गायें, वृषाकपि, एकशृंग, वाराह और सरस्वती सिंधु (हड़प्पा) की प्रतीक विद्या – डॉ. सुभाष काक
यदि भारतीय विज्ञान यूनानी और बेबीलोनियाई विज्ञान से बहुत पुराना है तो पिछली पीढ़ी के विद्वानों की इस तथ्य से इतनी उलटी समझ कैसे रही?
उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में जब जब यूरोप ने भारत के विशाल साहित्य पर दृष्टिपात आरम्भ किया तो उसका साक्षात्कार बहुत पुरानी सामग्री से हुआ, जो कि बाइबिल में बताई गई 4004 ई.पू. सृष्टि रचना काल से भी बहुत पुरानी थी। विद्वानों ने उनके इतने पुराने होने को अत्यल्प विश्वसनीय माना और यह निर्णय लिया गया कि भारतीय इतिहास की पुनर्रचना पूर्णत: भाषावैज्ञानिक शोध के आधार पर की जाये।
भारतीय ज्योतिष को मेसोपटामिया और यूनान के ज्योतिष से नि:सृत बताने के सिद्धांत के पीछे चक्रीय तर्क पद्धति थी। ज्यामिति सम्बंधित भारतीय ग्रंथों को यूक्लिड पश्चात काल का बताने की पृष्ठभूमि में पूर्णत: यूनानी ज्यामिति की परिकल्पित प्राथमिकता थी।
हजार गायें, एक के ऊपर एक
इस धारणा को कि भारतीय जन अत्यल्प ज्योतिष ही जानते थे, एक प्राचीन ग्रंथ पञ्चविश ब्राह्मण के इस भाग से पुष्ट माना गया जिसके अनुसार,
[यावद्वै सहस्रं गाव उत्तराधरा इत्याहुस्तावदस्मात् लोकात् स्वर्गो लोक इति तस्मादाहुः सहस्रयाजी वा इमान् लोकान् प्राप्नोति। (१६.८.६)]
स्वर्ग लोक इहलोक से एक के ऊपर एक कर रखी गयी हजार ‘गाव’ इतना दूर है।
गौ के बहुवचन गाव का क्या अर्थ है? शब्द व्युत्पत्ति के प्राचीनतम भारतीय ग्रंथ यास्क के निरुक्त में देखें तो इस शब्द के प्राथमिक अर्थ निम्न क्रम में दिये हुये हैं – पृथ्वी, पशु गाय, प्रत्यञ्चा, सूर्य और प्रकाश किरण।
[२,५ अथ.अतो.अनुक्रमिष्यामह्/
२,५ गौर्.इति.पृथिव्या.नामधेयम्,.यद्.दूरम्.गता.भवति/(२,५)
२,५ यच्.च.अस्याम्.भूतानि.गच्छन्ति/(२,५)
२,५ गातेर्.वा.औ.कारो.नाम.करणह्/(२,५)
२,५ अथ.अपि.पशु.नाम.इह.भवत्य्.एतस्माद्.एव/(२,५)[१७७]
२,५ अथ.अप्य्.अस्याम्.ताद्धितेन.कृत्स्नवत्.निगमा.भवन्ति/(२,५)[उसेद्.इन्.अ.देरिवतिवे.सेन्से]
२,५ ’’गोभिः.श्रीनीत.मत्सरम्/ऽऽ.इति.पयसह्/(२,५)[१७७]
२,५ मत्सरः.सोमो.मन्दतेस्.तृप्ति.कर्मणह्/(२,५)
२,५ मत्सर.इति.लोभ.नाम.अभिमत्त.एनेन.धनम्.भवति/(२,५)[१७७]
२,५ पयस्.पिबतेर्.वा.प्यायतेर्.वा/(२,५)
२,५ क्षीरम्.क्षरतेर्.घसेर्.वा.ईरो.नाम.करणह्,.उशीरम्.इति.यथा/(२,५)[१७७]
२,५ ’’ंशुम्.दुहन्तो.अध्यासते.गविऽऽ.इत्य्.अधिसवन.चर्णमह्/(२,५)
२,५ अंशुः.शम्.अष्ट.मात्रो.भवत्य्,.अननाय.शम्.भवति.इति.च/(२,५)
२,५ चर्म.चरतेर्.वा.उच्चृत्तम्.भवति.इति.वा/
२,५ अथ.अपि.चर्म.च.श्लेस्मा.च/
२,५ ’’गोभिः.सम्नद्धो.असि.वीलयस्वऽऽ.इति.रथ.स्तुति७/(२,५)[१७७]
२,५ अथ.अपि.स्नाव.च.श्लेस्मा.च/ऽऽ.गोभिः.सम्नद्धा.पतति.प्रसूताऽऽ.इति.इषु.स्तुति७/(२,५)
२,५ ज्या.अपि.गौर्.उच्यते/(२,५)
२,५ गव्या.चेत्.ताधितम्,.अथ.चेत्.न.गव्या.गमयति.इसून्.इति/२,५/]
अब यह अनुमान लगाइये कि इस ग्रंथ के प्रसिद्ध डच अनुवादक ने कौन से अर्थ का प्रयोग किया? गाय! उसका अनुवाद इस प्रकार किया गया:
