सुरक्षा को सरल रूप में सँभाल कर रखने या बनाये रहने से समझा जा सकता है। वस्तु, जीव, समाज, पर्यावरण, विधि, नियम इत्यादि सबके लिये सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है। सोच समझ कर किये जाने वाले परिवर्तनों के लिये भी सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती है। सुरक्षा उपादान, विधि निषेध, मानकीकरण, कार्यान्वयन एवं समर्पण का समन्वित प्रभाव रूप होती है। देखें तो सुरक्षा रूपी शृंखला की ये कड़ियाँ हैं जिनमें से किसी भी एक के टूटने या निर्बल होने से सुरक्षा संकट उत्पन्न होता है। सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये एक सुनियोजित वैज्ञानिक तंत्र महती आवश्यकता होता है।
मोटा-मोटी सुरक्षा को तीन प्रकार से देख सकते हैं:-
- निषेधात्मक
- अनुक्रियात्मक
- सातत्यपरक
निषेध का अर्थ मनाही से है। ऐसे काम जिन्हें करने से संकट उत्पन्न होता हो या उसकी प्रबल सम्भावना बनती हो, मना किये जाते हैं। उदाहरणतया – आग में हाथ न देना, बिजली के नंगे तार न पकड़ना इत्यादि।
अनुक्रियात्मक सुरक्षा का सम्बंध संकट की स्थिति में निवारक प्रक्रिया से है। आग लग गई तो बुझाने के लिये उपादान, मनुष्य और प्रषिक्षण तंत्र की सतत उपस्थिति इसका एक उदाहरण है। निवारण ऐसे करना होता है कि कम से कम हानि के साथ और कम से कम समय में स्थिति पुन: सामान्य कर दी जाये।
सातत्यपरक सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण होती है। यह निरंतरता सुनिश्चित कर अनुक्रियात्मक कार्रवाई की आवश्यकता को न्यूनतम रखती है। किसी कारखाने में जब हम कहते हैं कि हमने इतने दुर्घटना रहित घण्टे सुनिश्चित किये तो सातत्यपरक सुरक्षा की ही बात कर रहे होते हैं। कोई भी सु-तंत्र सातत्यपरक सुरक्षा पर ही सबसे अधिक संसाधनों को लगाता है और उनकी प्रभावोत्पादकता बनाये रखने हेतु विभिन्न क्रिया कलाप निरंतर जारी रखता है।
सुरक्षा कोई ऐसी वस्तु या अवधारणा नहीं जो कि सीमा, बड़े कारखानों, कार्यालयों पर ही लागू होती हो। सुरक्षा की आवश्यकता आप की देह, परिवार, घर से आरम्भ कर समूची पृथ्वी के पर्यावरण तक है। स्थिर मन से विचार करेंगे तो पायेंगे कि आप जाने अनजाने सम्पूर्ण जीवन ही सुरक्षा की चिंता में रहते हैं। इसे जिजीविषा और जीवित रहने के अनुकूल प्राकृतिक ‘प्रोग्रामिंग’ से भी समझ सकते हैं।
कोई भी जनसमूह, जाति, देश, राष्ट्रीयता, पंथ, मत यदि सुरक्षा के तीनों प्रकारों के बारे में सजग और सक्रिय नहीं रहता तो वह अपने अवश्यम्भावी विनाश की ओर बढ़ रहा होता है। सुरक्षा के प्रति असावधानी और अवहेलना वस्तुत: प्रकृति की व्यवस्था के उस अङ्ग के हत्थे पड़ना होता है जो संतुलन एवं सहजीविता के विचित्र नियमों से संचालित होता असावधानों को नष्ट करने में सतत लगा रहता है।
आज भारतीय जन को ‘सुरक्षा’ के प्रति सजग हो समीक्षा एवं कार्रवाई करने की आवश्यकता है। जीवनशैली, मान्यतायें, क्रियाकलाप एवं सबसे अधिक चिंतन पद्धति विषाक्तता से ग्रसित हो चुके हैं। चेतिये! समय की पुकार तीव्र है।