भरतस्य शपथाः (द्वितीयः भागः)

भरतस्य शपथाः (द्वितीयः भागः)

भरतस्य शपथाः (द्वितीयः भागः)।
वाल्मीकीये रामायणे भरतः श्रीरामस्य वनगमने तस्य लेशमात्रोऽपि प्रयत्नः नास्ति इति माता कौसल्यां प्रति विश्वास्यति । तदा भरतः सौगन्धरूपेण बहूनि अकर्तव्यानि पातकानि च वदति यथा — यस्य कारणाद् आर्यः श्रीरामः वनं गतः सः एतत्पापफलं प्राप्नोति, पूर्वभागतः अग्रे वयं पश्यामः।

भरतस्य शपथाः (प्रथमः भागः)

भरतस्य शपथाः (प्रथमः भागः)

वाल्मीकीये रामायणे बहुषु स्थानेषु तत्समये किम्कर्तव्यम किमकर्तव्यम् इति शिक्षा मिलति, परस्पर द्वयोः जनयोः सम्वाद रूपे लेखकस्य स्वगतविचारे वा । यथा अयोध्याकाण्डे श्रीरामः पितुः वचनानुसारेण स्वराज्याभिषेकं त्यक्त्वा सीतालक्ष्मणौ सह वनं प्रति गच्छति । भरतः कैकय राज्यात् अयोध्यायां आगमने महाराज दशरथस्य देहान्तं श्रीरामस्य वनगमनं च शृणोति स्म । सः कैकय्याः दुष्कृत्याय जननीं कुत्सयति स्वाक्रोशं च प्रदर्शयति

सा प्रकाश्या सदा बुधैः। इन्द्रवज्रा। उपेन्द्रवज्रा।

सा प्रकाश्या सदा बुधैः

इन्द्र तथा उपेन्द्र ने परस्पर मिल कर जाने कितनी लीलायें रचीं हैं, न जाने कितने काण्ड लिखे हैं। न जाने कितने आख्यान हैं दोनों के, जिनमें इनके परस्पर सहयोग से देवजाति तथा सम्पूर्ण सृष्टि एवं मानवता का कल्याण हुआ। इतना अवश्य है, कि इन्द्र इन्द्र ही रहे, किन्तु उपेन्द्र ने अनगिन रूप धारे।

मयूरभट्ट तथा उसके मयूराष्टक

मयूरभट्ट व उसके मयूराष्टक का ललित अनुशीलन

यह मयूरभट्ट था कौन? वामहस्त-प्रशस्ति के रूप में इसका परिचय मात्र इतना प्राप्त होता है कि यह बाणभट्ट का श्यालक था, हर्षवर्धन की राज्यसभा में था तथा इसकी बाण से कुछ प्रतिद्वन्द्विता थी। इतिहास जहाँ पर तथ्यों को अङ्कित करने में अपने पृष्ठ मूँद लेता है, वहाँ तथ्यों को सँजोने का कार्य लोक-जिह्वा करती है। किन्तु लोक की संचय-रीति तथ्यात्मक नहीं होती, वह कथात्मक हो जाती है। अतः लोक में प्रचलित मयूरभट्ट के सम्बन्ध में एक कथा है किन्तु उस कथा के पूर्व एक उपकथा भी है।

ममता और निर्ममता

ममता और निर्ममता : शब्द – ७

ममता और निर्ममता- ममता (मम+तल्+टाप्)। तल्+टाप् से बनने वाले शब्द सदा स्त्रीलिंग होते हैं। जहाँ मम अर्थात् स्वकीय भाव का अभाव हो – निर्मम। भारतीय आन्वीक्षिकी में राजपुरुषों, धर्मस्थों आदि हेतु निर्ममता को एक आदर्श की भाँति लिया गया है। समय के साथ शब्दों के अर्थ रूढ़ होते जाते हैं। निर्मम शब्द का अर्थ अब बहुधा नकारात्मक रूप में लिया जाता है, क्रूरता से, बिना किसी करुणा आदि के किया गया अवांंछित कर्म निर्मम कह दिया जाता है।

श्राद्ध और सम्बन्धी

श्राद्ध और सम्बन्धी

श्राद्ध और सम्बन्धी – हम पितरों को कृष्णतिल एवं पयमिश्रितजल अर्पण करते हैं। एक गृहस्थ द्वारा षोडश दिवसपर्यन्त नित्य तर्पण किया जाना चाहिए।

अर्थ की गति : श्रीधर जोशी

अर्थ की गति

शब्द यदि शिव है, तो अर्थ ही उसकी शक्ति है। निरर्थक शब्द अप्रयुक्त माने जाते हैं, साथ ही अर्थज्ञान से रहित को यास्क ने ठूँठ कहा है। यास्क कहते हैं,कि जैसै बिना ईंधन के अग्नि नहीं जल पाती है, उसी प्रकार अर्थज्ञान के विना शब्द प्रयोग व्यर्थ है

संस्कृत संस्कृति संस्कार

संस्कृत संस्कृति संस्कार : शब्द – ६

आज श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को सभी संस्कृतप्रेमी संस्कृत-दिवस का आयोजन कर रहे हैं। कहा गया है- “संस्कृति: संस्कृताश्रिता” अर्थात् ‌ भारत की संस्कृति संस्कृत भाषा पर ही आश्रित या निर्भर है।

