भरतस्य शपथाः (द्वितीयः भागः)

भरतस्य शपथाः (द्वितीयः भागः)

भरतस्य शपथाः (द्वितीयः भागः)।
वाल्मीकीये रामायणे भरतः श्रीरामस्य वनगमने तस्य लेशमात्रोऽपि प्रयत्नः नास्ति इति माता कौसल्यां प्रति विश्वास्यति । तदा भरतः सौगन्धरूपेण बहूनि अकर्तव्यानि पातकानि च वदति यथा — यस्य कारणाद् आर्यः श्रीरामः वनं गतः सः एतत्पापफलं प्राप्नोति, पूर्वभागतः अग्रे वयं पश्यामः।

भरतस्य शपथाः (प्रथमः भागः)

भरतस्य शपथाः (प्रथमः भागः)

वाल्मीकीये रामायणे बहुषु स्थानेषु तत्समये किम्कर्तव्यम किमकर्तव्यम् इति शिक्षा मिलति, परस्पर द्वयोः जनयोः सम्वाद रूपे लेखकस्य स्वगतविचारे वा । यथा अयोध्याकाण्डे श्रीरामः पितुः वचनानुसारेण स्वराज्याभिषेकं त्यक्त्वा सीतालक्ष्मणौ सह वनं प्रति गच्छति । भरतः कैकय राज्यात् अयोध्यायां आगमने महाराज दशरथस्य देहान्तं श्रीरामस्य वनगमनं च शृणोति स्म । सः कैकय्याः दुष्कृत्याय जननीं कुत्सयति स्वाक्रोशं च प्रदर्शयति

Did Rama eat meat during his exile?

Did Rama eat meat during his exile?

Did Rama eat meat’ will be a long article in many parts as it will examine the whole Vālmīkīya Rāmāyaṇa (VR), not being speculative to the maximum extent possible, to find out what exactly comes out about the oft raised issue of meat eating in general and by Rāma during exile in particular. The article will be a ‘dynamic one’ as I’ll be revising and refining it basis new and relevant findings in other sources and new insights. Meat here should be taken as ‘cooked animal flesh’ taken as diet.

Sundarkand रामपत्नीं यशस्विनीम्

Sundarkand रामपत्नीं यशस्विनीम् : रामायण – ५५

Sundarkand रामपत्नीं यशस्विनीम् – – मैंने पिघले कञ्चन के समान सुंदर वर्ण वाली सीता को देखा। उन कमलनयनी का मुख उपवास के कारण कृश हो गया था।

Sundarkand सुंदरकांड

लंकादहन की भूमिका – सुंदरकांड [प्रदीप्तलाङ्गूलस्सविद्युदिव तोयदः] – ५१

लंकादहन की भूमिका – किरणों के घेरे में परम तेजस्वी सूर्य सम प्रकाशित मारुति द्वारा चलाये जाते परिघ का सम्पूर्ण बिम्ब भासमान हो उठता है।

Valmiki Ramayan Sundarkand Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण

Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण -36, सुन्‍दरकाण्ड [हर्षविस्मितसर्वाङ्गी]

देवी देवताओं की ही भाँति वाहन बना निज आरोहण का प्रकट आह्वान था तो ‘शोभने’ सम्बोधन में मानों सङ्केत भी था कि ऐसा करना अशोभन होगा, मैं तो प्रस्तुत हूँ !

Valmiki Ramayan Sundarkand Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण

Valmiki Ramayan Sundarkand रामायण-34..रामं रामार्थयुक्तं विरराम रामा

न चास्य माता न पिता च नान्यः स्नेहाद्विशिष्टोऽस्ति मया समो वा ।
तावत्त्वहं दूत जिजीविषेयं यावत्प्रवृत्तिं शृणुयां प्रियस्य ॥
न माता से, न पिता से एवं न किसी अन्य से उनका प्रेम, मेरे प्रति प्रेम से विशिष्ट है (अर्थात मेरे प्रति उनका प्रेम समस्त सम्बन्‍धों के प्रेम से विशिष्ट है)।
अत:, हे दूत ! मेरी जीने की इच्छा तब तक ही बनी रहनी है, जब तक मैं अपने प्रिय का वृतान्‍त सुनती रहूँ।

आदिकाव्य रामायण से – 33, सुन्‍दरकाण्ड [विक्रान्तस्त्वं समर्थस्त्वं प्राज्ञस्त्वं वानरोत्तम]

Valmiki Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्‍दरकाण्ड : तुम विक्रान्‍त हो, समर्थ हो, प्राज्ञ हो, तुमने अकेले ही राक्षस राजधानी को प्रधर्षित कर दिया है।

Valmiki Ramayan Sundarkand Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण

आदिकाव्य रामायण से – 32, सुन्‍दरकाण्ड [हनूमन्तं च मां विद्धि तयोर्दूतमिहागतम्]

मारुति का श्रीराम के गुह्य अङ्गों का अभिजान देवी सीता के मन में विश्वास दृढ़ करने में सहायक हुआ कि यह अवश्य ही उन्हीं का दूत है, कोई मायावी बहुरूपिया राक्षस नहीं। आगे हनुमान स्वयं कहते भी हैं – विश्वासार्थं तु वैदेहि भर्तुरुक्ता मया गुणा:। आदि कवि भी पुष्टि करते हैं – एवं विश्वासिता सीता हेतुभि: शोककर्शिता, उपपन्नैरभिज्ञानैर्दूतं तमवगच्छति। 

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आदिकाव्य रामायण से – 31, सुंदरकांड [कीदृशं तस्य संस्थानं रूपं रामस्य कीदृशम्]

आदिकाव्य रामायण : उपस्थिति सुहावन थी किन्‍तु जनस्थान की स्मृति भी थी। वानर सौम्य है, मन विश्वास करने को कहता था। अविश्वास भी, कहीं मैं सपना तो नहीं देख रही?

