सांख्य विस्तृत है, इस लेखांश की सीमा से परे। यहाँ हम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सांख्य की सरल बातों की चर्चा करेंगे।
सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 और 6से आगे …
सांख्य दर्शन भारतीय दर्शन की छः प्रमुख शाखाओं में से एक है। सांख्य का दर्शन की शाखाओं में सर्वोच्च स्थान है। कपिल मुनि ने सांख्य की स्थापना की। भगवान ने भगवद्गीता में कहा है कि ‘सिद्धानां कपिलो मुनिः’। गीता, महाभारत, उपनिषद् जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में सांख्य का वर्णन मिलता है।
‘गीता रहस्य’ में बाल गंगाधर तिलक सांख्य पर लिखते हैं:
शांतिपर्व में भीष्म ने कहा है कि सांख्यों ने सृष्टि-रचना के बारे में एक बार जो ज्ञान प्रचलित कर दिया है वही पुराण, इतिहास, अर्थशास्त्रों आदि में पाया जाता है। यही क्यों, यहाँ तक कहा गया है कि ‘ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किञ्चित सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन’ अर्थात इस जगत का सब ज्ञान सांख्यों से ही प्राप्त हुआ है । यदि इस बात पर ध्यान दिया जाय कि वर्तमान समय में पश्चिमी ग्रन्थकार उत्क्रांति-वाद (evolution theory) का उपयोग सब जगह कैसे किया करते हैं, तो यह बात आश्चर्यजनक नहीं मालूम होगी कि इस देश के निवासियों ने भी उत्क्रांति-वाद की बराबरी के सांख्यशास्त्र का सर्वत्र कुछ अंश में स्वीकार किया है। गुरुत्वाकर्षण, सृष्टि-रचना उत्क्रांतितत्त्व या ब्रह्मात्मैक्य के समान उदात्त विचार सैकड़ों बरसों में ही किसी महात्मा के ध्यान में आया करते हैं।
सांख्य एक विस्तृत दर्शन है -गूढ़, अनेकांत, व्यापक – जितना पढ़ा जाय उतनी परतें खुलती हैं। पर कितना भी पढ़ा जाय जिसे अंततः अनुभव से ही जाना जा सकता है। ग्रंथो में काव्य और सूत्रात्मक ढंग से कही जाने के कारण इनका अर्थ समझना भी सरल नहीं है। सांख्य के विज्ञलोकप्रिय होने का एक कारण वही लगता है जो आधुनिक काल में विकासवादी जीवविज्ञान और मनोविज्ञान के लोकप्रिय होने का – संसार में दिखने वाली विषमता का सुगम विश्लेषण। हम इस विश्लेषण के केवल एक अंश का सरल अध्ययन करेंगे। सांख्यवादियों ने संसार में जो कुछ भी है उसका कारण प्रकृतियों के अनुपात और तालमेल को माना। ब्रह्माण्ड को एक विकासात्मक प्रक्रिया का परिणाम माना गया है अर्थात सृष्टि अनेक अवस्थाओं (phases) के बाद वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। और निरंतर परिवर्तनशील है। भौतिक सृष्टि त्रिगुणात्मक प्रकृति का परिणाम है।
सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि ‘प्रकृति-पुरुष’ मूलक है जिनमें से प्रकृति गुणमयी है – सत्व, रज और तम। ये तीन गुण प्रकृति में पाये जाते हैं। यही तीनों गुण मनुष्य में भी हैं। सांख्य सिद्धांत पढ़ते हुये यहाँ एक भ्रम की स्थिति बनती है क्योंकि सांख्य के तत्वों का अर्थ हम उनके भौतिक रूप से समझने लगते हैं परंतु सांख्य के तत्वों का अर्थ शाब्दिक नहीं होकर विस्तृत है। गीता के अठारहवें अध्याय में अलग अलग श्लोकों में त्याग, ज्ञान, कर्ता, बुद्धि, धृति, सुख सबके त्रिगुणी होने का वर्णन है – सात्विक, राजसी और तामसी।
अव्यक्त से महत् , महत् से अहंकार की उत्पत्ति पढ़ते हुए ये प्रतीत होता है कि सांख्य दर्शन के अनुसार मानवीय मस्तिष्क भी भौतिक विकास का परिणाम है। शान्तिपर्व के याज्ञवल्क्यगीता में याज्ञवल्क्य कहते हैं:
अव्यक्ताच्च महानात्मा समुत्पद्यति पार्तिव ।
प्रथमं सर्गमित्येतदाहुः प्राधानिकं बुधाः ॥
