारत का 1947 ई. में पंथ के आधार पर विभाजन हुआ क्यों कि इस्लामी मतावलम्बी अपने लिये अलग भूमि चाहते थे और उसके लिये उनके नेतृत्त्व और सामान्य मजहबियों ने भी हर तरह की युक्ति का सहारा लिया। विभाजन के समय उनकी संख्या लगभग एक तिहाई थी। जनसंख्या की दृष्टि से जिन क्षेत्रों में वे स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय सीमा रख सकते थे और जहाँ इस अनुपात में थे, वे सभी अलग हो पूर्वी और पश्चिमी भागों में विभक्त एक नये देश का रूप लिये। इस प्रकार भारत देश का लगभग 24% भू भाग कट कर अलग हो गया और साथ ही युद्ध से भी भयानक विभीषिका झेलते हुये लाखों ‘भाव’ पंथी या तो मारे गये या विस्थापित हो गये।
पश्चिमी भाग में जो कि अब पाकिस्तान नाम से जाना जाता है, ‘भाव’ जनसंख्या लगभग 1.6% बची जब कि पूर्वी भाग, जो अब बँगलादेश है, में ‘भाव’ जनसंख्या 22% रह गयी। आज लगभग 70 वर्षों के पश्चात इन दो देशों में ‘भाव’ जनसंख्या क्रमश: स्थिर अर्थात लगभग 1.5% और 10% रह गयी है। ये दो आँकड़े ‘अभाव’ पंथियों की उस मानसिकता को उजागर कर देते हैं जो इतर पंथियों को ऐसे हेय काफिर श्रेणी में रखती हैं जिन्हें जीने का अधिकार ही नहीं है! यह एक मोटी सचाई है जिसे अंतर्राष्ट्रीय दबाव और मानवता की वरेण्य धारणायें यत्र तत्र तनु तो करती हैं किंतु हैं नगण्य ही।
इसके विपरीत देखें तो भारत भूमि में विभाजन के पश्चात 1951 में हुई जनगणना में लगभग 12% ‘अभाव’ पंथी थे। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार उनकी संख्या बढ़ कर लगभग 17% हो गयी और पहली बार हिन्दुओं की संख्या घट कर 80% से कम रह गयी। कई अन्य पहलुओं के साथ इससे यह पूर्णतया स्थापित हो जाता है कि ‘भाव’ पंथियों की बहुलता वाले इस देश में ‘अभाव’ पंथी पूरी तरह से न केवल सुरक्षित हैं बल्कि बढ़ भी रहे हैं।
2011 की जनसंख्या से ही कुछ ऐसे आँकड़े सामने आये हैं जो आगम का आभास देते हैं। इनमें व्यापक घुसपैठ और विदेशी एवं अवैध पूँजी का लालच दे कर मतांतरण के प्रभाव भी सम्मिलित हैं। उल्लेखनीय है कि पूर्वोत्तर राज्यों में मतांतरण और घुसपैठ के कारण उपजे जनसंख्या असंतुलन ने आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सामरिक समस्याओं को जन्म दिया है जो घातक हैं। चीन और स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय सीमा की उपस्थिति समस्याओं को जटिलतम बनाती हैं।
चुने हुये कुल 640 जिलों में 2011 की जनगणना के आधिकारिक आँकड़ों के विश्लेषण से निम्न तथ्य उद्घाटित होते हैं:
- ‘अभाव’ पंथियों की 10 से ले कर 60 प्रतिशत तक की जनसंख्या वाले जिलों की संख्या 301 है जिनमें उनकी संख्या लगभग 15 करोड़ है।
- परिवर्तन की दृष्टि से संवेदी जनसंख्या परास 20 से 40 प्रतिशत के कुल 84 जिलों में ‘अभाव’ पंथियों की संख्या लगभग 5.5 करोड़ है।
- 60 से ले कर ~100 प्रतिशत की ‘अभाव’ पंथी जनसंख्या वाले कुल 61 जिले ऐसे हैं जिनमें उनकी संख्या लगभग 3 करोड़ है।
- 10 प्रतिशत तक की जनसंख्या वाले जिले तो 278 हैं किंतु उनमें ‘अभाव’ पंथियों की सकल संख्या मात्र लगभग 2.50 करोड़ ही है।
सकल जनसंख्या प्रतिशत वाले परासों को जब ‘अभाव’ पंथियों की अपनी जनसंख्या प्रतिशत के साथ रखते हैं तो निम्न लेखाचित्र सामने आता है:
संवेदनशील क्षेत्र को लाल वृत्त और प्रथम परास के शीर्षमान से जाती क्षैतिज रेखा से दर्शाया गया है। ध्यान देने योग्य है कि ‘अभाव’ पंथियों की सकल संख्या का 48% इस क्षेत्र में केन्द्रित है! यह चिंताजनक स्थिति है।
जनसंख्या वृद्धि की दर में अंतर को देखें तो ऐसे अध्ययन उपलब्ध हैं जो दर्शाते हैं कि 2050-60 के दशक में ‘अभाव’ पंथियों की संख्या ‘भाव’ पंथियों के बराबर हो जायेगी। यदि हम चार दशक लम्बी इस अवधि में होने वाले ढेर सारे विधायी परिवर्तनों को भी सम्मिलित कर लें, हालाँकि उनकी सम्भावना लगभग शून्य है, तो भी तब तक अभाव पंथी जनसंख्या के उस स्तर तक तो पहुँच ही जायेंगे कि उनकी माँगें नीति निर्धारण से ले कर कार्यान्वयन तक निर्णायक भूमिका निभायेंगी। ऐसा कैसे होगा?
