दुःख-सुख का उल्टा नहीं। उपलब्ध विकल्पों में हम उनको चुनते हैं जिसमें लाभ भले कम हो पर हानि होने के आसार ना हो। हम लाभ से ज्यादा हानि के प्रति सचेत होते हैं। (decision making economics behavioural science)
सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3 और 4 से आगे …
व्यावहारिक अर्थ शास्त्र का विकास पिछली अर्द्धसदी में में तेजी से हुआ। पचास वर्षों से भी कम समय में मनोवैज्ञानिकों ने सैकड़ों संज्ञानात्मक पक्षपातों (cognitive biases) का खोज किया। मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र के साथ साथ आधुनिक उपभोक्ता प्रवृत्ति अध्ययन, निर्णय सर्जन और नियोजन, नीति निर्माण जैसे कई क्षेत्रो में हो रहा है। ये खोज मनोविज्ञान के लिए और खासकर अर्थशास्त्र के लिए क्रांतिकारी हैं। परन्तु साथ में ये भी सत्य है कि इन सिद्धांतों का इतनी तेजी से खोज होने का एक बड़ा कारण यही है कि ये नए खोज नहीं है उनका अर्थ शास्त्र की दृष्टि से इस्तेमाल जरूर नया है।
अर्थशास्त्र की दृष्टि से ये इतने महत्त्वपूर्ण होते गये क्योंकि अर्थशास्त्र का अध्ययन ही एक गलत सिद्धांत के साथ होता रहा है – और ये सिद्धांत है कि मनुष्य सारे निर्णय विवेकपूर्ण और तर्कसंगत (rational) करता है। अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांत (rational choice theory) के अनुसार हर मनुष्य सीमित संसाधनों के बीच रहता है और अनेक विकल्पों में से वो विकल्प चुनता है जो उसकी उपयोगिता (utility) में सर्वाधिक वृद्धि करता है। यानी हर संभव विकल्प को न्यायसंगत तर्क की कसौटी पर परखने के बाद निर्णय लेता है। व्यक्तिगत स्तर से ऊपर समाज के स्तर पर यही निर्णय सामाजिक कल्याण की वृद्धि के लिए होता है। वर्षों से अर्थशास्त्र के अध्ययन का अर्थ ही रहा मनुष्य के हितों और सामाजिक कल्याण की वृद्धि करने वाले कारको का आदर्श आकलन (optimization)। संसाधनों का आदर्श वितरण (Pareto optimal) ये मानते हुए कि मनुष्य सारे फैसले अपना लाभ हानि सोचकर तर्कसंगत तरीके से करता है।
मनोवैज्ञानिकों ने मानव व्यवहार का अध्ययन करने के बाद अर्थशास्त्र के इस मूल सिद्धांत को नकार दिया। इस नए सिद्धांत के अनुसार मनुष्य पूर्व अनुभवों से बने अचेतन (cognitive heuristics) और अंतर्ज्ञान (intuition) से प्रभावित पक्षपातों से फैसले लेता है जो हमेशा न तो तर्कसंगत ही होते हैं न उनसे समाज कल्याण या स्वयं के हितों की वृद्धि ही होती है। इस सिद्धांत को मान्यता मिली १९७९ में डेनियल काहनेमैन और अमोस ट्वेरस्की के प्रॉस्पेक्ट थिओरी के प्रकाशन के बाद। जिसमें उन्होंने कहा कि हानि या हार का दुःख, लाभ और जीतने की ख़ुशी से ज्यादा होता है। दुःख सुख का उल्टा नहीं होता। इस सिद्धांत के अनुसार लाभ से होने वाले सुख का फलन अवतल होता है और हानि से होने वाले दुःख का उत्तल अर्थात हानि को हम बढ़ा कर देखते हैं। हानि से होने वाले दुःख उसी परिणाम में होने वाले फायदे से होने वाले सुख के उलटे से ज्यादा होता है। इस सिद्धांत का निष्कर्ष ये होता है कि निर्णय लेते समय हम लाभ से ज्यादा हानि को लेकर सचेत होते हैं – हमारी प्रकृति है हानि प्रतिकूल (loss aversion)। उपलब्ध विकल्पों में से हम उन्हें चुनते हैं जिसमें लाभ भले कम हो पर हानि होने के आसार ना हो।