‘स्वर्ग लोक इहलोक से एक के ऊपर एक कर रखी गयी हजार गायों (!) इतना दूर है।’
हमें कैसे पता कि यह अनुवाद त्रुटिपूर्ण है? यदि पूर्वज आदिम अवस्था में होते तो उनका वास्तविक अभिप्रेत यह हास्यास्पद कथन होता कि स्वर्ग लोक इहलोक से एक के ऊपर एक कर रखी गयी हजार गायों (!) इतना दूर है। उनका अभिप्रेत क्या था, यह जानने के लिये हमें दूसरे ग्रंथों से स्वतंत्र प्रमाण ढूँढ़ने होंगे।
प्राचीन ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार सूर्य (द्युलोक से आधी दूरी पर स्थित) पृथ्वी से लगभग 500 पृथ्वी-व्यास के तुल्य दूरी पर स्थित है, अत: सहज बुद्धि से ग्रहण करें तो यास्क के निरुक्त में ‘गौ’ का बताया गया पहला अर्थ ‘पृथ्वी’ इस प्रसंग में उपयुक्त है। यवनों और बेबीलोन निवासियों ने भी सूर्य को लगभग इतनी दूर ही बताया। यह होते हुये भी, आज कल की कई पाठ्यपुस्तकें त्रुटियुक्त अनुवाद को ही दुहराती हैं।
यास्क द्वारा ‘गौ’ के दिये गये अर्थों का अनुक्रम देखें तो हमें भारत में गाय की पवित्रता से सम्बंधित प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। गाय पृथ्वी की पवित्रता का प्रतीक है। यवनों ने भी पृथ्वी को गाय के प्रतीक में ही देखा, गाइया।
त्रिपाद बछड़ा ‘वत्स’
गाय के बारे में बात करते हुये अब हम वैदिक काल के प्रसिद्ध त्रिपाद ‘बछड़े’ पर दृष्टि डालते हैं। वैदिक वाङ्मय के सबसे प्रसिद्ध मंत्र गायत्री को बछड़े का नाम अथर्ववेद (13.1.10) में दिया गया है।
अन्यत्र गायत्री को तीन पादों वाला गीत या तीन पादों वाली प्रकाश किरण कहा गया है।
यह अगम्भीर (प्रतीत होने वाला) नाम यह सुझाने के लिये दिया गया है कि प्रतीकात्मकता और मंत्र के शब्दश: अर्थ के साथ ‘अंतर्दृष्टि’ को जोड़ने की आवश्यकता है जिससे कि वह बुद्धि और सूक्ष्म ज्ञान का ‘चतुष्पाद’ वाहक हो जाय। मंत्र इस प्रकार है:
ॐ भूर्भुव: स्व:।
तत्सवितुर्वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।
…
अ-उ-म, पृथ्वी, आकाश, द्युलोक (देह, प्रक्रिया, बुद्धि)।
महानतम रचयिता
हम उसके उज्जवल तेज का ध्यान करते हैं।
वह हमारे मन आलोक-प्रेरित करे।
रचयिता सूर्य है जो हमारे मन आलोकित करता है और हमारे स्व का अतिक्रमण करता (उदात्तता की ओर ले जाता) है। गायत्री मन की शक्ति का उत्सव (अनुष्ठान) है।
बृहदारण्यक उपनिषद (5.14.6-7) गायत्री के तीन पादों की व्याख्या इस प्रकार करता है: पहला पाद जगत के त्रिविमीय भागों को व्यक्त करता है; दूसरा पाद वेदों के त्रयी (ऋक्, यजु: साम) रूप को और तीसरा पाद तीन महत्त्वपूर्ण प्राणों का प्रतिनिधित्त्व करता है। किंतु बाहर से भीतर की ओर क्रमश: बढ़ती जटिलता के रूप में प्रस्तुत यह ज्ञान मात्र वह पृष्ठभूमि है जिसमें चौथा पाद जगत के कारण और अर्थ को दर्शाता है।
एकशृंग Unicorns
हड़प्पाई प्रतीकविद्या का एकशृंग एक संश्लिष्ट पशु है जिसका गला और थूथन अश्व या ऊँट सदृश हैं और पैर अश्व सम। उसकी देह और पूँछ साँड़ के हैं।
