सांख्य दर्शन, सनातन सिद्धांतों का आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धांतों में प्रतिबिंबित होना हमारी अमूल्य भारतीय थाती की ओर बढ़ने को प्रेरित करता है।
सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5, 6, और 7 से आगे …
सांख्य और आधुनिक मानवीय व्यवहार के सिद्धांतों में समानता एक सरल रेखा-चित्र (attached) से समझते हैं। पिछले लेखांश में हमने देखा कि सांख्य के अनुसार मस्तिष्क का भौतिक हिस्सा प्रकृति के तीन गुणों से बना है जिससे व्यक्तित्व का निर्धारण भी होता है। इसके साथ ही मस्तिष्क के तीन प्रमुख हिस्से होते हैं मन, अहंकार और बुद्धि।
पश्चिमी मनोविज्ञान में अचेतन (consceousness) का सिद्धांत हमेशा किसी वस्तु के परिप्रेक्ष्य में होता है। पश्चिम में बिना किसी भौतिक वस्तु की सापेक्षता के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत लगभग नहीं के बराबर हैं। पर सांख्य दर्शन का सैद्धांतिक रूप पश्चिमी मनोविज्ञान की सीमा से परे जाता है। सांख्य का अचेतन अभौतिक है, भौतिक मस्तिष्क और प्रकृति के परे – चैतन्य – ट्रू सेल्फ़।
इस रेखा-चित्र में मस्तिष्क की प्रकृति के अलावा स्मृतियों और स्वभावों का संग्रह भी है जिसके तीन प्रमुख कार्यात्मक हिस्से हैं। मन इंद्रियों से बाह्य जगत की सूचनाओं का चयन और समावेश करने के साथ-साथ त्वरित रूप से निर्णय परावर्तित करता है, सहज-प्रज्ञा, इंट्यूशन। मन में भेद करने की क्षमता नहीं होती। इन्द्रियों के साथ-साथ मिल कर काम करने वाला मन मस्तिष्क का अँधा विभाग है। ‘गॉड टॉक्स विथ अर्जुन’ में महाभारत के पात्रों को प्रतीक के रूप में देखते हुए परमहंस योगनंद मन को धृतराष्ट्र से निरूपित करते हैं – Manas, Dhritarashtra, the blind Sense Mind.
अहंकार मन द्वारा दी गयी सूचनाओं को गृहीत कर उसे स्वयं से तुलना करता है। स्वयं से तुलना करने का व्यापक अर्थ अनुभवों का उपयोग भी हुआ। मन और अहंकार की सापेक्षतः त्वरित प्रतिक्रियाओं के बाद अंततः बुद्धि संभावित प्रतिक्रिया का निर्णय करती है। स्वभाव से बुद्धि प्रकृति का अचेतन रूप है उसके चेतन होने पर ही हम उसका उपयोग करते हैं। बुद्धि प्रकृति का सुषुप्त रूप है। पुरुष से संपर्क में आने पर बुद्धि पूर्ण सचेत होती है। अर्थात पुरुष के बिना निष्पक्ष और पूर्ण तार्किक संज्ञान सम्भव नहीं। सामान्यवस्था में बुद्धि पुरुष को बिना पूर्ण रूप से जाने प्रतिक्रिया देती है। इस संपूर्ण प्रणाली से हम संसार का आत्मगत अनुभव करते हैं और स्थिति विशेष में प्रतिक्रिया भी इसी प्रणाली से देते हैं। परमहंस योगनंद बुद्धि के प्रतीक पाण्डु के लिए लिखते हैं- buddhi, the pure discriminating intelligence. भेदभाव करने में सक्षम, आलसी। अंधकार से घिरी पर सही गलत में भेद और आलस्य से निकल निर्णय लेने में सक्षम। मस्तिष्क का सक्रिय करने योग्य हिस्सा।
यहाँ ध्यान देने की बात है कि मन जिन सूचनाओं का उपयोग करता है उनका इंद्रियों से होकर आना ज़रूरी नहीं है। ना ही सारी प्रतिक्रियाएँ बुद्धि से ही आती है। प्रतिक्रियाएँ स्मृति से भी आ सकती हैं, अनुभवों और पूर्व कर्मों से भी। जैसे हम जब कोई वस्तु देखते हैं तो इंद्रियाँ उसके रंग, रूप, आकार-प्रकार को मन तक प्रेषित करती हैं। जैसे सामने रखे फोन को देखने का काम इंद्रियाँ करती है। मन त्वरित प्रतिक्रिया देता है और ज़रूरी सूचना अहम् को प्रेषित करता है। अहं आत्मरूप से वस्तु को देखता है – ‘मैं यह वस्तु (फोन) देख रहा हूँ।’ यहाँ वस्तु हमारे स्वयं के अनुभव मात्र का रूप है। बुद्धि उसे वस्तुनिष्ठ रूप में देखती है ‘यह फ़ोन है, इसके फीचर्स क्या है। रूप, रंग, गुण, उपयोग इत्यादि’, और पुरुष से सम्पर्क होने पर हम माया और भ्रम से परे उसका सत्य देख पाते हैं।
सांख्य से प्रेरित इस प्रतिरूप में आधुनिक व्यावहारिक मनोविज्ञान के सिद्धांतों की प्रणाली १ और प्रणाली २ का बोध मिलता है। इसे समझने के लिए सिर्फ़ एक साथ दोनों सिद्धांतों को पढ़ने की ज़रूरत है। आधुनिक व्यवहारिक मनोविज्ञान अध्ययन है अनुभूति और सहज ज्ञान से उपजने वाले पक्षपातों के सैकड़ों उदाहरणों का। अर्थात उन प्रतिक्रियाओं और मानसिक स्थितियों का अध्ययन जो हम बिना ध्यान पूर्वक विचार किए दे देते हैं।