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आदिकाव्य रामायण से – 30, सुन्‍दरकाण्ड [अहं रामस्य संदेशाद्देवि दूतस्तवागतः]

आदिकाव्य रामायण , सुन्‍दरकाण्ड से : जाने कितने ताप भरे दिन बीते थे, शोक एवं प्रताड़ना के जाने कितने कर्कश शब्द सुनने के पश्चात कोई प्रियवादी कुशल क्षेम पूछने वाला मिला था, हर्षित सीता अपनी रामकहानी कहती चली गयीं … श्रीराम के बिना मुझे स्वर्ग में भी निवास भी नहीं रुचता – न हि मे तेन हीनाया वासः स्वर्गेऽपि रोचते।

Valmiki Ramayan Sundarkand Valmikiya Ramayan वाल्मीकीय रामायण

आदिकाव्य रामायण से – 29, सुन्‍दरकाण्ड [तथा सर्वं समादधे]

आदिकाव्य रामायण : सुंदरकांड: तिरछे देखा, उचक कर ऊपर देखा, किञ्चित नीचे देखा। पिङ्गाधिपति सुग्रीव के अमात्य, अचिन्त्य बुद्धि सम्पन्न वातात्मज हनुमान उदित होते सूर्य की भाँति दिख गये। सा तिर्यगूर्ध्वं च तथाप्यधस्तान्निरीक्षमाणा तमचिन्त्यबुद्धिम् सूर्यवंशी श्रीराम के दूत हनुमान आन पहुँचे थे। दु:खों की रजनी बीत चुकी थी।

आदिकाव्य रामायण से – 28, सुन्‍दरकाण्ड […प्रणष्टं, वर्षेण बीजं प्रतिसंजहर्ष]

काली पुतली, रक्ताभ कोर वाली स्वच्छ सुंदर आँखों की फड़कन का सौंदर्य दर्शाने के लिये आदिकवि ने अद्भुत कोमल प्रभावमयी उपमा का सहारा लिया है – सजल आँखें सरोवर भाँति जिसमें कमल एवं तैरती मछली, सहसा ही चित्र खिंच जाता है। क्षण को शब्दकारा में बन्‍दी बना लेना इसे कहते हैं।

आदिकाव्य रामायण से – 27, सुन्‍दरकाण्ड [न च मे विहितो मृत्युरस्मिन्दुःखेऽपि वर्तति]

आदिकाव्य रामायण से सुन्‍दरकाण्‍ड : जिनके अन्त:करण वश में हैं, कोई प्रिय या अप्रिय नहीं हैं,उन अनासक्त महात्माओं को नमस्कार है जिन्होंने स्वयं को प्रिय एवं अप्रिय भावनाओं से दूर कर लिया है। प्रीति उनके लिये दु:ख का कारण नहीं होती, अप्रिय से उन्हें अधिक भय नहीं होता।

आदिकाव्य रामायण से – 26, सुन्‍दरकाण्ड […तथाऽहमिक्ष्वाकुवरं रामं पतिमनुव्रता]

आदिकाव्य रामायण : उन जाज्वल्यमान नारियों के उदाहरण सीता ने दिये, जो भार्या मात्र नहीं रहीं, अपने सङ्गियों के साथ प्रत्येक पग जीवनादर्शों हेतु संघर्षरत रही थीं। ऐसा कर मानुषी सीता ने भोग एवं भार्या मात्र होने के प्रलोभन की तुच्छता स्पष्ट कर दी थी।

Valmikiya Ramayan प्रमदावन विध्वंसक हनुमान

आदिकाव्य रामायण से – 24 : सुन्‍दरकाण्ड, [तृणमन्तरतः कृत्वा – तिनके की ओट से]

आदिकाव्य रामायण से – तिनके की ओट से पर स्त्रियों के अपहरण एवं बलात्कार को अपना धर्म बता कर रावण उस परम्परा का प्रतिनिधि पुरुष हो जाता है जो आज भी माल-ए-ग़नीमत की बटोर में लगी है। येजिदी, कलश नृजातीय स्त्रियों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं! उन अत्याचारियों के लिये भी पराई पीड़ा का कोई महत्त्व नहीं, केवल लूट की पड़ी है।

Valmikiya Ramayan प्रमदावन विध्वंसक हनुमान

आदिकाव्य रामायण से – 22 : सुन्‍दरकाण्ड, [प्रशस्य तु प्रशस्तव्यां सीतां तां]

सुन्‍दरकाण्ड : संदिग्ध अर्थ वाली स्मृति, पतित ऋद्धि, विहत श्रद्धा, भग्न हुई आशा, विघ्न युक्त सिद्धि, कलुषित बुद्धि, मिथ्या कलङ्क से भ्रष्ट हुई कीर्ति। इन दो श्लोकों में कवि ने करुणा परिपाक के साथ ज्यों समस्त आर्य संस्कारों का तापसी पर अभिषेक कर दिया!