सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 , 6, 7, 8, 9 , 10, 11से आगे
पिछली कड़ी में हमने व्यावहारिक अर्थशास्त्र पर सांख्यिकी के प्रभाव को देखा, जिसमें हमने कई विशेषज्ञों के अपने स्वयं के अधूरे ज्ञान से अनभिज्ञ रहने की बात की थी। पश्च दृष्टि भ्रम (hindsight illusion) का सिद्धांत भी कुछ ऐसी ही बात कहता है। इसके अनुसार हमें लगता है कि हम भूतकाल की बातों को पूरी तरह समझते हैं। जो कुछ भी हुआ उसकी हमें सटीक समझ है और इस बात से हमें यह भी भ्रम होता है कि भविष्य में क्या होगा इसका भी अनुमान लगाया जा सकता है। परन्तु वास्तव में भूतकाल के बारे में हमें जितना लगता है उससे हम बहुत कम जानते हैं। घटनाओं के हो जाने के बाद हमें वे बातें सहज लगती हैं। हम उन घटनाओं से या अलग बिंदुओं को जोड़कर एक कहानी बना लेते हैं, एक सिद्धांत जिससे हमें लगता है कि हम सब कुछ समझ गये कि जो हुआ वह क्यों हुआ। हम वे बातें भूल जाते हैं जो घटना के घटित होने के पहले हमें लगती थीं। चुनाव की भविष्यवाणी करने वाले विशेषज्ञों की तरह हमें स्वयं की सोची हुई बातें ही स्मृति में नहीं रहतीं। शेयर बाजार में गिरावट के पहले प्राय: किसी को कुछ पता नहीं होता पर उसके पश्चात कारणों की व्याख्या के अनगिनत शोध निकल आते हैं। घटनाओं के हो जाने के पश्चात परिवर्तित हमारी समझ एक प्रमुख संज्ञानात्मक पक्षपात है। इसी प्रकार हमारे अति आत्मविश्वास का एक बड़ा कारण यह होता है कि हम अपने अच्छे निर्णय तो स्मृति में रखते हैं परंतु बुरे को भूलते जाते हैं। उसी प्रकार हम निर्णय लेकर कुछ नया करने वालों को दोषी ठहराते हैं जब उनके द्वारा लिये कुछ अच्छे निर्णय बुरे सिद्ध होते हैं एवं अच्छे निर्णयों के सफल होने पर भी हम उनकी प्रशंसा नहीं करते क्योंकि तब हमें स्पष्ट दिखने लगता है कि यह तो होना ही था! इसी कारण इस आधुनिक सिद्धांत के बहुत पहले कहा गया है – नेकी कर दरिया में डाल!
निर्णय लेने के आधुनिक सिद्धांतों में इसी कारण सांख्यिकी और कलन विधि (Algorithm) की महत्ता पर बल दिया जाता है – जो सहज दिखता है उसके परे सोचने के लिये बुद्धि को बाध्य करना। भर्तृहरि के ‘यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं’ की ही तरह आधुनिक सिद्धांत कहते हैं कि विशेषज्ञों के सहज संज्ञान (expert intuition) पर विश्वास करने में एक सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे उन बातों की अनदेखी करते हैं जो वे नहीं जानते – ignorance अर्थात सम्मोह। गीता के ‘…. सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः, स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति’ और आधुनिक ‘our almost unlimited ability to ignore our ignorance स्वयं के सम्मोहन या अज्ञान को उपेक्षित करने की हमारी लगभग अनंत क्षमता) में समानता पर विचार कीजिये।
योजना भ्रांति (planning fallacy) इङ्गित करती है कि योजना बनाते समय हम प्राय: अच्छी सम्भावनाओं के बारे में ही सोचते हैं। हम योजना बनाते समय प्राय: निकृष्टतम स्थिति (worst case) में होने वाली बातों के बारे में नहीं सोचते। इन आधुनिक सिद्धांतों को हमने कहीं न कहीं पहले भी सुना और पढ़ा है। सरल हैं, सुगम हैं।
आशावादी पक्षपात (optimistic bias) के अनुसार हम तथ्यों को नकारने के अभ्यस्त होते हैं। हमें लगता है कि जो बातें किसी और के साथ हो रही हैं, हमारे साथ नहीं होंगी। जब हम किसी असाध्य रोग के बारे में सुनते हैं तब प्राय: हमें नहीं लगता कि हमें भी वह रोग हो सकता है। इसी संज्ञानात्मक पक्षपात से एक अन्य बात निकलती है, वह यह कि अपनी सफलता का श्रेय हम अपने आप को देते हैं और विफलताओं को भाग्य का दोष कह देते हैं । इस सिद्धांत पर बचपन की सुनी एक प्रेरक कहानी मन में आती है जिसमें एक यात्री जब खिली हुई फुलवारी की प्रशंसा करता है तो माली गर्व से अपने कठिन परिश्रम की बातें सुनाता है। कुछ महीनों पश्चात लौटता हुआ जब वही यात्री उजड़ी हुई बगिया देखकर माली से पूछता है कि क्या हुआ, तो माली उत्तर देता है कि भाई, सब भगवान की इच्छा!
तो यह सब पढ़ते हुए क्यों लगे कि हम कुछ नया पढ़ रहे हैं?
अपनी गढ़ी कहानियों और स्वयं के बनाये सिद्धांतों पर हमें इतना विश्वास हो जाता है कि परिणामत: उसके बाहर सोचना बहुत कठिन हो जाता है – सिद्धांत उत्प्रेरित अंधता (theory induced blindness)। यदि हम सोचने का या काम करने का एक ढंग विकसित कर लेते हैं और हमें लगता है कि वह ठीक विधि है तो हमें उससे जुड़ी त्रुटियाँ नहीं दिखतीं। यदि कोई बात हमारे सोचने के ढंग से मेल नहीं खाती तो हमें लगता है कि हमारा सोचने का ढंग तो ठीक है परन्तु इस बात में कुछ और भी है जो हम देख नहीं पा रहे परंतु हम अपने सोचने के ढंग पर प्रश्न नहीं करते। नीतिशतकम् के श्लोकों में इस अधूरे ज्ञान की बात की झलक मिलती है:
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥
हमने आरम्भ की कड़ियों में इस बात की चर्चा की थी कि ये सारे सिद्धांत एक बड़े सिद्धांत के विशेषावस्था प्रतीत होते हैं जो कई दर्शनों में अंतर्निहित है। उदाहरण के लिये देखें तो आसक्ति (Endowment effect) को मनोविज्ञानी इस तरह परिभाषित करते हैं कि जो वस्तुयें हमारी होती हैं हम उन्हें उन वस्तुओं की तुलना में अधिक मूल्यवान मानते हैं जो हमारी नहीं होतीं या जिनका हम उपयोग नहीं करते। जो वस्तुयें हमारी होती हैं, हमें उनसे आसक्ति होती है और हम उन्हें छोड़ना नहीं चाहते। व्यवसाय की दृष्टि से देखें तो इस आसक्ति से हमें कई बार घाटा भी उठाना पड़ता है। Endowment effect की आसक्ति की इस बात को कितनी ही बार भिन्न भिन्न विधियों से बार बार कहा गया है!
क्रमश: