आदिकाव्य रामायण से – 16 से आगे …
गंध प्रतिमा अनिल द्वारा प्रेरित हो अंत:पुर में हनुमान जी के प्रवेश से पहले वाल्मीकि ने सुंदर प्रयोग किये हैं। उस भवन का विस्तार बताने के लिये ‘आयत’ शब्द का प्रयोग करते हैं, एक योजन लम्बा और आधा योजन चौड़ा – अर्धयोजनविस्तीर्णमायतं योजनं हि तत्! 1:2 का अनुपात वास्तु में स्थान के सर्वोत्तम उपयोग से सम्बंधित माना जाता है।
कहते हैं कि उस ‘आयत’ भवन, बहुप्रासाद युक्त संकुल में हनुमान ने ‘आयतलोचना‘ अर्थात विशाल नेत्रों वाली ‘वैदेही’ को ढूँढ़ने हेतु प्रवेश किया। आयत में आयतलोचना ढूँढ़ना है जो कि विदेह अर्थात देह से विमुक्त की पुत्री वैदेही है। लङ्का दैहिक भोगों की प्रतिमान है, उस भवन की विशालता और भोग हेतु एकत्रित की गयी सहस्रो स्त्रियों की भीड़ में वैदेही अर्थात दैहिकता से मुक्त सीता जी को ढूँढ़ना है! कैसे ढूँढ़ेंगे?
लोचन शब्द का सम्बंध प्रकाश से है और बहुत ही सतर्क एवं सावधान प्रेक्षण से भी – आलोचन और पर्यालोचन शब्दों के मूल में वही है। उसके प्रयोग से मानो कवि कह रहे हों – विशाल भवन में सतर्क सावधान हो ढूँढ़ोगे तो वैदेही सीता को पा जाओगे। वह इस तामस परिवेश में प्रकाश सी हैं – वैदेहीं सीतामायतलोचनाम्।
हनुमान जी ने घूमना आरम्भ किया, लङ्का का संकट भी आरम्भ हुआ। कवि एक शब्द जोड़ देते हैं – अरिसूदन, शत्रुओं का नाश करने वाले हनुमान।
रावण की वह शाला उसके मन को वैसे ही प्रिय थी जैसे कोई सुंदर श्रेष्ठ स्त्री – रावणस्य मनःकान्तां कान्तामिव वरस्त्रियम्। वायुदेव ने अपनापन दर्शा रावण का पता बता दिया था। उस तत्त्व से आगे हनुमान का दो और तत्त्वों से साक्षात्कार होता है।
आकाश, भवन अनेक अत्युच्च खम्भों पर टिका जैसे आकाश में उड़ा सा जाता था – अत्युच्चैर् दिवम् सम्प्रस्थिताम् इव।
विस्तार कैसा था? पृथिवीमिव विस्तीर्णाम् सराष्ट्रगृहमालिनीं, अनेक राष्ट्रों और घरों की पंक्तियों से सज्जित पृथ्वी के समान ही वह शाला थी।
जल और अग्नि तत्त्व अप्रत्यक्ष रूप में आगे आये हैं। पानशाला एक तड़ाग है जिसमें स्त्रियाँ कमल की भाँति हैं – गुणतस्तानि समानि सलिलोद्भवैः। स्त्रियों के लिये जल, द्रव मदिरा रूप में है, स्त्रियाँ सुरासवादि पान के पश्चात बेसुध सो रही थीं – पाननिद्रावशंगतं।
आगे का वर्णन ऐसे है जैसे कि उस भवन में अर्द्धरात्रि तक चले आमोद, प्रमोद, वासना विलास के पश्चात बस एक श्रांत उमस चहुँओर बच गयी हो, आग जो दीपों में ध्यानस्थ स्थिर प्रकाश रूप में बची रह गयी थी – प्रध्यायत इवापश्यत्प्रदीपांस्तत्र।
रावण की शयनशाला देख हनुमान जी की पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ रूपादि पाँच उत्तम विषयों से तृप्त हो गयीं! इन्द्रियाणीन्द्रियार्थैस्तु पञ्च पञ्चभिरुत्तमैः। किस प्रकार? जिस प्रकार माता करती है – तर्पयामास मातेव। यहाँ हनुमान जी की प्रकृति के प्रति सूक्ष्म संदेश भी है – आये हैं भोगशाला में किंतु इंद्रिय तृप्ति में माता भाव ही है।
उन्हें लगा कि स्वर्ग तो यही है, देवलोक यही है, इंद्र की पुरी यही है – स्वर्गोऽयं देवलोकोऽयमिन्द्रस्येयं पुरी भवेत्। रावण की शाला स्यात कोई परासिद्धि ही है – सिद्धिर्वेयं परा हि स्यादि।