आधुनिक व्यवहारिक सिद्धांतों का परिचय ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’ पुस्तक में कुछ इस तरह प्रस्तुत किया गया है – हमारा मस्तिष्क दो तरह की प्रणालियों से बना हुआ है। पहली त्वरित सोचने की प्रणाली (प्रणाली १) और दूसरी मंद (प्रणाली २)। प्रणाली १ स्वतः काम करती है, सहज ज्ञान से, बिना किसी प्रयास के। जैसे हमसे कोई हमारी आयु पूछे तो हम बिना किसी प्रणाली १ से ही उत्तर दे देते हैं। प्रणाली २ समय लेती है मंद गति से विचारकर काम करती है। जैसे हमें कोई कठिन गणना करनी हो तब। इन दोनों प्रणालियों में मतभेद भी होता है। प्रणाली १ पक्षपातों से घिरी काम करती है जो हमेशा सही नहीं होता। प्रणाली २ में प्रयास लगता है और हमारी प्रवृत्ति आलसी होने के कारण हम अक्सर उसका इस्तेमाल नहीं करते।
सांख्य की सरल मनोवैज्ञानिक व्याख्या और इस आधुनिक सिद्धांत में कितना अंतर है? प्रणाली १ – फ़ास्ट – मन। प्रणाली २ – स्लो – विचारकर- आलस्य से घिरी – बुद्धि। ये बात उदाहरणों से और स्पष्ट होगी। आधुनिक व्यावहारिक मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र पढ़ने का लक्ष्य है ऐसी ग़लतियों को समझना। (वैसे एक प्रयोग में ये भी पता चला की विशेषज्ञ भी पक्षपातों के परे नहीं होते और वो सबकुछ जानते हुए भी स्वयं व्यावहारिक पक्षपात करते हैं – धृतराष्ट्रीय। आधुनिक मनोविज्ञान इसे मानव स्वभाव स्वीकार कर इसके लिए कोई सटीक हल नहीं सुझाता।)
आधुनिक मनोविज्ञान को बेहतर समझने और इसके उदाहरणों को देखने के पहले सांख्य दर्शन की ओर एक बार और लौटते हैं। और सिद्धांत के तुलनात्मक अध्ययन की प्रेरणा की एक झलक देखते हैं। गीता के द्वितीय अध्याय में भगवान अर्जुन को तीनों गुणों और द्वंद्व से मुक्त होने को कहते हैं-
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्। निर्द्वन्द्व।
विवेक बुद्धि से परे त्रैगुण्यविषयों से मुक्त। इन्द्रियों, मन और बुद्धि पर वो कहते हैं – इन्द्रियों से परे मन, मन से परे बुद्धि-
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।
भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान (विवेक) के वैसे ही ढके होने की बात करते हैं जैसे-
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च। यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।
साथ ही मस्तिष्क, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि (जहाँ तक पश्चिमी मनोविज्ञान का कार्यक्षेत्र है) से परे ‘इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।’ की बात करते हैं। यहाँ एक और ध्यान देने की बात है कि गीता में भगवान् इस विवेक के आच्छादित होने पर समर्पण करने को नहीं कहते। बल्कि वो एक एक तरह से अर्जुन के सामने तथ्यों को रख मानसिक यांत्रिकी समझाते हैं-
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।
नीर क्षीर विवेकी होने सी की गति प्राप्त होने को कहते हैं। मस्तिष्क के इस रेखा चित्र से परे – यथा दीपो निवातस्थो।
आधुनिक मनोविज्ञान के साथ इन दर्शनों का यहाँ वर्णन करने का लक्ष्य है दोनों में दिखने वाली समानता को समझना। सनातन सिद्धांतों का आधुनिक सिद्धांतों में प्रतिबिंबित होना। ‘थिंकिंग फ़ास्ट एंड स्लो’ आधुनिक समय की सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली पुस्तकों में से एक है। सरल और अद्भुत। पर इसमें वर्णित कई सिद्धांतों की झलक उसी अद्भुत रूप से सांख्य के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में मिलती है। अगर पुराणों में वर्णित चरित्रों के मनोवैज्ञानिक (जैसे धृतराष्ट्र, पाण्डु, ययाति, देवयानी, कर्ण इत्यादि) निरूपण पर सोचें तब भी कई तथ्यों की झलक मिलती है। पर अभी चर्चा करेंगे आधुनिक मनोविज्ञान के कुछ रोचक तथ्यों की। उस चर्चा के पहले इस लेखांश में इस सनातन मानसिक संरचना के वर्णन का लक्ष्य है ये देखना कि कैसे आधुनिक सिद्धांत इस संरचना की विशेषावस्था प्रतीत होते हैं।