सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 , 6, 7, 8, 9 से आगे
सनातन बोध और आधुनिक सिद्धांतों के तुलनात्मक अध्ययन में एक बात स्पष्ट हो सामने आती है कि यह बोध व्यापक है। मुख्यतः अनुभूत के बारे में कम शब्दों में केवल निष्कर्ष लिखे गये। इसका एक कारण श्रुति की परंपरा होने से कम शब्दों में गूढ़ छंद रचने की कला प्रतीत होती है। सनातन दर्शन का लक्ष्य है प्रबोधन – चैतन्य – चरम अनुभूति। सांख्य, अनेकांतवाद, नीति, बुद्ध के दर्शन इत्यादि में समरूप बातें होती हुई भी आधुनिक सिद्धांत उन गूढ़ दर्शनों के केवल विशेष अवस्था भर के सिद्धांत प्रतीत होते हैं। जैसे WYSIATI के साथ दस बीस संज्ञानात्मक पक्षपात के सिद्धांतों को एक साथ मिला देने से अनेकांतवाद के सिद्धांत के दर्शन हो जाते हैं। पश्चिमी मनोविज्ञान के सिद्धांत जहाँ समाप्त हो जाते हैं सनातन दर्शन में उसके आगे की बातें अधिक हैं। हमने जिस WYSIATI के सिद्धांत की चर्चा पिछले लेखांश में की उसके सारे उदाहरण सनातन बोध के एक निचले स्तर में ही समाहित दिखते हैं।
इस बात के पर्याप्त उदाहरण उन व्यक्तियों के लेखन में मिलते हैं जिन्होंने आधुनिक पश्चिमी सिद्धांतों का विस्तृत कुशल अध्ययन करने के बाद सनातन दर्शन की झलक देखी। राम दास के नाम से प्रसिद्ध एक अमेरिकी योगी पहले स्वयं एक हॉर्वर्ड मनोविज्ञानी (डॉ. रिचर्ड अल्पर्ट) थे। अपनी पुस्तक ‘बी हेयर नाउ’ में योगी परंपरा में वर्णित आध्यात्मिक ऊर्जा के सात चक्रों को व्यक्तित्व से जोड़ते हुए लिखते हैं:
किसी व्यक्ति का प्रमुख प्रयोजन या रुचि किस बात में है इससे उसके ऊर्जा के स्तर अर्थात चक्रों को चिह्नित किया जा सकता है। पहला चक्र उत्तरजीविता (survival) से जुड़ा हुआ है अर्थात जंगली या पशु प्रवृति। दूसरा चक्र प्रजनन (reproduction), तीसरा चक्र सामर्थ्य और प्रभुत्व (power and mastery)। सांसारिक गतिविधियों में मनुष्य इन तीन चक्रों की ऊर्जा का ही उपयोग करता है और ये तीनों चक्र अहं को बढ़ाने में लगे रहते हैं। अहं से ऊपर की यात्रा चौथे चक्र से होती है। चौथा चक्र – करुणा (compassion), पाँचवा – परमात्मा का अनुसंधान, छठा – ज्ञान (wisdom) और सातवाँ – चैतन्य (enlightenment)।
पश्चिमी मनोविज्ञान के इस दर्शन को समझते हुये वह आगे लिखते हैं:
The experience and habits associated with lust are domain of the second Chakra. Freud was the master spokesman of the person who is fixated in the second chakra, just as Adler was the spokesman for the third Chakra, and perhaps Jung the spokesman of the fourth. In our western culture there has been such an investment in the models of man associated with second and third chakra (sex and power) that we have developed strong and deeply held habits of perceiving the inner and out universe in these terms. Though we may realize intellectually that the spiritual journey requires the transformation of energy from these preoccupations to higher centers, we find it difficult to override these strong habits which seem to be reinforced by the vibration of the culture in which we live.
