ऋतुगीत : झूम उठते प्राण मेरे
त्रिलोचन नाथ तिवारी
मुग्ध हो कोमल स्वरों में,
मैं बजाता बांसुरी, और,
थिरक उठते चरण तेरे,
झूम उठते प्राण मेरे॥
तुम हमारी तूलिका और
मैं तेरा भावुक चितेरा,
भावनाओं में तुम्हारी,
रंग भरते प्राण मेरे॥०॥
नाचती बन मोरनी तूं,
थाम कर मेरी उंगलियां।
मैं तेरी हर भंगिमा पर,
लुटा देता यह उमरिया॥
मेघ बन कर मैं घुमड़ता,
कौंधती तूं बन बिजुरिया।
गगन तक फहरा रही होती
तेरी धानी चुनरिया॥
कालिमा को भी लजाती
रात काली जब उमगती,
जुगनुओं की बांह थामे,
ढूंढते हम-तुम डगरिया॥
जब पंखेरू, पंख गीले
ले के छुपते कोटरों में,
अधर धर तेरे अधर पर
साथ सोते प्राण मेरे॥
मुग्ध हो कोमल स्वरों में,
मैं बजाता बांसुरी, और,
थिरक उठते चरण तेरे,
झूम उठते प्राण मेरे॥१॥
लोग कहते – उमड़ आयीं
सावनी पागल घटायें।
उमग तेरे कंचुकी की
खोलता मैं केशिकायें॥
तूं उमड़ उठती नदी सी,
प्यार प्राणों में संजोये,
तोड़ कर विह्वल किनारे,
बांध कर व्याकुल हवायें,
कूकती तूं बन के कोयल,
भीगती अमराइयों में।
हिम-शिखर सा मैं
पिघल कर डूबता गहराइयों में॥
गुलमोहर के फूल सा,
मैं धूप में भी मुस्कुराता,
सांझ होती, श्वांस में फिर,
गंध भरते श्वांस तेरे॥
मुग्ध हो कोमल स्वरों में,
मैं बजाता बांसुरी, और,
थिरक उठते चरण तेरे,
झूम उठते प्राण मेरे॥२॥
शुभ्र हिम बन कर,
हिमालय श्रृंखला पर मैं बिखरता।
सिंह भी जब कंदरा में,
एक खरहे सा दुबकता॥
तब हिमानी चादरों से
पल्लवों को ढांपती तुम!
पक्षियों के संग उड़ती,
हिरण नीचे हांकती तुम॥
जब अलावों पर सिमट कर
जग विरह के गीत गाता।
कठिन कोहरे का रुपहला
मेघ घर-घर घूम आता॥
कांपने लगती जवानी,
ठिठुर सा उठता बुढापा,
तब सुनहरी धूप बन कर
शीत हरते हास तेरे॥
मुग्ध हो कोमल स्वरों में,
मैं बजाता बांसुरी, और,
थिरक उठते चरण तेरे,
झूम उठते प्राण मेरे॥३॥
लोग कहते- शीत आया!
आ गयीं ठंढी हवायें।
दिवस उड़ता पंख धारे,
देख रजनी की कलायें॥
जिंदगी बरबस कपासी
ओढ़नों में जा दुबकती,
नील – नभ से रात भर तब,
ओस बन कर तूं बरसती॥
विश्व का सम्पूर्ण खारापन
इस हृदय में मैं सँभारे,
एक प्रतीक्षा में खड़ा
रहता विकल बांहें पसारे॥
तूं डुबो सर्वस्व मुझमें,
खोजती फिरती स्वयं को,
सीप-शंखों से तटों पर,
बिखरते उच्छ्वास तेरे॥
मुग्ध हो कोमल स्वरों में,
मैं बजाता बांसुरी, और,
थिरक उठते चरण तेरे,
झूम उठते प्राण मेरे॥४॥
सूर्य सा तपता हुआ,
मैं अपने जीवन को जलाता।
जब हमारे भाल से पग तक
पसीना झिलमिलाता॥
सूखने लगते हरित-तृण,
दरक उठती मौन धरती।
बन के तूं मलयज-पवन,
मन में मेरे मृदुगन्ध भरती॥
ढोर, सूखे पोखरों पर
तृषा से व्याकुल विचरते।
और कुछ नवजात पाखी
नीड़ में जा कर दुबकते॥
स्वर्ण सी रेती चमक कर
तृषित हिरणों को लुभाती,
तब तुम्हारे अधर-रस से,
तृप्ति पाते प्यास मेरे॥
मुग्ध हो कोमल स्वरों में,
मैं बजाता बांसुरी, और,
थिरक उठते चरण तेरे,
झूम उठते प्राण मेरे॥५॥
लोग कहते – आह,
भीषण ग्रीष्म से खौलीं शिरायें।
या कि क्रोधित शम्भु के
शिवनेत्र की किरणें जलायें॥
खोजता जग छाँह,
पत्ता भी न कोई कहीं हिलता।
विकल धरती, विकल अम्बर,
चैन का एक पल न मिलता॥
फूलती बेला – जुही सी,
फूलती बन कर चमेली।
दिवस का कटु ताप,
हर लेती हमारा तुम अकेली॥
और मेरी कामना में
कांपती बन कर कमलिनी,
साथ होते! काश! तेरे साथ
सोते प्राण मेरे ॥
मुग्ध हो कोमल स्वरों में,
मैं बजाता बांसुरी, और,
थिरक उठते चरण तेरे,
झूम उठते प्राण मेरे॥६॥