बीसा यन्त्रम् Beesa Yantram

लिङ्ग liṅga : शब्द – ५

लिंग के निम्न अर्थ प्राप्त हैं— चिह्न, लक्षण, प्रतीक, परिचायक। प्रमाण के साधन। स्त्री/पुरुष वाची शब्द। देव-प्रतीक प्रतिमा नहीं प्रतीक है।

प्रागैतिहासिक : शब्द – ४

प्राक्+ इतिहास में क् के बाद इ आने पर क् अपने तृतीय ग् में परिवर्तित हो गया। इस तरह यह प्राग् बना। इतिहास में ठक् प्रत्यय होने से इ ऐ में परिवर्तित हो गया और बना ऐतिहासिक। प्राग्+ ऐतिहासिक = प्रागैतिहासिक ।

कृष्ण सङ्कर्षण कृषि

कृष्ण सङ्कर्षण कृषि : शब्द – ३

कृष्ण सङ्कर्षण कृषि – सङ्कर्षण – सम्यक् कृष्यते इति सङ्कर्षण। नीलाम्बरो रौहिणेयस्तालाङ्को मुसली हली। सङ्कर्षणो सीरपाणि: कालिन्दीभेदनो बल: ॥

किंकर्तव्यविमूढ

किंकर्तव्यविमूढ़ – क्या करे, क्या न करे? : शब्द – २

“सावित्री के तर्क सुनकर धर्मराज किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए” । इस वाक्य में एक शब्द है -किंकर्तव्यविमूढ। यह एक शब्द न हो कर तीन शब्दों का समूह है

संस्कृत आओ करके सीखें

संस्कृत आओ करके सीखें – सेकुलरिज्म नामी रुग्णता ने इसे कोढ़ में खाज बना दिया और लोग संस्कृत के विरुद्ध भी होने लगे।पहले संस्कृत कैसे सीखते थे?

आचार्यशङ्करस्य जन्मवृत्तान्त:

आचार्यश्रीशङ्करभगवत्पादस्य जन्मस्थान-जन्मसमयादिविषये मतवैभिन्न्यं दृश्यते । चतुर्दशशतके विरचितं माधवीयशङ्करविचयम्, पञ्चदशशतके प्रणीतं चिद्विलासीयशङ्करविजयम्, सप्तदशशतके विरचितं केरलीयशङ्करविजयमिति ग्रन्थत्रयं श्रीशङ्कराचार्यस्य जीवनचरित्रं विवृणोति ।

Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि या हल्‌ संंधि – १ : सरल संस्कृत – ९

Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि – संस्कृत में प्रत्ययों के अतिरिक्त मूल भी होते हैं। किसी भी शब्द का विच्छेद करते हुये उसके मूल तक पहुँचा जा सकता है। मूल क्रिया आधारित हों अर्थात उनमें किसी कुछ करने का बोध हो तो वे धातु कहलाते हैं यथा युज्‌ जो जोड़ने के अर्थ में है जिससे योक्त, युक्त, योक्ता जैसे शब्द बने हैं।

Maheshvara Sutra Shiva Sutra Panini पाणिनीय माहेश्वर सूत्र : सरल संस्कृत – ८

Maheshvara Sutra Shiva Sutra Panini पाणिनीय माहेश्वर सूत्र किसी सूत्र के एक वर्ण से आरम्भ हो आगे के किसी सूत्र के ‘इत्‌’ या ‘अनुबन्‍ध’ तक के बीच के समस्त वर्णों को संक्षिप्त रूप में दर्शाते हैं। स्पष्टत: इनमें ‘इत्‌’ वर्ण नहीं लिये जाते। इन्हें प्रत्याहार कहते हैं।

अघोष घोष विसर्ग‍ संधि (अनुवर्ती व्यञ्जन) : सरल संस्कृत – ७

सघोष को केवल घोष भी कहा जाता है। नाम से ही स्पष्ट है कि जिन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वा‍क् तंतु में कम्पन न हो वे अघोष कहलाते हैं, जिनके उच्चारण में कम्पन हो वे सघोष या घोष कहलाते हैं।

Sandhi संधि — भूमिका व विसर्ग‍ संधि (स्वर‍ एवं अर्द्धस्वर) : सरल संस्कृत – ६

संधि को आप समझौते से समझ सकते हैं जिसमें दो पक्ष एकत्रित होते हैं, कुछ निश्चित मान्यताओं के अनुसार एक दूसरे को स्वीकार कर संयुक्त होते हैं तथा इस प्रक्रिया में दोनों के रूप परिवर्तित हो एक भिन्न रूप में एकीकृत हो जाते हैं।

सौत्रामणियागस्य स्वरूपम्

मनुना प्रोक्तं यत् वेदाः अस्माकं पथप्रदर्शकाः जीवनविद्यायिकाः एकमात्रं शरणाश्च सन्ति । वेदाः एव धर्मस्य प्रतिपादकाः । वस्तुतस्तु सर्वेषां धर्माणां मूलं वेदाः ।

विसर्ग अनुनासिक अनुस्वार – श्वास एवं प्राणायाम : सरल संस्कृत – ५

संस्कृत भाषा का एक गुण इसका प्राणायाम से सम्बन्धित होना है। प्राण श्वास है। उच्चारण करते समय विसर्ग (:) की ह् समान ध्वनि साँस अर्थात प्राण से जुड़ती है।