सहस्रो वरनारियों, सेवक भृत्यों, रञ्जक पक्षियों के सम्मिलित रव से सर्वदा कोलाहल ग्रस्त रहने वाला रावणी अंत:पुर अर्द्धरात्रि की प्रशांति में सुप्त है। आमोद प्रमोद प्रशमित हैं। क्रीड़ा, सुरत, पान की सुखद थकान के अधीन सब सो रहे हैं। नीरवता व्याप्त है। वाल्मीकि जी वासना संपूरित श्लथ निशा के लिये कोमल बिम्ब उकेरते हैं, ऐसा काव्य प्रभाव जिसका अनुकरण अन्य कवियों की परवर्ती कृतियों में बहुत आगे तक दिखता है – (आधुनिक काल का में ‘राम की शक्तिपूजा’ का बिम्ब ध्यातव्य है – प्रशमित है वातावरण, नमित मुख सांध्य कमल… )। स्त्रीमुख की उपमा हेतु कमल कवि को प्रिय है, सौंदर्य, गंध, पराग और शुचि भाव समन्वित।
प्रध्यायत इवापश्यत्प्रदीपांस्तत्र काञ्चनान् । धूर्तानिव महाधूर्तैर्देवनेन पराजितान्॥
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ततोऽपश्यत्कुथासीनं नानावर्णाम्बरस्रजम्। सहस्रं वरनारीणां नानावेषविभूषितम्॥
परिवृत्तेऽर्धरात्रे तु पाननिद्रावशं गतम्। क्रीडित्वोपरतं रात्रौ सुष्वाप बलवत्तदा॥
तत्प्रसुप्तं विरुरुचे निःशब्दान्तरभूषणम्। निःशब्दहंसभ्रमरं यथा पद्मवनं महत्॥
तासां संवृतदन्तानि मीलिताक्षाणि मारुतिः। अपश्यत्पद्मगन्धीनि वदनानि सुयोषिताम्॥
प्रबुद्धानीव पद्मानि तासां भूत्वा क्षपाक्षये। पुनःसंवृतपत्राणि रात्राविव बभुस्तदा॥
इमानि मुखपद्मानि नियतं मत्तषट्पदाः। अम्बुजानीव फुल्लानि प्रार्थयन्ति पुनः पुनः॥
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सा तस्य शुशुभे शाला ताभिः स्त्रीभिर्विराजिता। शारदीव प्रसन्ना द्यौस्ताराभिरभिशोभिता॥
स च ताभिः परिवृतः शुशुभे राक्षसाधिपः। यथा ह्युडुपतिः श्रीमांस्ताराभिरभिसंवृतः॥
याश्च्यवन्तेऽम्बरात्ताराः पुण्यशेषसमावृताः। इमास्ताः संगताः कृत्स्ना इति मेने हरिस्तदा॥
ताराणामिव सुव्यक्तं महतीनां शुभार्चिषाम्। प्रभावर्णप्रसादाश्च विरेजुस्तत्र योषिताम्॥
स्थिर भाव से जलते स्वर्णदीप ऐसे दिख रहे थे जैसे महाधूर्तों से जुये में पराजित धूर्तगण हों। नाना वर्ण के आभरण शृंगार से युक्त सहस्रो सुंदरी स्त्रियाँ बिछौनों पर पड़ी थीं। आधी रात ढल चुकी थी, मदिरापान और क्रीड़ा से विरत थकी वे स्त्रियाँ सुख पूर्वक सो रही थीं। आभूषणों की झंकार नहीं रह गयी थी, नि:शब्द वातावरण ऐसा लगता था जैसे कोई विशाल कमलवन हंसस्वर एवं भौंरों के गुञ्जार से रहित शांत पड़ा हो। पद्मगंधा सुंदरी ललनाओं के मुँदे नेत्र और मुँदी दंतावली वाले वदन मारुति ने निरखे। उनके चमकते मुख कमल पुष्पों की भाँति ही थे जो प्रात: होने पर खिल जाते हैं और रात होने पर अपनी पंखुड़ियाँ सिकोड़ लेते हैं, मत्त भौंरे उन मुखों की पुन: पुन: कामना में हैं जैसे प्रफुल्लित कमल के लिये रहते हैं। स्त्रियों द्वारा विराजित शयनशाला वैसी ही लग रही थी जैसे शरद ऋतु की तारामण्डित शांत रात में आकाश हो।
उन स्त्रियों से घिरा हुआ रावण वैसे ही शोभित हो रहा था जैसे तारों से घिरा चंद्रमा। हनुमान को लगा कि पुण्य क्षीण होने पर जो तारे टूट अम्बर से गिरते हैं, वे ही यहाँ स्त्रियों के रूप में एकत्रित हैं। उन स्त्रियों की प्रभा, वर्ण और प्रसन्न आभा ऐसी थीं जैसे महान तारकगण शुभ द्युति से शोभित हो रहे हों।
रावण चंद्र है और स्त्रियाँ तारों समान किंतु समस्त चमक दमक की वास्तविकता कवि केवल एक शब्द प्रयोग से दर्शा देते हैं – पुण्यशेषसमावृता:, पुण्य तो इनका क्षीण हो चुका है!
