वाल्मीकीय रामायण से – 35, सुन्दरकाण्ड [रामस्य शोकेन समानशोका]
रामस्य शोकेन समानशोका … हे वानर ! जो तुमने यह कहा कि राम का मन अन्य की ओर लगता ही नहीं एवं वे शोकनिमग्न रहते हैं, वह मुझे विषमिश्रित अमृत के समान लगा है ।
रामस्य शोकेन समानशोका … हे वानर ! जो तुमने यह कहा कि राम का मन अन्य की ओर लगता ही नहीं एवं वे शोकनिमग्न रहते हैं, वह मुझे विषमिश्रित अमृत के समान लगा है ।
Matsya Puran मत्स्य पुराण में परशुराम संज्ञा नहीं है, न उनके अवतरण की कोई कथा एवं न ही किसी प्रतिशोध की। भार्गव राम या राम जामदग्न्य उल्लिखित हैं।
न चास्य माता न पिता च नान्यः स्नेहाद्विशिष्टोऽस्ति मया समो वा ।
तावत्त्वहं दूत जिजीविषेयं यावत्प्रवृत्तिं शृणुयां प्रियस्य ॥
न माता से, न पिता से एवं न किसी अन्य से उनका प्रेम, मेरे प्रति प्रेम से विशिष्ट है (अर्थात मेरे प्रति उनका प्रेम समस्त सम्बन्धों के प्रेम से विशिष्ट है)।
अत:, हे दूत ! मेरी जीने की इच्छा तब तक ही बनी रहनी है, जब तक मैं अपने प्रिय का वृतान्त सुनती रहूँ।
Valmiki Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड : तुम विक्रान्त हो, समर्थ हो, प्राज्ञ हो, तुमने अकेले ही राक्षस राजधानी को प्रधर्षित कर दिया है।
मारुति का श्रीराम के गुह्य अङ्गों का अभिजान देवी सीता के मन में विश्वास दृढ़ करने में सहायक हुआ कि यह अवश्य ही उन्हीं का दूत है, कोई मायावी बहुरूपिया राक्षस नहीं। आगे हनुमान स्वयं कहते भी हैं – विश्वासार्थं तु वैदेहि भर्तुरुक्ता मया गुणा:। आदि कवि भी पुष्टि करते हैं – एवं विश्वासिता सीता हेतुभि: शोककर्शिता, उपपन्नैरभिज्ञानैर्दूतं तमवगच्छति।
संस्कृत सरल – 1 : प्रश्नवाचक वाक्य। भवान् कथं अस्ति ? – आप कैसे हैं ?
देववाणी अभ्यास माला। बोलत बोलत अभ्यास ते आ संस्कृत बोल सुजान।
आदिकाव्य रामायण : उपस्थिति सुहावन थी किन्तु जनस्थान की स्मृति भी थी। वानर सौम्य है, मन विश्वास करने को कहता था। अविश्वास भी, कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही?
आदिकाव्य रामायण , सुन्दरकाण्ड से : जाने कितने ताप भरे दिन बीते थे, शोक एवं प्रताड़ना के जाने कितने कर्कश शब्द सुनने के पश्चात कोई प्रियवादी कुशल क्षेम पूछने वाला मिला था, हर्षित सीता अपनी रामकहानी कहती चली गयीं … श्रीराम के बिना मुझे स्वर्ग में भी निवास भी नहीं रुचता – न हि मे तेन हीनाया वासः स्वर्गेऽपि रोचते।
लघु दीप अँधेरों में : जो पुरुष शत्रुओं द्वारा दिये गये बिना लोहे का बना शस्त्र ग्रहण कर लेता है, वह साही के घर में प्रवेश कर हुताशन से बच जाता है। विचरण करते रहने से मार्गों का ज्ञान हो जाता है, नक्षत्रों से दिशा को जाना जाता है। अपने पाँच को पीड़ा पहुँचाने वाला पीड़ित नहीं होता।
