सुंदरकाण्ड [ विवेकः शक्य आधातुं ]
सुखनिद्रा की विविध चेष्टायें चहुँओर व्याप्त थीं। सुंदरियों की साँसें प्राकृतिक सुरभित तो थी हीं, पान के कारण शर्करासव से संयुक्त हो रावण को सुख पहुँचा रही थीं – शर्करासवगंध: स प्रकृत्या सुरभि: सुख:। वे आसक्त स्त्रियाँ रावण का मुख समझ सौतों के मुख सूँघ रही थीं। सौतों में आपस में पाया जाने वाला सहज बैर भाव रावण के अंत:पुर के विलासी प्रभाव में परवश होने के कारण लुप्त था और वे इस प्रकार एक दूसरे का प्रिय कर रही थीं – अस्वतंत्रा: सपत्नीनां प्रियमेवाचरंस्तदा।
कोई वलयभूषित भुआओं का तो कोई सुंदर वस्त्रों को ही तकिया बना सो रही थी। कोई दूसरी के वक्ष का सिरहाना लगा सोई थी, तो कोई उसकी बाँह का, कोई किसी की गोद में सोई थी तो किसी के लिये अन्य के कुच ही तकिया बन गये थे! वे मदमत्त स्त्रियाँ जाँघ, पार्श्व, कटि, पीठ मिलाये परस्पर एक किये दूसरे के अङ्गस्पर्श से सुखी हुई निद्रालीन थीं।
भुजायें ही सूत थीं, सुंदर स्त्रियाँ ही पुष्पमाला थीं और एक दूसरे में गुंफित अङ्गों के बीच दिखते उनके काले केश ही जैसे फूलों पर पड़े मदमत्त भौंरे थे – अन्योन्यभुजसूत्रेण स्त्री माला ग्रथिता सूत्रे शुशुभे मत्तषट्पदा।
सुंदर दृश्य वर्णन हेतु कवि प्राकृतिक सुषमा का आश्रय लेते हैं। जैसे वैसाख का महीना है। वायुसेवन के प्रभाव में प्रफुल्लित लतायें एक दूजे में गुँथ गई हैं। रावण के स्त्रीवन की शाखायें केशभ्रमरों से भूषित लिपटी हुई हैं। आभूषण और वस्त्र उचित रूप से यथास्थान हैं किंतु परस्पर लिपटने के कारण यह स्थिर करना कठिन है कि कौन गहना है, कौन पुष्पमाला और कौन अंग? विवेकः शक्य आधातुं भूषणाङ्गाम्बरस्रजाम्!
ऐसी स्थिति में कञ्चन दीप भी मानो चेष्टासम्पन्न हो गये हैं। रावण सोया है, इस कारण निर्भय हुये स्वर्ण दीप विविधप्रभायुक्त उन स्त्रियों को एकटक निहार रहे हैं – काञ्चना दीपा: प्रेक्षंतो निमिषा इव।
स्फटिक, रत्न, हाथी दाँत, स्वर्ण एवं अशोकपुष्पों से विभूषित रावण की शय्या दिखी जो अविकाजिन, भेड़ के चमड़े से संवृत थी। उस शय्या पर काले मेघ के समान सोता रावण चमकते कुण्डल और स्वर्णिम वस्त्र पहने हुआ था एवं अङ्गों पर सुगंधित रक्त चंदन का आलेपन था। ऐसी अवस्था में वह वैसे ही शोभित था जैसे आकाश में मेघ घिरे हों, साँझ की लाली पसरी हो बिजलियाँ चमक रही हों!
लोहितेनानुलिप्ताङ्गम् चन्दनेन सुगन्धिना।
संध्या रक्तमिवाकाशे तोयदम् सतडिद् गुणम्॥
वाल्मीकि जी इस अद्भुत दृश्य और बिम्ब संयोजन पर ही नहीं रुकते, आगे कहते हैं कि मदिरा पी कर राक्षसकन्याओं के साथ सुखपूर्वक सोता रावण ऐसे लग रहा था जैसे वृक्ष, वन और लता गुल्म के साथ मंदराचल पर्वत सो रहा हो! – सवृक्षवन गुल्माढ्यम् प्रसुप्तमिव मन्दरम्।
इस सुषमा बीच भी मारुति चैतन्य थे। उन्हें रावण फुफकारते नाग समान लगा – नि:श्वसन्तम् यथा नागम् रावणम्, उद्विग्न और सभीत हो पीछे हट गये। वाल्मीकि जी सूक्ष्म उपमा विधान द्वारा ऐश्वर्य की पृष्ठभूमि के अशिव को अङ्कित करते हैं – वह वैसा ही लग रहा था जैसे स्वच्छ स्थान पर ऊड़द का ढेर पड़ा हो, जैसे गङ्गा की धारा में कुञ्जर सोया हो, माष राशिप्रतीकाशम् नि:श्वसन्तम् भुजङ्गवत्। गाङ्गे महति तोयान्ते प्रसुप्तमिव कुञ्जरम्॥
शेष अगले अंक में
… तब मारुति पूँछ पटकने और चूमने लगे। कपि स्वभाववश खम्भों पर बारम्बार चढ़ने और वहाँ से भूमि पर कूदने लगे!
आस्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छं; ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम। स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ; निदर्शयन्स्वां प्रकृतिं कपीनाम्॥
ऐसा लगता है जैसे वाल्मीकि जी ने हनुमान के रूप में अपना कोई ड्रोन कैमरा भेज रखा है और उसी की नजर से देखकर सबकुछ लिख रहे हैं!