गुरु पूर्णिमा विशेष - आमुख

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा चरैवेति चरैवेति

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा चरैवेति चरैवेति। अतीत की स्मृतियाँ किसे व्यथित नहीं करतीं? कौन है जो नेत्र मूँदे भावी से अनभिज्ञ निज दायित्वों से भागता फिरता है? वह कुछ भी हो, कालयात्री तो नहीं हो सकता। आदर्शों के इस विशाल मेरु ने आपको भी एक दायित्व सौंपा है। मेरी गति तो कहीं नहीं से उबरें! उन वाक्यों, कथनों का स्मरण करें जिससे कालयात्री ने क्षण-प्रतिक्षण आपको अभिसिंचित किया था। देवायतनों से उठते स्वर व बलाघात को गुनें। साथ ही उस अदम्य साहस को प्रणाम करें जिसने नितान्त अन्धकूप में भी ‘धूप’ का स्पर्श पाया।

अरण्यानी देवता – ऋग्वेद Araṇyānī Devatā – Ṛgveda 10.146

गिरा दिया वृक्ष किसी ने हाँक पार रहा कोई गैया
उतरी साँझ में वनबटोही समझ रहा चीख किसी की!
वनदेवी कभी न हनती जब तक न आये अरि हत्यातुर
खा कर सुगन्धित इच्छित फल जन लेते विश्राम ठहर।

श्री भगवान सिंह से बातचीत – 1 : ऋग्वेद

श्री भगवान सिंह ‘मघा’ के इस अंक से हम एक नयी शृंखला आरम्भ कर रहे हैं जिसमें विविध विषयों पर विद्वानों से बातचीत और साक्षात्कार प्रस्तुत किये जायेंगे। श्रीगणेश के लिये भारत की सबसे प्राचीन थाती ‘ऋग्वेद’ से अधिक उपयुक्त कौन सा विषय हो सकता है और ऋग्वेद पर बातचीत के लिये स्वनामधन्य श्री भगवान…

सम्वत्सर और पञ्चाङ्ग – 1

ऋत को जीवन में उतारने को उद्यत कवि की ऋचा ने एक विराट रूपक का आकार ले लिया जिसमें सात सवारियाँ थीं, सप्त नाम का अश्व जिसे खींचता, रथ ऐसा था कि उसमें बस एक चक्का था जब कि तीन धुरियाँ थीं। वह चक्का न ढीला पड़ता और न नष्ट होता जब कि रथ में विश्व भुवन स्थित थे!