‘शून्य’ की प्रथम स्पष्ट गणितीय परिभाषा ब्रह्मगुप्त (628 ई.) के ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में मिलती है। यह वह युग था जब अंकगणित, बीजगणित और ज्यामिति वेदांग ज्योतिष से अलग गणित के रूप में लगभग स्वतंत्र पहचान बना चुके थे। आर्यभटीय ज्योतिष का पहला ग्रन्थ है जिसमें गणित के लिए एक स्वतंत्र अध्याय है। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त गणित की एक कालजयी रचना है। इस पुस्तक में गणित के कई सिद्धांत हैं और इसके अरबी अनुवाद ने विश्व में गणित को एक नयी दिशा दी. उस युग की परंपरा के अनुसार गणित की पुस्तक होते हुए भी यह पूरी तरह काव्य रूप में थी। कुट्टकाध्यायः (बीजगणित) नामक अठारहवें अध्याय में शून्य से जुडी छः प्रक्रियाओं का उल्लेख है:
धनयोर्धनमृणमृणयोर्धनर्णयोरन्तरं समैक्यं खम्। ऋणमैक्यं च घनमृणधनशून्ययोः शून्ययोः शून्यम्॥
ऊनमधिकात्विशोध्यं धनं धनातृणमृणातधिकमूनात्। व्यस्तं तद्-अन्तरं स्यातृणं धनं धनमृणं भवति॥
शून्य-विहीनमृणमृणं धनं धनं भवति शून्यमाकाशम्। शोध्यं यदा धनमृणातृणं धनात्वा तदा क्षेप्यम्॥
ऋणमृणधनयोर्घातो धनमृणयोर्धनवधो धनं भवति। शून्यर्णयो: खधनयो: खशून्ययोर्वा वध: शून्यम्॥
धनभक्तं धनमृणहृतमृणं धनं भवति खम् खभक्तम् खम्। भक्तमृणेन धनमृणं धनेन हृतमृणमृणं भवति॥
खोद्धृतमृणं धनं वा तच्छेदम् खमृणधनविभक्तं वा। ऋणधनयोर्वर्ग: स्वम् खम् खस्य पदं कृतिर्यत् तत्॥
अर्थात समान धनात्मक और ऋणात्मक संख्याओं का योग शून्य होता है। (यहाँ खम्, शून्य और आकाश तीनों शब्दों का ब्रह्मगुप्त ने प्रयोग किया)। ऋणात्मक संख्या का शून्य से योग ऋणात्मक होता है। शून्य और धनात्मक का योग धनात्मक होता है। दो शून्य का योग शून्य ही होता है। ऋणात्मक संख्या को शून्य से घटाया जाय तो वह धनात्मक हो जाती है और धनात्मक संख्या को शून्य से घटाने पर ऋणात्मक। यदि ऋणात्मक संख्या में से शून्य घटाया जाय तो वह ऋणात्मक ही रहती है। उसी प्रकार धनात्मक संख्या में से शून्य घटा देने से वह धनात्मक ही रहती है। शून्य में से शून्य घटा देने से शून्य ही बचता है। शून्य का धनात्मक संख्या, ऋणात्मक और शून्य सबसे गुणनफल शून्य ही होता है। शून्य को शून्य से भाग देने पर शून्य बचता है। किसी भी ऋणात्मक या धनात्मक संख्या को शून्य से भाग देने पर तच्छेद।
यहाँ शून्य को शून्य से भाग देने पर शून्य बचने और शून्य के विभाजन के तच्छेद होने की बात को छोड़कर आज भी शून्य वैसे का वैसा ही है। ब्रह्मगुप्त की परिभाषा आधुनिक गणितीय परिभाषा है। 0/0 की परिकल्पना तो ब्रह्मगुप्त ने की परन्तु उसकी सही व्याख्या उन्होंने नहीं की, उन्होंने इसे भी शून्य ही कहा। इसी तरह शून्य से विभाजन को उन्होंने तच्छेद नाम दिया पर इसकी प्रकृति के बारे में कुछ नहीं कहा, यह शून्य से विभाजित एक अपरिभाषित भिन्न ही रहा। इन सीमाओं से इस बात की महत्ता कम नहीं होती कि यह ऋणात्मक संख्याओं और शून्य का विश्व में पहला स्पष्ट गणितीय विश्लेषण है।
इस सिद्धांत की जड़ स्थानीय मान पद्धति, आर्यभट की अक्षरांक पद्धति और भास्कर प्रथम के आर्यभटीय की व्याख्या में वर्णित दाशमिक प्रणाली में मिलती है। आर्यभट ने शून्य का उल्लेख इस रूप में तो नहीं किया और न ही उन्होंने शून्य को परिभाषित किया परंतु उनके कार्यों में उन्हें शून्य के ज्ञान होने की झलक दिखती है। आर्यभट की अक्षरांक पद्धति में उनकी अद्भुत विलक्षणता दिखती है। आर्यभट की शैली और प्रतिभा की बात करने पर हम शून्य की बात से भटक जायेंगे। गीतिकापाद के मात्र 13 श्लोकों में अपनी अद्वितीय शैली से आर्यभट ने इतना कुछ लिख दिया कि उस पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है। आर्यभट ने अंकों के लिए ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया, ना ही पद्य रूप में चली आ रही शब्द परंपरा का। उन्होंने अक्षरों में अंको को लिखने की स्वनिर्मित पद्धति अपनायी जो अद्भुत और अद्वितीय है। श्रुति की परंपरा से सोचें तो गणित को श्लोकों में लिखना और कम से कम श्लोकों में अधिक से अधिक ज्ञान लिख देना परंपरा थी। आर्यभट का कार्य लघुता और कूट भाषा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। आर्यभट की अक्षरांक पद्धति व्यवहार की दृष्टि से अत्यंत कठिन प्रतीत होती है पर उसकी विलक्षणता अद्वितीय है। व्यवहार की दृष्टि से कठिन इसलिये क्योंकि उसे समझना सरल नहीं है। अक्षरों से बने अंकों का उच्चारण सरल नहीं, कूट भाषा है। अंक में एक मात्रा के हेर फेर से भी अंकों के मान में भारी परिवर्तन हो जाता है। उनकी पद्धति यह है:
वर्गाक्षराणि वर्गे अवर्गे अवर्गाक्षराणि कात्ङ्मौ य:। ख द्विनवके स्वरा: नव वर्गे अवर्गे नवान्त्य-वर्गे वा॥
स्वरों से इकाई, दहाई आदि स्थान का परिचायक (अ = 1, इ = 100, उ= 10,000, ऋ = 1,000,000 …. औ = 1016) और क से म तक व्यंजनों से क्रमशः 1 से 25 अर्थात क = 1, ख = 2, ग = 3…. म = 25. उसके आगे य = 30, र = 40, ल = 50, … ह = 100.
युग गणना में प्रसिद्ध आर्यभटीय अक्षरांक ख्युघृ का कूटानुवाद आज के अंकों में कुछ यूँ है:
ख्युघृ = 4,320,000
खु = 2×10000 = 20,000
यु = 30 x 10000 = 300,000
घृ = 4 x 1000000 = 4,000,000
योग = 4,320,000
एक दूसरी प्रसिद्द संख्या ङिशिबुणॢख्षृ = 1,58,22,37,500
ङि = 5×100 = 500
शि = 70×100 = 7,000
बु = 23×10000 = 2,30,000
णॢ = 15×108 = 1,50,00,00,000
ख्षृ= (2+80)x106 = 8,20,00,000
योग = 1,58,22,37,500
शून्य का स्पष्ट उल्लेख आर्यभट ने नहीं किया परन्तु उनके यहाँ अंको के स्थानीय मान और दस के घात के वर्णन कुछ यूँ है कि शून्य का वर्णन नहीं होते हुए भी वह पद्धति में अन्तर्निहित है। इसी पुस्तक के गणितपाद प्रकरण में आर्यभट संख्या स्थानों के वर्णन में ‘स्थानात् स्थानं दशगुणम् स्यात्’ लिखते हैं। दर्शन, व्याकरण, अक्षरांक पद्धति से लेकर ब्रह्मगुप्त की स्पष्ट गणितीय परिभाषा तक धीरे धीरे शून्य अपना रूप लेता गया – क्रमिक विकास। खाली स्थान लिखने की परंपरा से एक खाली अंक होता हुआ अन्ततः सभी अंको का स्थान निर्धारित करने वाला अंक – अंको का सिरमौर! शून्य का वर्तमान लिखित रूप कब आया वह भी महत्त्वपूर्ण है। शून्य के वर्तमान रूप ‘0’ के पहले लिखित सन्दर्भ ग्वालियर और अंकोरवाट में मिलते हैं। पर शून्य की परिकल्पना का विकास उससे अधिक मायने रखता है। लिखित रूप ‘0’ के पहले प्रमाण से बहुत पहले से शून्य था।
ब्रह्मगुप्त की शून्य से विभाजन की सीमाओं के साथ शून्य का यह रूप गणित में अगले 500 वर्षों तक चला। 830-850 ई. में महावीर ने ‘गणित सार संग्रह’ की रचना की जो कि ब्रह्मगुप्त के गणित का ही परिष्कृत रूप था। इसमें वह शून्य के बारे में लिखते हैं कि किसी भी संख्या को शून्य से गुणा करने पर वह शून्य हो जाती है, शून्य को जोड़ने, घटाने या उससे भाग देने पर संख्या अपरिवर्तित रहती है। गणित की इस प्रसिद्ध पुस्तक में भी शून्य से विभाजन को महावीर ने सही परिभाषित नहीं किया। ब्रह्मगुप्त के लगभग 500 वर्ष पश्चात भास्कर द्वितीय ने 1114 ई में शून्य से विभाजन की नये सिरे से व्याख्या की।
अगले अंको में : भास्कर के शून्य से विभाजन की परिभाषा। अनंत के सिद्धांत का प्रतिपादन। |
लेखक: अभिषेक ओझा
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर से
गणित और संगणना में समेकित निष्णात। न्यूयॉर्क में एक निवेश बैंक में कार्यरत। जिज्ञासु यायावर। गणित, विज्ञान, साहित्य और मानव व्यवहार में रूचि। ब्लॉग:http://uwaach.aojha.in ट्विटर: @aojha |