कवि सोती हुई सुंदरियों का वर्णन करते हैं – व्यावृत्तगुरुपीनस्रक्प्रकीर्णवरभूषणाः। पानव्यायामकालेषु निद्रापहृतचेतसः॥ पान और नाचगान के व्यायाम से थकी उन नायिकाओं की चेतना नींद ने चुरा ली थी। भारी और पीन वस्त्राभरण अस्त व्यस्त थे। बहुतों के माथे से तिलक मिट गये थे, कइयों के नूपुर उद्भ्रांत थे तो कुछ के टूटे हुये हार उनके पार्श्व में पड़े हुये थे। मोतियों के हार टूटे, वस्त्र देह से खिसक गये थे और करधनियाँ भी स्थान च्युत थीं। थकी स्त्रियाँ वैसे सो रही थीं जैसे थकी हुई घोड़ियाँ बोझ इधर उधर पटक पड़ गयी हों! कुण्डल गिर गये थे, मालायें टूट गयी थीं, ऐसे पड़ीं थीं जैसे गजराज द्वारा मर्दित लतायें महावन में पड़ी हों।
चंद्रकिरणों जैसे हार स्तनों के बीच बिटुर कर ऐसे शोभित हो रहे थे जैसे हंस सो रहे हों – हंसा इव बभुः सुप्ताः स्तनमध्येषु योषिताम्। कुछ के कुच बीच वैदूर्य मणि हार कादम्ब पक्षियों की भाँति लग रहे थे तो कुछ के कुच मध्य स्वर्ण सूत्र चकवा चकवी की भाँति। उनकी पुलिन समान जाँघें चमकती हुई ऐसी शोभायमान थीं जैसे हंस, कारण्डव एवं चक्रवाक से भरी सजी नदी के किनारे हों। उनके कंगन उस नदी में स्वर्ण कमल समान थे एवं विलासी भावनायें ग्राह समान। किन्हीं किन्हीं के सुकोमल अङ्गों और स्तन चूचुकों पर शुभ लेपन रेखायें ऐसे शोभ रही थीं जैसे कि आभूषण हों – मृदुष्वङ्गेषु कासांचित्कुचाग्रेषु च संस्थिताः। किसी किसी के मुख पर पड़ा आँचल किसी दूसरी की साँसों से हिल हिल अति शोभा दे रहा था। सुवर्ण खचित नाना वर्णों के वस्त्र रावण पत्नियों के वक्त्रक्षेत्र (कण्ठ के आधार) पर सुंदर पताकाओं की भाँति लहरा रहे थे।
शरद ऋतु सी रात है, नायक है, नायिकायें हैं और क्रीड़ा, सुरत, पानादि से थके जन सो रहे हैं, ऐसे में नायिका चेष्टाओं की बातें तो आख्यानक करेंगे ही। ये चेष्टायें जानबूझ कर की जाने वाली चेष्टायें नहीं हैं, सुखनिद्रा की हैं, जिनमें उसके पहले के विलास की स्मृतियाँ एवं चिह्न भी हैं।
शेष अगले अंक में
लिपटने के कारण यह स्थिर करना कठिन था कि कौन गहना है, कौन पुष्पमाला और कौन अंग?
विवेकः शक्य आधातुं भूषणाङ्गाम्बरस्रजाम्
अद्भुत वर्णन !!!