2011 की जनगणना के पश्चात ही FICCI प्रायोजित एक अध्ययन ने देश में कुशल हाथों से सम्बन्धित माँग आपूर्ति के विशाल ऋणात्मक अंतर को रेखांकित करते हुये उस अंतर को कम करने की भारत सरकार की योजनाओं पर एक परिपत्र जारी किया था, जिसमें स्थिति उत्साहजनक नहीं दिखती थी।
उल्लेखनीय है कि आगे के दो दशकों में भारत की जनसंख्या चीन को पार कर जायेगी और यह संसार का सबसे युवा देश होगा। एक ओर निरंतर बढ़ते हाथों को काम और मूलभूत सुविधायें उपलब्ध कराने की चुनौती होगी तो दूसरी ओर उनकी कार्यकुशलता की गुणवत्ता की दयनीय स्थिति तनाव भी बढ़ायेगी। उस तनाव का अनुमान अभी से लगाया जा सकता है जब कि अभियांत्रिकी की शिक्षा पाये युवाओं का अधिकांश भाग किसी काम लायक नहीं पाया जा रहा है! ऐसे में सीमित संसाधनों पर भारी दबाव होगा। एकनिष्ठ स्वार्थी समूह जनसंख्या और उसके वितरण की दबाव शक्ति का उपयोग अधिक से अधिक हड़पने में करेंगे। तंत्र में स्थापित स्वार्थी और काहिल प्रभावी अधिकारी उन्हें अधिक से अधिक समायोजित करेंगे जिसके पीछे कभी विधि व्यवस्था, कभी मानवाधिकार, कभी अल्पसंख्यक(?) कल्याण तो कभी विशुद्ध स्थानीय और राष्ट्रीय राजनैतिक तर्क होंगे। यह सोचना अपरिपक्वता ही है कि ऐसा कभी नहीं होगा। सन् 1947 के बँटवारे में क्या हुआ था? ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारों के नेपथ्य में कौन से विमर्श चल रहे हैं?
बहुत अधिक दिन नहीं हुये जब स्वतंत्र भारत के प्रधान ने संसाधनों पर एक वर्ग के ‘प्रथम अधिकार’ की बात की थी। वह कौन वर्ग था? राष्ट्र और आगामी पीढ़ी के हित में ‘भाव’ पंथियों को अभी से सोचना और करना होगा। ‘अभाव’ तो अपनी पूर्ति करना भर जानता है।
भीषण जनसंख्या वृद्धि देश की सबसे विकराल समस्या है.
आपात्काल पश्चात् हुए चुनाव के परिणाम से भयभीत राजनैतिक दल नेता आज तक इस ज्वलंत समस्या से मुंह चुराते रहे हैं. यह बात किससे छिपी है कि नेताओं के भय की जड़ में मुख्यत: मूलसमानों के बिगड़ उठने की आशंका रही है. अब राजनैतिक वातावरण कुछ बदला है. सरकारों को सुअवसर का लाभ उठाते हुए जनसंख्या नियंत्रण सह अवैध इल्हामी घुसपैठ को रोकने हेतु कोई प्रभावी योजना बनानी चाहिए.