आदिकाव्य रामायण : सुंदरकांड: तिरछे देखा, उचक कर ऊपर देखा, किञ्चित नीचे देखा। पिङ्गाधिपति सुग्रीव के अमात्य, अचिन्त्य बुद्धि सम्पन्न वातात्मज हनुमान उदित होते सूर्य की भाँति दिख गये। सा तिर्यगूर्ध्वं च तथाप्यधस्तान्निरीक्षमाणा तमचिन्त्यबुद्धिम् सूर्यवंशी श्रीराम के दूत हनुमान आन पहुँचे थे। दु:खों की रजनी बीत चुकी थी।
लघु दीप अँधेरों में : जो उद्योग करने के समय उद्योग न करने वाला, युवा एवं बली हो कर भी आलस्य से युक्त होता है, जिसने उच्च आकांक्षाओं को छोड़ दिया है एवं जो दीर्घसूत्री है, वह आलसी प्रज्ञा के मार्ग को प्राप्त नहीं होता।
काली पुतली, रक्ताभ कोर वाली स्वच्छ सुंदर आँखों की फड़कन का सौंदर्य दर्शाने के लिये आदिकवि ने अद्भुत कोमल प्रभावमयी उपमा का सहारा लिया है – सजल आँखें सरोवर भाँति जिसमें कमल एवं तैरती मछली, सहसा ही चित्र खिंच जाता है। क्षण को शब्दकारा में बन्दी बना लेना इसे कहते हैं।
आदिकाव्य रामायण से सुन्दरकाण्ड : जिनके अन्त:करण वश में हैं, कोई प्रिय या अप्रिय नहीं हैं,उन अनासक्त महात्माओं को नमस्कार है जिन्होंने स्वयं को प्रिय एवं अप्रिय भावनाओं से दूर कर लिया है। प्रीति उनके लिये दु:ख का कारण नहीं होती, अप्रिय से उन्हें अधिक भय नहीं होता।
आदिकाव्य रामायण : उन जाज्वल्यमान नारियों के उदाहरण सीता ने दिये, जो भार्या मात्र नहीं रहीं, अपने सङ्गियों के साथ प्रत्येक पग जीवनादर्शों हेतु संघर्षरत रही थीं। ऐसा कर मानुषी सीता ने भोग एवं भार्या मात्र होने के प्रलोभन की तुच्छता स्पष्ट कर दी थी।
सीता न केवल रावण के मनोवैज्ञानिक प्रपञ्चों के पाश से पूर्णत: मुक्त रही अपितु वे रावण को प्रभावी ढंग से अपने मानस की दृढ़ता का परिचय भी देती रही। धन्य हैं उनके सतीत्व का ताप जो रावण के मानस को ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निर्बल बनाने में सहायक हो रहा था।
shiv linga skanda शिव, लिङ्ग एवं स्कन्द पुराण : दक्ष का यज्ञ ध्वंस साङ्केतिक भी है। शिव के लिये प्रयुक्त शब्द अमंगलो, अशिव, अकुलीन, वेदबाह्य, भूतप्रेतपिशाचराट्, पापिन्, मंदबुद्धि, उद्धत, दुरात्मन् बहुत कुछ कह जाते हैं। इस पुराण के वैष्णव खण्ड में यज्ञ के अध्वर रूप की प्रतिष्ठा की गयी है, पशुबलि का पूर्ण निषेध है।
सुन्दरकाण्ड : पत्तों के झुरमुट में पुष्पों से ढक से गये हनुमान ने उसे पहचानने का प्रयत्न किया। विचित्र वस्त्राभरणों को धारण किये हुये रावण के कान ऐसे थे जैसे कि खूँटे गाड़ रखे हों! – क्षीबो विचित्राभरणः शङ्कुकर्णो। यह निश्चय कर कि यही रावण है, मारुति जहाँ बैठे थे, वहाँ से कुछ नीचे उतर आये ताकि ठीक से देख सकें।
सुन्दरकाण्ड : संदिग्ध अर्थ वाली स्मृति, पतित ऋद्धि, विहत श्रद्धा, भग्न हुई आशा, विघ्न युक्त सिद्धि, कलुषित बुद्धि, मिथ्या कलङ्क से भ्रष्ट हुई कीर्ति। इन दो श्लोकों में कवि ने करुणा परिपाक के साथ ज्यों समस्त आर्य संस्कारों का तापसी पर अभिषेक कर दिया!