हिंदी नाम: गंगा मैना, बराद मैना, चही दरिया मैना, गंग सलिक, गंगा सारिका (संस्कृत)
वैज्ञानिक नाम: Acredotheres Ginginianus
Kingdom: Animalia
Phylum: Chordata
Class: Aves
Order: Passeriformes
Family: Sturnidae
Genus: Acedotheres
Species: Ginginianus
Category: Perching birds
Wildlife schedule: IV
Population: Increasing
Visibility: Common
आकार: 18-20 सेमी.
प्रवास स्थिति: Resident, निवासी, स्थानीय प्रवास कभी कभी।
भोजन: अनाज के दाने, कीड़े-मकोड़े,आदमियों द्वारा छोड़े गए भोजन और फल।
आवास: नदी या अन्य पानी के श्रोतों के पास, बाज़ार, रेलवे स्टेशन, मानव आबादी के नजदीक।
नर-मादा (Sexes): Alike, नर और मादा एक जैसे।
वितरण: भारत में गंगा के मैदानी भागों से लेकर हिमालय के तराई क्षेत्र तक, उत्तर तथा मध्य भारत में, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश।
रंग–रूप: नर मादा दोनों का रंग लगभग एक जैसा, सिर की चोटी तथा कनपटी गहरे काले रंग की, ऊपरी पंख सिलेटी भूरा, नीचे के पंख पर हल्का भूरा, पंख का रंग काला, चोंच और आंख के पास का रंग ईंट के रंग जैसा लाल, पैर पीले, आंख की पुतली गहरे लाल रंग की, पूंछ के बाहरी पंखों का रंग गुलाबी पीला चमड़े के रंग का, बच्चों का रंग भूरा।
प्रजनन काल तथा घोंसला: मई से अगस्त तक।
ये अपना घोंसला नदी के ऊंची कगारों, दीवारों, खुले कुवों की दीवारों पर बनाते हैं। आजकल राष्ट्रीय राजमार्गों पर पुलों के छिद्रों में भी इनके घोंसले दिखाई देते हैं। कभी कभी इनके घोंसलों की गहराई ४-७ फ़ुट अन्दर तक भी हो सकती है। घोंसले की बिछावन घास के तिनके, पंख आदि हो सकते हैं। अण्डों का रंग बिलकुल पीला, आसमानी नीला या हरा नीला, एक मौसम में ये २ बार तक अंडे दे सकते हैं। १३-१४ दिन में अंडे से बच्चे निकल आते हैं।
लेखक: आजाद सिंह |
@अजय त्यागी,
@ajadsingh
हमारे यहां भी इसे घुरसली/गुरसली कहते हैं। हलाङ्की हमारे यहां (शेखावाटी अञ्चल, राजस्थान) ये बहुत आम चिडिया है।
Thnks Mr Azadji,
A valuable info from a ornithologist like you about the world of birds!
It is very difficult to watch the birds as photographed by Mr Azad Singh here in Mumbai. We are lucky to have a ornithologist like him as a friend who everyday gives valuable info about birds.
Thnks Azadji!
हम तो इसे गुरसल कहते हैं। ाजकल न के बराबर ही दिखाई पड़ती है। बहुत दिनों बाद अभी तीन-चार दिन पहले ही एक जोड़ा मात्र चंद पलों के लिए हमारी बालकनी में आया था। लेकिन उनके व्यवहार में वो गाँव वाली निश्चिंतता नजर नहीं आई जो कभी चौके में खाना बनाती या सुबह-सुबह हाँडे में दही मथती माँ के सर या कंधे पर आ बैठते हुए दिखाई पड़ा करती थी! होती भी कैसे….कहाँ एक भटकता पथिक और दो पल के बसेरे और कहाँ उम्र भर के संग साँझ-सवेरे!!!