(वासना से सम्बंधित अनुभव और आदतें द्वितीय चक्र के क्षेत्र में आते हैं। जैसे ऐडलर तृतीय चक्र का प्रवक्ता था, वैसे ही फ्रॉयड दूसरे चक्र में फंसे व्यक्ति का प्रबल प्रवक्ता था। और जंग सम्भवत: चौथे चक्र का। (हमारी) पश्चिमी सभ्यता में द्वितीय और तृतीय चक्र (यौन, तथा बाहुबल) पर इतना ज़ोर है कि हमने आंतरिक और बाह्य संसार को समझने की गहरी और बलवती आदतें इसी आधार पर बनाई हैं। यद्यपि हमें यह बोध होता है कि आध्यात्मिक यात्रा के लिये ऊर्जा को इन जंजालों/बंधनों/उलझट्टों से निकलकर उच्चतर केंद्रों में रूपांतरित होना पड़ता है, फिर भी हमारी (पश्चिमी) संस्कृति की लहरों से प्रबल हुई आदतों से उबरना कठिन है।)
इस दृष्टि से देखें तो आधुनिक व्यावहारिक मनोविज्ञान के सिद्धांत भी आरम्भ के तीन चक्रों तक सीमित बात ही करते हैं। वही नहीं हमने क्रम में विकासवाद और व्यावहारिक मनोविज्ञान के जितने सिद्धांतों को देखा वे सभी इन आरम्भ के तीन स्तरों का ही वर्णन करते हैं जोकि सनातन सिद्धांतों के एक उपवर्ग की विशेषावस्था है। सिग्मँड फ़्रायड, ऐल्फ़्रेड ऐड्लर और कार्ल जंग जैसे मनोविज्ञान के आधुनिक मनीषियों के के अतिरिक्त हमारे विषय से अलग मनोविज्ञान के प्रसिद्ध सिद्धांत मैस्लो की वर्गीकृत आवश्यकतायें (Maslow’s hierarchy of needs) राम दास के इस यौगिक परंपरा के विश्लेषण के बोध से भला कितनी भिन्न हैं?
इन बातों को ध्यान में रखते हुए WYSIATI से मिलते जुलते कुछ और आधुनिक सिद्धांतों की चर्चा करते हैं। प्राइमिंग , अनुकूलन (Priming) अर्थात सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखना। प्रयोगों में पाया गया कि जब कुछ लोगों को so_p शब्द को पूरा करने को कहा गया तो इसके ठीक पहले जिन लोगों से स्वच्छता की बात की गयी और जिन लोगों से भोजन की बात, उन दो समूह के लोगों ने भिन्न भिन्न उत्तर भरे। यदि हम खाने के बारे में सोच रहे हों तो U भरते हैं और यदि सफ़ाई के बारे में सोच रहे हों तो A। इसी तरह यदि हम वृद्धों के बारे में सोच रहे हों तो हम स्वतः ही धीरे चलने लगते हैं। और यदि हमें धीरे चलने को कहा जाय तो हम उन शब्दों को पहचानते हैं जो वृद्धावस्था से जुड़े हुये होते हैं। यदि हम किसी को मुस्कुराने को कह कर चुटकुले सुनायेंं तो वही चुटकुले अधिक रम्य और आनददायी लगते हैं। इन प्रयोगों का सार है कि हम यदि बातों को अपने व्यवहार में लेकर आयेंं तो धीरे धीरे हमारी भावनायेंं उस स्तर पर स्वतः ही आ जाती हैं – ‘करत करत अभ्यास ते’ वाली बात। ऐसी कई बातें हमारी सोच को अनजाने प्रभावित करती रहती हैं। आधुनिक निर्णय शास्त्र (decision making) में प्रयुक्त होने वाले इस ‘नये सिद्धांत को पढ़ते हुए – संगति की सीख, वातावरण का प्रभाव – चाणक्य का ‘दीपो भक्षयते ध्वांतम कज्जलम च प्रसूयते’ या ‘तुलसी संगति साधु की’ जैसी कितनी पढ़ी हुई बातें याद आती हैं।
