‘जल्लिकट्टु’ आन्दोलन के चरम पर मैं ‘स्पाइस जेट’ से यात्रा कर रहा था। इस वायु यात्रा सेवा कम्पनी द्वारा अपने प्रचार तंत्र में ‘स्पाइस’ अर्थात मसाले पर बड़ा बल दिया जाता है, यात्रा पत्रिका में भी मसालों से सम्बन्धित आलेख होते हैं। मसालों से मिला कर देखें तो इसकी एक दक्षिण भारतीय छवि बनती है किंतु इसका मुख्य कार्यालय सुदूर उत्तर भारत के गुरुग्राम में है। दक्षिण भारत में इसकी सेवायें अपेक्षाकृत अधिक प्रतीत होती हैं। जिस विमान से मैं यात्रा कर रहा था उसे मदुरै से चेन्नई और हैदराबाद होते हुये मुम्बई तक जाना था। यात्रा के परिचय चरण में जब यह बताया गया कि विमानकर्मी हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी बोल सकते हैं तो सामने बैठे युवा दम्पति में से पति क्रोधित हो अपनी पत्नी से कुछ बोला जिससे साफ पता चला कि विमानकर्मियों द्वारा तमिळ न जानने पर उसे आपत्ति थी। पत्नी ने उसे आगे प्रतिक्रिया से रोक दिया।
जब पहले से रिकॉर्ड की हुयी उद्घोषणायें भी केवल हिन्दी और अंग्रेजी में सुनाई दीं तो युवक अपने को रोक नहीं सका और उसने एक कर्मी को बुला कर अपनी आपत्ति व्यक्त की। यह जानते हुये कि कर्मी को तमिळ नहीं आती, उसने अंग्रेजी में अपनी बात कही। कर्मी ने उसे परिवाद हेतु सन्दर्भ बताये जिनसे वह संतुष्ट नहीं हुआ तो वह मुस्कुराते हुये कह पड़ी,”Sir, you know English. We may talk in Hindi also. हमलोग हिन्दी में भी बात कर सकते हैं।“
उस युवक ने टूटी फूटी हिन्दी में उत्तर दिया,”हम हिन्दी में थोड़ा थोड़ा बात कर सकता है, समझ सकता है लेकिन why (there is) no air hostess who knows Tamil?” मेरे साथ बैठे हुये सज्जन ने भरपूर समर्थन दिया जब कि वह चेन्नई में बस गये मारवाड़ी ही लग रहे थे। उनका तर्क यह था कि जब इस कम्पनी के लाभ का अधिकांश दक्षिण से आता है तो उन्हें तमिळ जानने वाले कर्मी रखने चाहिये। आगे पीछे बैठे एक दो और तमिळों ने समर्थन किया, शेष अपने में लगे रहे। बात आई गई, समाप्त हुई।
मैं सोचने लगा – क्या कारण हो सकते हैं? ये बिन्दु ध्यान में आये:
- गोरेपन के प्रति क्या दक्षिण, क्या उत्तर, पागलपन की सीमा तक का व्यामोह सामान्य भारत की विशेषता है।
- तमिळ समाज पारम्परिक अधिक दिखता है।
- तमिळ आत्मसंतुष्ट दिखते हैं जिनकी रुचि ऐसी सेवायें देने में नहीं है।
- उत्तर तो छोड़ दें, अन्य दक्षिण भारतीय भी तमिळ के प्रति उतना उत्साह नहीं दिखाते।
- मलयाली, कन्नड़ी और आन्ध्र वाले भी तमिळों को लेकर इतने उत्साही नहीं दिखते कि उन्हें नेतृत्त्व दें।
- ऐसी व्यवस्था का व्ययसाध्य होना।
अस्तु।
