गत दिनों ऋग्वेद और भागवत पुराण में ‘परम पुरुष’ के बारे में बाँचते हुये यह विचार मन में आया कि काम, औचित्य, अर्थ और मुक्ति का चतुष्टय राष्ट्र के लिये भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना किसी व्यक्ति के लिये। राष्ट्र के लिये मुक्ति का अर्थ वह स्थिति है जिसमें जीवन स्तर और सन्तुलन इतने उच्च स्तर पर पहुँच जाते हैं कि उनकी चिंता करनी ही नहीं पड़ती। सु-तंत्र अपनी देख रेख स्वयं कर लेता है, उसे किसी बली के व्यक्तिगत हस्तक्षेपों की आवश्यकता नहीं पड़ती।
उसके विपरीत अन्य उपादानों की उपेक्षा के मूल्य पर किसी एक कारक पर अधिक बल अंतत: विकलाङ्गता की दशा ही लाता है – एक अंग में हाथी का बल और दूजों में लकवा। सम्मोहन में उसे ही विकास मानता तंत्र उसके परिवर्द्धन हेतु तो लगा ही रहता है, चेताते स्वरों को शत्रु समझता है। हम एक ऐसे समय में हैं जिसमें विकलाङ्गता दिव्यता हो चुकी है। शोध का उत्पाद ‘तिरुपति वाराह’ जैसी संज्ञा हो या राजनीतिक उत्पाद ‘सूअर का यज्ञोपवीत आयोजन’, उसे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उसमें यह जानने की इच्छा ही नहीं कि भविष्य के भञ्जक कथ्य कैसे गढ़े जाते हैं और उनका दुष्प्रभाव कितना घातक होता है!
कथ्यों के गल्प गढ़े जा रहे हैं, यत्र तत्र की घटनायें अतिशयोक्तियों और पुनरुक्तियों के दुंदुभिनाद बन असहनीय दबाव रच रही हैं और अर्थ चालित छवि के बिगड़ने के भय ने उस विभ्रम की रचना की है जिसके केंद्र से चिंता और चेतावनी के हास्यास्पद स्वर रह रह फूट पड़ते हैं। वे ऐसे संकेत हैं, जिनका आना ही दर्शा देता है कि दबाव कितना है। ऐसी स्थिति क्यों है?
घटनाओं और समाचारों को लेकर कथ्य गढ़ना और उन्हें निहित स्वार्थ हेतु वैश्विक स्तर पर नाना रूपों में प्रचारित करना हमारे समय की रणनीति का प्रमुख अंग है। इस रण में योद्धा कौन होते हैं? उच्च शैक्षिक संस्थान, कला, सिनेमा आदि से जुड़े मठों में वे योद्धा बनाये जाते हैं जिनके लिये ‘धन मात्र’ महत्त्व नहीं रखता और जो मात्र धन के लिये रणभूमि में उतरते भी नहीं। उनके पीछे बहुत सावधानी और कुशलता से रचा बसा एक ऐसा गढ़ होता है जो उन्हें बल प्रदान करता है। वह बल मौन और अभिव्यक्ति दोनों का होता है, सामयिकता और सटीक प्रहार का होता है, विपक्षी के अनुकूल तथ्यों को समांतर घटनाक्रम रच कर भोथरा कर देने का होता है और जन सामान्य की सोच को दूसरी ओर हाँक देने का भी होता है।
वह बल न तिजोरियों से आता है और न ही आँकड़ों के बहुरंगी चित्रों से। वह बल दूरगामी सोच के साथ लम्बे समय की योजना बनाने और उसे लागू करने में चतुष्टय निवेश से आता है। यदि सही दिशा में हो तो प्रक्रिया स्वत: ही प्रतिरोधी बल प्रदान करने लगती है किंतु वैसी सोच तो हो, प्राथमिकता तो हो!
ढेर सारे विधायी प्रयासों और परिणामों के होते हुये भी वैश्विक स्तर पर किसी देश की छवि क्षुद्र घटनाओं के कारण इतनी बुरी होती दिखने लगे कि अर्थ प्रवाह रुकने के भय से विभ्रम की स्थिति में मुखिया को गढ़े गये कथ्य के अनुकूल ही चेतावनियाँ जारी करनी पड़ें तो उसे थम कर सोचना चाहिये कि कहीं एकांगी विकास का दबाव घातक तो नहीं होने लगा है? कहीं उसके फल भी विघटनकारी तत्त्व ही तो नहीं उड़ा ले रहे?
आज के अमा अङ्क में अभिषेक ओझा अपनी सनातन बोध शृंखला को आगे बढ़ाते सांख्य दर्शन पर केंद्रित हैं। आजाद सिंह प्रकृति की वास्तुशिल्पी चिरई बया के बारे में बता रहे हैं। विवेक रस्तोगी गृह ऋण के भुगतान पर एक लघु किंतु उपयोगी लेख ले कर आये हैं।
अथर्ववेद से एक ऐसे सूक्त का भावानुवाद भी प्रस्तुत है जिसमें संवत्सर प्रेक्षण एवं एक देवी की प्रणय रात की ‘पिया घर आया, मंगल गाओ री!’ भावना का संयोग है।
नई शृंखला का आरम्भ बातचीत आधारित स्तम्भ के रूप में। प्रथम पुष्प – ऋग्वेद पर सुप्रसिद्ध विद्वान श्री भगवान सिंह से बातचीत।