महतश्चाप्यहङ्कार उत्पद्यति नराधिप ।
द्वितीयं सर्गमित्याहुरेतद्बुद्ध्यात्मकं स्मृतम् ॥
अहङ्काराच्च सम्भूतं मनो भूतगुणात्मकम् ।
तृतीयः सर्ग इत्येष आहङ्कारिक उच्यते ॥
महाभारत के शान्ति पर्व में सांख्य का सुन्दर वर्णन मिलता है। व्यास-शुकदेव, मनु-बृहस्पति और वसिष्ठ-जनक वार्तालाप में इन्द्रियों, मन अहंकार और बुद्धि के बारे में बहुत रोचक बातें हैं। व्यास शुकदेव (२४७:१-१६) को समझाते हुए कहते हैं कि इन्द्रियाँ विषयों से जुडी होती हैं और मन इन्द्रियों से। और इस पूरी यंत्रावली का सञ्चालन बुद्धि करती है। इन्द्रियों से जुड़ा होने के कारण मन अस्थिर होता है। मन से जो सूचना प्राप्त होती है, बुद्धि उसके आधार पर निर्णय लेती है। साथ ही सांख्य के तीन गुणों के अनुपात के अनुसार बुद्धि की अवस्था भी परिवर्तित होती रहती है – सात्विक से तामसी के स्तर पर। इस बुद्धि के द्वारा मनुष्य की अंतर्जगत पहचानने की बात शांति पर्व में कही गयी है।
मनु बृहस्पति से कहते हैं कि मनुष्यों द्वारा हिमालय पर्वत का दूसरा पार्श्व तथा चन्द्रमा का पृष्ठ भाग देखा हुआ नहीं है तो भी इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि उनके पार्श्व और पृष्ठ भाग का अस्तित्व ही नहीं है। (२०३।६) यह वार्तालाप पढ़ते हुए कई संज्ञानात्मक पक्षपात सांख्य के मनोविज्ञानिक विश्लेषण की विशेषावस्था लगते हैं। संज्ञानात्मक पक्षपातों के सारे सिद्धांत इस कथन की तरह ही हैं। यह कथन आधुनिक व्यावहारिक मनोविज्ञान के हर पुस्तक की भूमिका है!
संख्या के तत्व शाब्दिक अर्थों से परे सृष्टि के पुरुष-प्रकृति की बात करते हैं। हाल के दिनों में चर्चित हुआ शोध विचार Is universe conscious ?, सांख्य के इस सिद्धान्त का ही पुनर्विचार लगता है। सांख्य सिद्धांतों के मनोवैज्ञानिक अर्थ के आधार पर मानव मस्तिष्क का प्रतिरूप बनाने का प्रयास करें तो कुछ इस तरह होगा:
- सांख्य की प्रकृति-पुरुष की अवधारणा से मानवीय व्यवहार की चर्चा।
- प्रकृति अचेतन (जड़) है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन।
- मानसिक प्रकृति का तीन अवस्थाओं – सत्व, रज और तम में विभाजन। सत्व – शुद्ध, रज – ऊर्जा, तम – आलस्य व जड़ता। मानव के स्तर पर प्रकृति के इन तीन गुणों से व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। सत्व का अधिक होना सकारात्मक, रज का क्षणिक सुख, तम का अधिक होना आलस्य और निराशावादी। विभिन्न देश काल में अलग अलग अनुपात में सभी के अंदर इन तीनों का सम्मिश्रण होता है। सत्व की वृद्धि का अर्थ – सकारात्मक के साथ साथ आध्यात्मिक उन्नति।
इनके अतिरिक्त अभौतिक अंश जिसे पुरुष कहते हैं – चैतन्य।
इस दृष्टि से संज्ञान (cognition) का प्रतिरूप कुछ ऐसा हुआ – मनुष्य में बाहरी संसार को देखने के लिए इन्द्रियाँ हैं। बुद्धि का काम है इन्द्रियों और मन के साथ निर्णय लेना और प्रतिक्रिया देना। बुद्धि प्रकृति के तीन गुणों के अनुपात से प्रभावित होती है। प्रमापीय प्रतिरूप (modular) की तरह मस्तिष्क का प्रतिरूप हुआ मन, बुद्धि और अहंकार का समिश्रण निचले स्तर पर इन्द्रियाँ और ऊपरी स्तर पर पुरुष।
प्रकृति के त्रिगुण का अनुपात स्मृति से भी परिवर्तनशील है। (पूर्वजन्म की परिकल्पना स्मृति के प्रभाव-कार्य-कारण का विस्तार प्रतीत होती है)। इन्द्रियों को बहिर्जगत से सुचना मिलती है। मन उसे स्वयं (अहम) से जोड़कर मूल्यांकन करता है जिसके उपरांत बुद्धि उस मूल्याङ्कन के अनुरूप निर्णय लेती है। जड़ प्रकृति की बुद्धि पुरुष के संपर्क में आने पर चेतन होती है पर बहुधा पुरुष के होते हुए भी उसके बिना ही क्रियाशील रहती है और इस तरह हम संसार को अनुभव करते हैं और प्रतिक्रियायें भी देते हैं।
