अरण्यानी
ऋग्वेद का उषा सूक्त विश्वप्रसिद्ध है लेकिन इस तथ्य को बहुत कम रेखांकित किया गया है कि वनदेवी अरण्यानी देवता के लिये भी उतनी ही सुन्दर ऋचायें गायी गयी हैं। दसवें मंडल के 146 वें सूक्त की 6 ऋचाओं की कविता ऋतुवर्णनों सा सरल सौन्दर्य लिये हुये है।
अर॑ण्या॒न्यर॑ण्यान्य॒सौ या प्रेव॒ नश्य॑सि। क॒था ग्रामं॒ न पृ॑च्छसि॒ न त्वा॒ भीरि॑व विन्दती३ँ॥
वृ॒षा॒र॒वाय॒ वद॑ते॒ यदु॒पाव॑ति चिच्चि॒कः । आ॒घा॒टिभि॑रिव धा॒वय॑न्नरण्या॒निर्म॑हीयते ॥
उ॒त गाव॑ इवादन्त्यु॒त वेश्मे॑व दृश्यते । उ॒तो अ॑रण्या॒निः सा॒यं श॑क॒टीरि॑व सर्जति ॥
गाम॒ङ्गैष आ ह्व॑यति॒ दार्व॒ङ्गैषो अपा॑वधीत् । वस॑न्नरण्या॒न्यां सा॒यमक्रु॑क्ष॒दिति॑ मन्यते ॥
न वा अ॑रण्या॒निर्ह॑न्त्य॒न्यश्चेन्नाभि॒गच्छ॑ति । स्वा॒दोः फल॑स्य ज॒ग्ध्वाय॑ यथा॒कामं॒ नि प॑द्यते ॥
आञ्ज॑नगन्धिं सुर॒भिं ब॑ह्व॒न्नामकृ॑षीवलाम् । प्राहं मृ॒गाणां॑ मा॒तर॑मरण्या॒निम॑शंसिषम् ॥
वृ॒षा॒र॒वाय॒ वद॑ते॒ यदु॒पाव॑ति चिच्चि॒कः । आ॒घा॒टिभि॑रिव धा॒वय॑न्नरण्या॒निर्म॑हीयते ॥
उ॒त गाव॑ इवादन्त्यु॒त वेश्मे॑व दृश्यते । उ॒तो अ॑रण्या॒निः सा॒यं श॑क॒टीरि॑व सर्जति ॥
गाम॒ङ्गैष आ ह्व॑यति॒ दार्व॒ङ्गैषो अपा॑वधीत् । वस॑न्नरण्या॒न्यां सा॒यमक्रु॑क्ष॒दिति॑ मन्यते ॥
न वा अ॑रण्या॒निर्ह॑न्त्य॒न्यश्चेन्नाभि॒गच्छ॑ति । स्वा॒दोः फल॑स्य ज॒ग्ध्वाय॑ यथा॒कामं॒ नि प॑द्यते ॥
आञ्ज॑नगन्धिं सुर॒भिं ब॑ह्व॒न्नामकृ॑षीवलाम् । प्राहं मृ॒गाणां॑ मा॒तर॑मरण्या॒निम॑शंसिषम् ॥
वन वन भटकती ओझल होती हे वनदेवी!
क्यों न तुम भय खाती न पूछती गाँव का पता!
क्यों न तुम भय खाती न पूछती गाँव का पता!
उत्तर देता टिड्डा जब झिंगुर झंकार की उठान का
उल्लसित होती है वनदेवी घंटियों के स्वर सी हिलमिल।
उल्लसित होती है वनदेवी घंटियों के स्वर सी हिलमिल।
और सामने पशु जो दिखते चरते से निज परिवेश
स्यात साँझ को वनदेवी ने खोल दिये छकड़े के बन्ध!
स्यात साँझ को वनदेवी ने खोल दिये छकड़े के बन्ध!
गिरा दिया वृक्ष किसी ने हाँक पार रहा कोई गैया
उतरी साँझ में वनबटोही समझ रहा चीख किसी की!
वनदेवी कभी न हनती जब तक न आये अरि हत्यातुर
खा कर सुगन्धित इच्छित फल जन लेते विश्राम ठहर।
मैंने कर ली स्तुति अब अंजनगन्ध सुरभित वनदेवी की
माता है जो मृगकुल की कृषि से दूर पर भोजन भरपूर।
भावानुवाद – गिरिजेश राव
वैदिक वांग्मय को सहज गेय रूप देकर समझाने हेतु सादर आभार देव?
आप वैदिक ऋचाओं का ऐसा भाानुवाद देंगे तो मैं तो बिन संस्कृत सीखे भी वेदों को पढ़ना सीख लूँगा ! _/\_