पिछले लेखांश में हमने सांख्य का सरल मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पढ़ा, जिसमें हमने आधुनिक मनोविज्ञान के समानांतर सोचने की दो प्रणालियों को परिभाषित किया। आधुनिक मनोविज्ञान में जहाँ भी इन दो प्रणालियों की चर्चा आती है सांख्य के इस प्रतिरूप से एकरूपता दिखती है। कोई विरोधाभास नहीं. पश्चिमी मनोविज्ञान में सोचने के इस तरीके और हमारे निर्णयों पर हमारे अचेतन मस्तिष्क के प्रभाव का अध्ययन एक लम्बे समय तक था ही नहीं।
आज चर्चा करते हैं WYSIATI – what you see is all there is की। एक तरह से ये व्यावहारिक अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का सार है। WYSIATI अर्थात हम अचेतन (तर्कहीन – irrational) तरीक़े से फ़ैसले लेते हैं. हम जितना देखते हैं केवल उतने से ही हमें लगता है कि हमें सब कुछ पता है और हम निर्णय ले लेते हैं। इस सिद्धांत के मूल में भी वो दो प्रणालियाँ होती हैं जिनकी हमने चर्चा की थी। प्रणाली १ यानि तुरंत प्रतिक्रिया। बिना सोचे। प्रणाली २ तर्कपूर्ण। जैसा की हमने देखा था कि प्राय: प्रणाली १ बिना प्रणाली २ के विवेक पूर्ण विश्लेषण के बिना ही त्वरित निर्णय ले लेती है। दैनिक चर्या के लिए यह एक तरह से अच्छा भी है नहीं तो छोटे से छोटे काम के लिए हम सोचने लगेंगे। पर समस्या तब आती है जब हम उन फ़ैसलों को लेने में भी प्रणाली १ का ही इस्तेमाल कर लेते हैं जिनके लिए हमें ज़्यादा सोचना चाहिए।
प्रणाली २ की सहायता लेनी चाहिये क्योंकि प्रणाली १ प्राय: अविवेकपूर्ण और ग़लत होती है। WYSIATI अर्थात हम उतने में ही सोच लेते हैं जितना हमें दिखता है। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हम जितना जानते हैं उससे ही उसके बारे में धारणा बना लेते हैं और फिर निर्णय भी जितना दिखता है उतने में ही ले लेते हैं। जो नहीं दिखता उसके बारे में हम नहीं सोचते। प्रणाली १ – फटाफट काम पर लगी रहती है. जैसे किसी से मिलने पर हम मिलने के पहले कुछ क्षणों में ही ये धारणा बना लेते हैं कि सामने वाला व्यक्ति कैसा होगा। कई बार यह धारणा उस व्यक्ति के बारे में बिना कुछ जाने केवल सामने वाले के चेहरे और चलने बोलने के तरीक़े से ही बन जाती है। मस्तिष्क को त्वरित रूप से सब कुछ सोच लेता है।
WYSIATI के अनुसार प्रणाली १ को कहानियाँ बनाने आता है। एक बात से दूसरी बात जोड़कर वो अधूरी सूचना से ही पूरी कहानी बना लेता है। स्वाभाविक है इसका कई बार वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं होता। एक छोटी सी अधूरी सूचना से हमें लगता है हमने उस वस्तु या व्यक्ति को समझ लिया। माल्कम ग्लैड्वेल की पुस्तक ‘ब्लिंक’ भी इसी बात पर आधारित है।
नए सिद्धांतों के अनुसार यह हमारे मस्तिष्क के सोचने का तरीक़ा है – विकासवाद हो या मनोविज्ञान दोनों इस बात से एकमत है। आधुनिक मनोविज्ञान इस बात का हल इतना बताता है कि हम कुछ ज़्यादा कर नहीं सकते – जो है वो है. हम बने ही ऐसे हैं. पर जो बातें हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है उनको आराम से सोचना चाहिए। उनका विश्लेषण करना चाहिए। जो भी दिखे उस पर झटपट भरोसा नहीं करना चाहिए. क्योंकि पहली दृष्टि से लिए गए निर्णय प्राय: प्रणाली १ के लिए गए फ़ैसले होते हैं। हमें प्रणाली २ का इस्तेमाल कर सोच समझ कर निर्णय लेना चाहिए। ये आधुनिक विश्लेषण सांख्य के मन- बुद्धि परिभाषा से कितना अलग है? या फिर – बिना विचारे जो करै सो पाछे पछताय! जैसी बातों से ही कितना भिन्न है?