ठीक इसी तरह का एक सिद्धांत हैं – सहज संज्ञान (Cognitive ease) जिसके अनुसार पूर्वानुमानित और सहज ही दिखने वाली चीज़ें हमें सच लगती हैं। कोई बात सच है या नहीं इसका निर्णय तार्किक विधि से करने के स्थान पर अनजाने ही हम प्राय: इस बात के आधार पर कर लेते हैं कि हमारी अन्य मान्यताओं को वह बात किस तरह से समर्थन देती है, या उस बात कहने वाले को हम कितना पसंद करते हैं या हमें उस पर कितना भरोसा है। जो बातें जानी पहचानी लगती हैं वे हमें अधिक सच लगती हैं। इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं – विज्ञापन और मत विशेष के प्रचार (प्रॉपगैंडा)। जब हम झूठ बार बार सुनते हैं तो अंततः उस पर विश्वास करने लग जाते हैं। ये हुई कॉग्निटिव ईज़ की परिभाषा। इसे पढ़ते हुए मुझे याद आयी थी पंचतंत्र की कहानी ब्राह्मण और धूर्त ठगों वाली। बार बार बकरी कह धूर्त ठगों ने मूर्ख ब्राह्मण के बछड़े को ठग लिया ! समांतर सिद्धांतों का अंत नहीं है। नये सिद्धांत अद्भुत हैं, परंंतु इन्हें पढ़ते हुए इनके सनातन सिद्धांतों में समाहित होने की बात स्पष्ट होती जाती है।
इसी कड़ी में एक और प्रसिद्ध सिद्धांत है पुष्टिकरण पक्षपात (confirmation bias) का जिसके अनुसार हमारा मस्तिष्क उन बातों को ही महत्त्व देता है जिससे हमारी मान्यताओं की पुष्टि होती है और उन बातों की अनदेखी जिनसे हमारे मान्यताओं की पुष्टि नहीं होती अर्थात हम त्वरित निष्कर्ष पर पहुँच जाते है। उन्ही बातों को देखकर जिन्हें देखकर कोई और किसी अन्य निष्कर्ष पर पहुँचेगा, हम कुछ और ही निष्कर्ष निकाल लेते हैं। इसके उदाहरण तो भरे पड़े हैं। पत्रकार हों या विशेषज्ञ जो साक्षात्कार लेते समय और लिखते समय एक ही पक्ष के बारे में बात करते हैं दूसरा पक्ष वे देख ही नहीं पाते। वे उन्हीं कहानियों और बातों को छापते हैं जिनसे उनके मतों को समर्थन मिलता है।
प्रभामंडल प्रभाव (halo effect) एक अन्य रोचक संज्ञानात्मक सिद्धांत है। इसके अनुसार हम प्राय: संसार को श्वेत श्याम रूप में देखते हैं। हम जब किसी की एक छवि बना लेते हैं तो उसके विपरीत हम कोई बात सुन कर भी समझ नहीं पाते। हमें वह बात स्वीकार ही नहीं होती। डैनीएल कहनेमैन इसका एक सटीक उदाहरण देते हैं – हिटलर बच्चों और कुत्तों से प्यार करता था, यह कथन कोई सच नहीं मानता। लोग इस बात से उत्तेजित और अशांत हो जाते हैं। इसी तरह हम अपने नायकों के विरुद्ध कुछ भी नहीं सुन पाते। पर वास्तव में ऐसा नहीं होता। जो हमें बहुत अच्छा लगता है उसमें भी दोष होते हैं। जो देखने में बहुत अच्छा हो वह बहुत अच्छा नेता भी हो, ऐसा होना आवश्यक नहीं। प्रभामंडल प्रभाव के संदर्भ पुराणों में भरे पड़े हैं। सबसे बड़ा उदाहरण – रावण।
अह रुपमहो धैर्यमहो सत्त्वमहो द्युतिः। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
यद्यधर्मो न बलवान् स्यादयं राक्षसेश्वरः। स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता॥
(क्रमशः:)