आकाओं के कान नहीं, हमारे हाथ पाँव नहीं! प्रतिरोध हो भी तो कैसे?

आकाओं के कान नहीं, हमारे हाथ पाँव नहीं! प्रतिरोध हो भी तो कैसे?

निर्माण में समय लगता है, ध्वंस में नहीं। निर्माण में नहीं लगेंगे तो एक दिन ध्वस्त हो ही जायेंगे – यह सार्वकालिक व सार्वभौमिक सच है। हमें अपनी ‘सचाइयों’ में आमूल-चूल परिवर्तन करने ही होंगे, और कोई उपाय नहीं। ट्विटर या फेसबुक पर रुदाली गाना तो किसी भी दृष्टि से विकल्प नहीं, आकाओं के कान हैं ही नहीं!

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दिल्ली जिहाद उदाहरण है कि कैसे इस्लाम येन केन प्रकारेण अपने लिये जमीन छीनता है। जिहादी हिंसा से ग्रस्त दिल्ली के उत्तरी पूर्वी भागों में से कुछ से महीनों या एकाध वर्षों में हिंदुओं का पलायन पूर्ण हो जायेगा जो कि टुकड़ा टुकड़ा कर दारुल इस्लाम पा लेने की दिशा में एक लघु किंतु बहुत ही प्रभावी इस्लामी उपलब्धि होगी।

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समझना हो तो संविधान व कुरान को साथ-साथ देखें। सत्य उद्घाटित होगा। आश्चर्य नहीं कि जहाँ आक्रांता कुरान को आगे रखते हैं, वहीं उनके आंदोलनकारी हरावल दस्ते संविधान को। इस तिलस्म को न तो समझा गया है और न ही इसकी तोड़ हेतु कुछ किया गया है या किया जा रहा है।