प्रोफ़ेसर लाज्लो जॉलनाइ इस सिद्धांत के बारे में लिखते हैं कि मनुष्य की प्रवृत्ति है ‘हानि प्रतिकूल’ होना तो लाभ की वृद्धि की जगह हानि को कम (minimization of loss) करने की बात अर्थशास्त्र में होनी चाहिए। फिर हानि का अर्थ सिर्फ मौद्रिक ही तो नहीं है और न ही ये सिद्धांत सिर्फ मनुष्यों तक सीमित है। अगर इस बात को सार्वभौमिक तरीके से देखें तो फिर ये संसार के दुःख से पीड़ित होने और बुद्ध के दुःख के निवारण की बात प्रतीत होती है। इस दृष्टि से देखें तो अर्थशास्त्र की संकीर्णता को दूर करने वाले प्रॉस्पेक्ट थियोरी का सिद्धांत बुद्ध के दर्शन की विशेष स्थिति (special case) प्रतीत होता है। बात फिर वहीँ आ जाती है – खुश रहने का अर्थशास्त्र – माध्यमिक मार्ग। सुख की खोज के साथ इच्छा की कमी का ऑप्टिमिजेशन। ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ में प्रोफ़ेसर शूमाकर इसी बात को अलग तरीके से बौद्ध सिद्धांतों का उदहारण देते हुए कहते हुए कहते हैं कि हमने अब तक अर्थशास्त्र को समझा ही गलत है। सुख की खोज और बड़े लाभ की जगह समाज कल्याण के लिए लक्ष्य दुःख का निवारण होना चाहिए।
प्रॉस्पेक्ट थिओरी के सिद्धांत के बाद सिलसिला सा चल पड़ा संज्ञानात्मक पक्षपातों (cognitive biases) के अध्ययन का। यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि जितने नए सिद्धांत आये वो इसलिए आये की अर्थशास्त्र की शुरूआती अवधारणा ही गलत थी। जैसे जब ये अवधारणाएं थी कि धरती समतल है या सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है तब कई सिद्धांत थे पर जैसे ही ये अवधारणायें गलत साबित हुई हजारों नए सिद्धांत आते गए। अगर हम शुरू ही सही अवधारणाओं से करें तो ये नित नए आने वाले सिद्धांत ही अर्थहीन हैं। अर्थशास्त्र का नीति और मानव व्यवहार से साथ अध्ययन शुरू से हुआ होता तो ये अविष्कार अलग से पैबंद की तरह नहीं आते। व्यवहारिक अर्थशास्त्र के आलोचक ये भी कहते हैं कि गलत सिद्धांत को सही कर देने के लिए एक-एक कर सैकड़ों सिद्धांतों को देने की जगह एक नए सिरे से मानव व्यवहार को समझना बेहतर तरीका होगा।
इस नए विषय का सबसे प्रसिद्ध नाम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रोफ़ेसर डेनियल काहनेमैन। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’ के सार के रूप में वो कहते हैं- “हम अपने अंधेपन के बारे में अंधे होते हैं। हम अपनी अज्ञानता के बारे में अनभिज्ञ हैं। हमें इस बात के बारे में बहुत कम पता है कि हम कितना कम जानते हैं। हमें उसके लिए डिजाइन ही नहीं किया गया। अर्थात अक्सर हमें नहीं पता होता कि हम क्या कर रहे होते हैं।”
अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान में क्रांति लाने वाले शोध का ये सार आपको पहचाना नहीं लगता? सांख्य की त्रिगुणात्मक प्रकृति हो या भ्रम में डालती माया। अचेतन व्यवहार के सिद्धांतों की व्याख्या विकासवाद से तो जुड़ती है। विकासवाद से भ्रमित जल जा रहा पतंगा हो या भर्तृहरि का अज्ञान – अजानन्दाहात्भ्यं पततु शालभे दीपदहने स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडियुतमश्नातु पिशितम्। सनातन बोध में न सिर्फ इस अज्ञानता का वर्णन है इसके निवारण का भी वर्णन है। जहाँ आधुनिक अर्थशास्त्र इस अज्ञानता को समझ उसके दोहन की बात करता है वहीँ प्राचीन मनीषा ने इसके निवारण की बात की।
अगले अंक में चर्चा करेंगे प्रोफ़ेसर काहनेमैन के मनुष्य के सोचने के तरीके के सिद्धांत और कुछ संज्ञानात्मक पक्षपातों की।
ठीक इसी प्रकार जब हमारा दोस्त किसी दूसरे की अच्छाई बताता है। तब हम उसकी बात पर भरोसा नहीं करते हैं। दूसरे की अच्छाई को हमेशा संदेह की नज़रों से देखते हैं। और वहीं जब हमारा दोस्त किसी दूसरे की बुराई बताता है। तब हम उसकी बात पर फ़ौरन यकीन कर लेते हैं। जबकि इस बार हमने उस तीसरे व्यक्ति की बुराई को परखना तक ठीक नही समझा। हमने अपने उस दोस्त की बात मान ली। जिसके द्वारा बतलाई गई किसी दूसरे की अच्छाई को हम स्वीकार तक नहीं पाए थे।
क्योंकि हम लाभ से अधिक हानि के प्रति सचेत होते हैं।
सुन्दर वेबसाइट के लिये बधाई।
एक सुझाव है जो ये सम्पर्क और डिस्क्लेमर के दो बॉक्स ऊपर (हैडर एरिया में) लगे हैं, उन्हें साइडबार में कर दीजिये। साथ ही उनका साइज भी थोड़ा छोटा कर दिया जाय।
ePandit जी, आप जैसे मित्रों के सुझाव पाकर अत्यंत खुशी है। आगे भी समय-समय पर आशीर्वाद मिलता रहे ऐसी कामना है।