इसका एक सरल उदाहरण देखते हैं। एक साधारण प्रश्न विश्वविद्यालय के छात्रों से किया गया – ‘एक बल्ले और एक गेंद का मूल्य यदि रु १.१० है और बल्ले की क़ीमत गेंद की क़ीमत से रु १ अधिक है तो गेंद का मूल्य क्या है?’ हॉर्वर्ड, प्रिंसटन जैसे विश्वविद्यालय के ५०% से अधिक छात्रों ने इसका सही उत्तर नहीं दिया।
बाक़ी लोगों में लगभग ८०% लोग इसका ग़लत जवाब देते हैं। प्रणाली १ – त्वरित, सरल उत्तर। आलसी प्रवृत्ति, १० पैसा उत्तर – आसान, सरल, अविवेकपूर्ण और गलत।
जो सही उत्तर देते हैं उनके मस्तिष्क में भी यही उत्तर आता है पर वे उसका प्रतिरोध कर सही गणना कर उत्तर पर पहुँचते हैं – इतना आसान तो नहीं हो सकता ! जो दिख रहा है कुछ तो है जो हम नहीं देख पा रहे हैं। सरल उत्तर के लालच पर इस प्रकार जिन लोगों ने काबू पाया वह सही उत्तर बता पाए. प्रकृति – मन-अहंकार-बुद्धि।
शोध में यह पाया गया कि प्राय: साक्षात्कार के पहले ३० सेकेंड में ही साक्षात्कार करने वाले यह निर्णय ले लेते हैं कि किसी अभ्यर्थी को लेना है या नहीं! जिन साक्षात्कार करने वाले लोगों को अपने निर्णय रोक कर पुन: सोचने को कहा गया वहाँ उन्होंने अच्छे फ़ैसले लिए। मनोविज्ञान कहता है कि हम त्वरित निर्णय लेने के पश्चात उनके समर्थन में कहानियाँ बना लेते हैं। मन को इसमें महारत हासिल है। पर वह उसी पर निर्भर करता है जो हमें दिखता है। जो नहीं दिखता, उसके बारे में हम सोच ही नहीं पाते। हम यह प्रश्न ही नहीं करते कि वह क्या है जो हम नहीं देख पा रहे हैं? हम क्यों और सोचें जब हमें सब कुछ साफ़ साफ़ दिख रहा प्रतीत होता है। व्यावहारिक अर्थ-शास्त्र मनोवैज्ञानिक और मानवीय व्यवहार के इस सिद्धांत को अर्थ-शास्त्र से जोड़ता है। साथ ही प्रबंधन, क्रय-व्यवहार, सर्वेक्षण इत्यादि में इसका उपयोग होने लगा है। जो मानवीय व्यवहार बेहतर समझेगा वह उसका दोहन भी बेहतर तरीक़े से कर सकता है।
किसी प्रक्रिया का वैज्ञानिक शोध करते समय भी प्राय: शोधकर्ता यह प्रस्तुत करते हैं कि किन कारणों से ऐसा हो रहा है। पर वे यह नहीं कहते कि कौन कौन से कारण हैं जिनका उन्होंने अध्ययन नहीं किया। इस तरह से कई अध्ययन संकीर्ण होते हैं। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में छपने वाली और चर्चा में आने वाली ख़बरें भी इसका सटीक उदाहरण हैं – केवल एक पक्ष का अध्ययन कर उन्हीं निष्कर्षों पर चर्चा करना, केवल एक ही पक्ष के सवाल करना।
इन आधुनिक सिद्धांतों को पढ़ते हुए सांख्य के मनोवैज्ञानिक पहलू से समानता तथा नीति के अतिरिक्त जैन दर्शन के अनेकांतवाद में बिल्कुल यही सिद्धांत पढ़ने को मिलता है । मानवता के पास अनेकांतवाद से सुंदर दर्शन संभवत: उपलब्ध नहीं। अनेकांतवाद की व्याख्या कई तरीक़ों से और संदर्भो में की गयी है। दर्शन की दृष्टि से विस्तृत सिद्धांत है, पर एक व्याख्या तो स्पष्टत: ही WYSIATI के बोध से की जा सकती है। अनेकांतवाद को समझने के लिए बनायी गयी कहानी – एक अंधे व्यक्तियों के समूह द्वारा हाथी को समझने के प्रयास वाली कहानी, अंध-गज-न्याय का सिद्धांत ही पर्याप्त है। किसी ने कहा – हाथी खम्भे की तरह होता है, किसी ने कहा हाथी दीवार की तरह होता है इत्यादि। अनेकांतवाद और WYSIATI में कितना अंतर है? मुझे आश्चर्य होता है एकैक समानता होते हुए भी इन बातों का विस्तृत अध्ययन किसी ने क्यों नहीं किया!