बुद्धि के निष्कर्ष, अन्तर्ज्ञान (intuition) और सहज ज्ञान (instinct) पूर्व अनुभवों और कर्मों पर भी आधारित होते हैं और वर्तमान के कर्म भविष्य की प्रकृति को प्रभावित करते हैं। प्रकृति पुरुष से नितांत भिन्न होकर काम नहीं करती बल्कि पुरुष के होते हुए भी उससे अनजान रहकर कार्य करती है। यह मानसिक प्रतिरूप निरंतर परिवर्तन रहता है। पूर्वाग्रह, भ्रम, आशंकायें सर्वदा उपस्थित रहती हैं क्योंकि प्रकृति पुरुष (चैतन्य) से अनजान रहती है।
योगसूत्र में पांच क्लेशों की बात की गयी है – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। अविद्या अर्थात पुरुष से अनभिज्ञता। अविद्या से जन्मी असमर्थता। आभासी और वास्तविकता में अंतर समझने की असमर्थता। नित्य और अनित्य में अंतर समझने की असमर्थता और अपनी योग्यता का भ्रम – ये संज्ञानात्मक पक्षपातों की विश्व में कहीं भी पहली चर्चा है। इसके समाधान के लिए अष्टांग योग की बात ग्रन्थ में की गयी है पर केवल इन क्लेशों और सांख्य से बने मानसिक प्रतिरूप से आधुनिक व्यावहारिक मनोविज्ञान का बोध मिल जाता है। व्यक्तित्व के इस प्रकार के विस्तृत वर्णन से पता चलता है कि पश्चिमी मनोविज्ञान में किये गए अध्ययन जैसे विशेषावस्था मात्र हैं।
सांख्य से बने इस प्रतिरूप की चर्चा डेनियल काहनेमैन के सिद्धांत से करते हैं। मस्तिष्क के सोचने की प्रक्रिया को वह दो भागों में विभाजित करते हैं जिन्हें वह प्रणाली १ और प्रणाली २ का नाम देते हैं। प्रणाली १ अर्थात सहज ज्ञान (intuitively) बिना प्रयास, बिना सोचे तुरंत प्रतिक्रिया देने वाला। इसमें मस्तिष्क क्षणिक निर्णय लेता है, बिना सोचे, अनुभव और अंतर्ज्ञान से, जैसे गाडी चलाते समय स्वतः रोक लेना।
दूसरा – गंभीर और तर्कसंगत। लाभ-हानि का विवेचन करने वाला, सोच विचार कर, समय लगा कर, समस्या का हल ढूंढना, किसी समस्या का विस्तृत विश्लेषण करना।
प्रणाली १ बहुधा सही नहीं होती पर प्रणाली २ के लिए श्रम की आवश्यकता होती है जो मस्तिष्क करना नहीं चाहता। प्रणाली २ के लिए ऊर्जा चाहिये, एकाग्रता चाहिये पर हमें सरलता से सोचने के लिये बनाया गया है। स्वभाव से हम आलसी होते हैं। प्रोफ़ेसर काहनेमैन कहते हैं “Laziness is built deep into our nature।” तो हम दैनिक कामों के लिए कभी भी प्रणाली २ का प्रयोग नहीं करते। साथ ही हम एक समय पर प्राय: एक ही प्रणाली का प्रयोग करते हैं जैसे हमें चलते चलते कोई जोड़ने घटाने को कहे तो हम रुक जाते हैं या जब हम बहुत ध्यान लगाकर कुछ करते हैं तो खाना तक भूल जाते हैं। जब हम थके होते हैं तो हमारा आत्म नियंत्रण दुर्बल हो जाता है – Intelligence is not only the ability to reason, it is also the ability to find relevant material in the memory and deploy attention when needed.
हमारा मस्तिष्क श्रम नहीं करना चाहता और वैसा नहीं कर हम प्राय: अपने निर्णयों और प्रतिक्रियाओं में ग़लतियाँ करते हैं। डेनियल काहनेमैन की प्रणाली १ सांख्य के मन और अहंकार प्रतीत होते हैं एवं प्रणाली २ बुद्धि और चित्त! दोनों से परे पुरुष। दोनों में अद्भुत समानता है।
(क्रमशः)
अगले अंकों में संख्या के संज्ञान प्रतिरूप की आगे चर्चा और नीति तथा अन्य ग्रंथो में आधुनिक व्यावहारिक मनोविज्ञान के बोध की चर्चा।
बहुत कुछ जानने को मिल रहा है। लगता है जैसे पढ़ते ही जाएँ … जारी रहे