(प्राचीन भारतीय) ग्रंथों में एकशृंग एक महत्त्वपूर्ण आकृति है जो हड़प्पा काल से नैरंतर्य की ओर संकेत करती है। पुराणों में विष्णु और शिव को एकशृंग नाम से वर्णित किया गया है। महाभारत के शांति पर्व (अध्याय 343) में एक ऐसे एकशृंग का उल्लेख है जो विष्णु अवतार के रूप में पृथ्वी का उद्धार करता है। [महाभारत में ही वृषाकपि और वराह को एक बताया गया है।]
[ऋग्वेद में वृषाकपि का उल्लेख वराह के साथ है (10.86)
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत। यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥
किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥
यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि। श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥]
कतिपय उत्कीर्णनों में हड़प्पा के एकशृंग की सींग पार्श्व से निकलती प्रतीत होती है। संस्कृत ग्रंथों में शंकुकर्ण की आकृति का उल्लेख मिलता है ‘जिसका कान नाखून की भाँति’ होता है। महाभारत के वनपर्व में सिंधु नदी और सागर के सङ्गम स्थल पर शङ्कुकर्ण महादेव नाम से शिव के मंदिर का उल्लेख है।
[03080084 त्रिशूलाङ्कानि पद्मानि दृश्यन्ते कुरुनन्दन । महादेवस्य सांनिध्यं तत्रैव भरतर्षभ ॥
03080085 सागरस्य च सिन्धोश्च संगमं प्राप्य भारत । तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः ॥
03080086 तर्पयित्वा पितॄन्देवानृषींश्च भरतर्षभ । प्राप्नोति वारुणं लोकं दीप्यमानः स्वतेजसा ॥
03080087 शङ्कुकर्णेश्वरं देवमर्चयित्वा युधिष्ठिर । अश्वमेधं दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ]
[मत्स्य पुराण में शङ्कर को वृषाकपि कहा गया है – इत्थं स्तुतः शंकर ईड्य ईशो वृषाकपिर्मन्मथकान्तया तु]
कोशकार अमरसिंह बलपूर्वक कहते हैं कि वृषाकपि विष्णु और शिव, दोनों का प्रतीक है। [(३.३.६१४) गोधुग्गोष्ठपती गोपौ हरविष्णू वृषाकपी]
पुराणों में, द्युलोक का वाराह-एकशृंग, वाराह पीनवक्ष और मांसल गोलाकार चौड़े कंधों वाले वृष के आकार का बताया गया है। इस पशु के विभिन्न अङ्ग वेदों, वेदी और इस प्रकार के उपादानों के रूप में चित्रित किये गये हैं।
[विद्युदग्निप्रतीकाशमादित्यसमतेजसम् । पीनवृत्तायतस्कन्धं दृप्तशार्दूलगामिनम् ॥
पीनोन्नतकटीदेशं वृषलक्षणपूजितम् । रूपमास्थाय विपुलं वाराहमजितो हरिः ॥
पृथिव्युद्धरणायैव प्रविवेश रसातलम् । वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुदन्तश्चितीमुखः ॥
– मत्स्य पुराण]
विद्वान पी. एन. माथुर के अनुसार वराह मूलत: इस संश्लिष्ट एकशृंग के रूप में अभिकल्पित था तथा केवल कालांतर में ही इसका अर्थ वाराह से लिया जाने लगा।
सम्पादकीय टिप्पणी:
यह लेख श्री सुभाष काक के मूल अङ्ग्रेजी लेख Cows and Unicorns का अनुवाद है। स्पष्टीकरण और संदर्भ हेतु जोड़े गये अंश कोष्ठक [] के भीतर दिये गये हैं। अनुवादक – गिरिजेश राव।
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