अतिविश्वास (overconfidence) भी इस सिद्धांत पर बैठता है। मन को त्वरित ज्ञान पर इतना भरोसा होता है कि हम यह नहीं देख पाते हैं कि निर्णय लेने के लिए जिन आवश्यक बातों को हमें देखना चाहिए वे पूरी तरह अनुपस्थित हैं। WYSIATI अर्थात – सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखना।
एक पिछले अंक में हमने चर्चा की थी कि कैसे अलग अलग तरह के विकल्प देने पर अंग दान करने वाले लोगों की संख्या में अप्रत्याशित परिवर्तन आ जाता है. उसी प्रकार मनोविज्ञान में फ्रेमिंग इफ़ेक्ट के नाम से प्रसिद्ध सिद्धांत यह कहता है कि किस प्रकार हमारे उत्तर इस बात पर निर्भर करते हैं कि वही सवाल पूछा किस तरह से जा रहा है ! तो अगली बार आप जब किसी सर्वे के निष्कर्षों को पढ़े तो ये जरूर देखने का प्रयास करें कि सवाल किस तरह पूछा गया? और टीवी चैनल पर किसी के उत्तर को सुनते समय यह भी सुनें की सवाल किस उत्तर को सुनने के लिए ‘फ्रेम’ किये गये हैं।
‘बेस रेट नेग्लेक्ट’ भी एक ऐसा ही संज्ञानात्मक सिद्धांत है. जिसका अर्थ है कि यदि हमें किसी चीज के बारे में विशेष जानकारी दी जाए तो हम उसे उसके असली जानकारियों से अधिक महत्त्व देते हैं, भले ही उसका हमारे निर्णय से कोई लेना देना नहीं। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण है – जैसे कोई कहे कि एक ३० साल की अविवाहित, मुखर, तेज तर्रार लड़की है, ग्रेजुएट है और कॉलेज के दिनों में सामाजिक न्याय और भेदभाव के मुद्दों को लेकर बहुत गंभीर थी। तब उसने कुछ प्रदर्शनों में भी हिस्सा लिया था। उस लड़की के क्या होने की अधिक संभावना है?
१. बैंक में गणक
२. बैंक में गणक और महिलावादी आंदोलन में सक्रिय।
लगभग हम सभी दूसरा विकल्प चुनते हैं. पर ध्यान से देखें तो उसके बैंक में गणक होने की सम्भावना अधिक है ! गणित के प्रायिकता में बेस प्रमेय और मनोविज्ञान के इस सिद्धांत को मिलाकर कई रोचक शोध किये गए है। हम प्राय: गलत तरीके से कम सम्भावना वाली बातों को अधिक करके देखते हैं। आंकड़ों और जो हो सकता है, उसका सही विश्लेषण करने के स्थान पर हम रूढ़िबद्ध (steroetype) तरीके से निष्कर्ष निकालते रहते हैं।
साधारण से दिखने वाले इन सिद्धांतों का वित्त और अर्थ-शास्त्र जैसे क्षेत्रों में खूब उपयोग होता है। निष्कर्ष? – वही जो सदियों पहले भर्तृहरि ने कहा था –
अजानन् दाहात्म्यं पततु शलभस्तीव्रदहने स मीनोऽप्यज्ञानाद्बडिशयुतमश्नुते पिशितम्।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिला- न्न मुञ्चामः कामान् अहह गहनो मोहमहिमा॥
हम शलभ और मछलियों जैसे सरल जीवों को क्षमा कर सकते हैं जो अज्ञानवश (आग और जाल के) शिकार बनते रहते हैं। क्या हम पर्याप्त बुद्धिमान मनुष्यों के लिये भी कोई बहाना हो सकता है जिन्हें तृष्णा और वासनाओं की अच्छी समझ होती है कि कैसे वे जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र में हमें फँसा लेती हैं?
तब भी हम इन घातक वासनाओं के चंगुल में बारम्बार पड़ते रहते हैं, तब वे ही दिखाती हैं कि माया कितनी शक्तिशाली और छलिया हो सकती है!
(क्रमशः … )