मैं इस क्षेत्र में नया हूँ किंतु ऐसे प्रेक्षण और उत्तर भारतियों ने अवश्य किये होंगे। भाषा और क्षेत्र के आधार पर किञ्चित आपसी दुराव और पूर्वग्रह उत्तर वालों में भी हैं किंतु तमिळों की प्रवृत्ति अनूठी लगती है। आन्दोलन के समय कुछ बहुत ही नगण्य सी क्षीण प्रतिक्रियायें भी देखने सुनने को मिलीं, जैसे – हिन्दी विरोध, भारत संघ से अलग होने की बातें, झण्डा उल्टा करना आदि। इनमें उन राजनीति चमकाने वालों का ही हाथ रहा जो पुन: सामान्य हो चले तमिळनाडु में भाषाई द्वेष की आग फैलाना चाहते थे। ऐसा भी सुनने में आया कि विदेशों से श्रीलंकाई आन्दोलन में धन झोंक रहे हैं। अब्राहमी उत्पातियों ने भी प्रयास किये ही किंतु स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं हुई।
मेरी सोच और आगे बढ़ी कि क्या वे दिन पुन: लौट सकते हैं? क्या आज का तमिळनाडु उन्हें लम्बे समय तक झेल सकता है? स्वयं ने स्वयं को उत्तर दिया – सम्भवत: नहीं। सूचना क्रांति के इस युग में जब कि जाने कितने उत्तर भारतीय यहाँ कार्यरत हैं, वैसा नहीं हो पायेगा। ‘तमिळ गौरव’ अपनी छवि बिगड़ने नहीं देगा, तब और जब कि उसे कन्नड़ और तेलुगूभाषियों से भी प्रतियोगिता करनी है।
गणतंत्र दिवस के दिन अद्भुत संयोग था। नाम परिवर्तित कर बताऊँ तो सुरक्षा गारद के प्रमुख ‘मलयाली’ पाण्डियन ने ‘हरयाणवी’ प्रमुख कुमार को ध्वजारोहण हेतु सेना द्वारा प्रयुक्त ‘हिन्दी’ में, जो कि बोलचाल वाली की तुलना में परिष्कृत थी, ‘ध्वजारोहण’ हेतु आमंत्रित किया। पहले ‘तमिळ’ ताई देवी தமிழ்த் தாய் வாழ்த்து स्तुति हुई जो कि तमिळनाडु का राज्यगान है और उसे हर राष्ट्रीय पर्व पर राष्ट्रगान के पहले गाया जाता है। इसकी धुन मुझे राष्ट्रगान से अच्छी लगती है।
उसके पश्चात ‘बँगलाभाषी’ रबी बाबू द्वारा रचित राष्ट्रगान गाया गया जिसकी विशेषता उन संज्ञाओं का प्रचुर प्रयोग है जिन्हें समूचा भारत समझता है। इस गान में क्रिया पद नगण्य हैं और संस्कृत शब्दावली के कारण यह सबके लिये परिचित है। उत्तरप्रदेश, आन्ध्र, कर्नाटक, केरल आदि प्रदेशों के लोगों ने समवेत स्वर में उसे गाया।
एक छोटी सी ‘तेलगू’ लड़की ने एक गीत सुनाया जिसे तेलगू न जानने पर भी मैं समझ पाया। कारण थे तेज, जाति, प्राण, वन्दे मातरम् जैसे ‘संस्कृत’ शब्द। बाद में मैंने उसके पिता से अर्थ पूछा तो उन्हों ने जो बताया वह मेरी समझ से बहुत निकट का निकला।
तमिळनाडु राज्य के गान का मूल संस्करण उत्तरी भाषाओं के प्रति तिरस्कार का भाव रखते हुये उन्हें विगत, मृत और किसी के द्वारा न बोला जाने वाला बताता था (संकेत सम्भवत: संस्कृत की ओर ही रहा होगा क्यों कि इधर तमिळ को संस्कृत से भी समृद्ध और पुरातन मानने वाले प्रचुर हैं जिन्हें तमिळ की ‘चिरजीविता’ पर गर्व है।) किंतु राज्यगान बनाने से पहले उसमें संशोधन कर वह अंश निकाल दिया गया।
राष्ट्रगान हो या तमिळगान, सामञ्जस्य और सहकार की भारतीय भावना बहुत पहले से प्रबल रही है। तमिळगान वन्देमातरं के ही समान है। इसमें भारत பரத उपमहाद्वीप के तेजस्वी देवी ललाट की महिमा गायी गयी है। ‘भारत’ शब्द के तमिळ रूप का स्वीकार ध्यान देने योग्य है। तोड़ने वाली शक्तियाँ चाहे जितनी भी सक्रिय रही हों, ऐक्य का पक्ष रह ही जाता है। हमें उस पर ही केन्द्रित होना होगा।
‘जय भारत’