सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 , 6, 7, 8, 9 , 10 से आगे
व्यवहारिक मनोविज्ञान के प्रभामंडल प्रभाव के उदाहरण से पुराण भरे पड़े हैं। राक्षसों के गुणों की चर्चा और देवों में भी दोष होने की कहानियाँ अनगिनत हैं। दोनों से सीख एक ही है – किसी की एक विशेष छवि के आधार पर हमें निर्णय नहीं लेने चाहिये। मन की प्रवृत्ति बिना पूरी तरह विचार किये बिखरे बिंदुओं को जोड़कर कहानी बना लेने की एवं सदृश दिखने वाली वस्तुओं के लिये स्वतः ही निष्कर्ष निकाल लेने की होती है। WYSIATI – अनेकांतवाद। इसका एक प्रभाव यह भी होता है कि लोगों की धारणायें प्राय: उनकी भावनाओं से, पारंपरिक अर्थशास्त्र की लाभ-हानि (risk reward) को सोचे बिना, निर्धारित होती हैं। इस कड़ी में व्याहारिक अर्थशास्त्र के उन सिद्धांतों की चर्चा करते हैं जो सांख्यिकी से प्रभावित हैं। सांख्यिकी अर्थात आँकड़ों के विश्लेषण से निष्कर्ष – भावनाओं से परे, पक्षपातों से परे। इसका एक उपयुक्त उदाहरण पिछले दिनों समुदाय विशेष पर हुई कथित आक्रमण की घटनाओं और असहिष्णुता के सनसनी बन जाने के समाचार हैं जिनके आँकड़ों का सांख्यिकी की दृष्टि से विश्लेषण सम्भवत: किसी ने नहीं किया!
सांख्यिकी से प्रभावित संज्ञानात्मक पक्षपातों में एक रोचक सिद्धांत छोटी संख्याओं का नियम (law of small numbers) है जिसके अनुसार हम छोटे समूह से मिली जानकारी को प्राय: सच मान लेते हैं। मन अर्थात प्रणाली-1 के लिए सांख्यिकी को समझना सरल नहीं है। विस्तृत आँकड़ों से जो सही निष्कर्ष निकल सकते हैं उनके स्थान पर मस्तिष्क छोटे प्रतिदर्शों (नमूनों) से मिली जानकारी पर भरोसा करता है। छोटे नमूने अर्थात सरलता से मिलने वाले आँकड़े, जिनमें अप्रत्याशित (extreme) परिणाम के मिलने की सम्भावना अधिक होती है, परन्तु हम उन अप्रत्याशित परिणामों को सार्वत्रिक मान लेते हैं। विशेषज्ञों द्वारा किये कई अध्ययनों और वैज्ञानिक शोधों में भी यह त्रुटि देखने को मिलती है। प्रणाली-1 की अधूरी जानकारी से ही कहानी बना लेने की त्वरा होती है अर्थात सीमित आँकड़ों को अपने पक्षपात के अनुसार जहाँ कुछ नहीं भी हो वहाँ एक कहानी देख लेने की प्रवृत्ति, आकस्मिक (random) घटनाओं को जोड़कर उसमें एक आकृति (pattern) देखना। उदाहरणतया यदि कोई निवेश प्रबंधक निवेश पर निरंतर दो-तीन वर्षों तक अच्छा लाभ दे तो हम यह मान लेते हैं कि वह एक अच्छा निवेश प्रबंधक है, भले ही दो-तीन वर्षों का आँकड़ा इस निष्कर्ष के लिए पर्याप्त नहीं। अपर्याप्त आँकड़ों से निकाले गये हमारे निष्कर्ष और अनुमान दोनों ही उतने सच नहीं होते जितने हमें प्रतीत होते हैं।
हमारा मन उन बातों को भी किसी न किसी कारण से जोड़ देता है जहाँ कोई कारण नहीं होता। कुछ एक घटनाओं के होने पर विशेषज्ञ आँकड़ों की पूर्णता पर संदेह करने के स्थान पर भरोसे के साथ अपना निर्णय सुनाते हैं। वे इस बात का प्रतिषेध कर देते हैं कि घटनायें केवल आकस्मिक (random) भी हो सकती हैं। सांख्यिकी की पुस्तकों में इससे जुड़ा एक उदाहरण प्राय: प्रस्तुत किया जाता है। सांख्यिकीविद् विलियम फेलर ने द्वितीय विश्व-युद्ध के समय लंदन पर हुई बम-बारी के आँकड़ों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला कि रूढ़ मान्यता के विपरीत जर्मन आक्रमण के ठिकाने पूरी तरह से यादृच्छ (Random) थे। उन्होंने अपने निष्कर्ष में लिखा:
The data indicates perfect randomness and homogeneity of the area, we have here and instructive illustration of the established fact that, to the untrained eye, randomness appears as regularity or tendency to cluster.
घटनाओं का विश्लेषण करना और सही निष्कर्ष निकालना कठिन काम है अर्थात मन और अहम् के स्थान पर बुद्धि के प्रयोग की आवश्यकता होती है। मस्तिष्क की प्रणाली-1 से हम प्राय: उन मनगढ़ंत कारणों को ढूंढ कर एक कहानी गढ़ लेते हैं जहाँ वास्तव में वैसा कुछ नहीं होता। आजकल भारतीय समाज में होने वाली चयनित और छिटपुट होने वाली घटनाओं को जोड़कर एक भरोसा करने लायक कहानी का निर्माण और प्रचार ऐसी ही प्रवृत्तियाँ है।
सांख्यिकी से प्रेरित एक और पक्षपात है उपलब्धता (availability) का। यदि हमसे किसी बात का अनुमान लगाने को कहा जाए तो हम उन बातों के लिए अधिक अनुमान लगाते हैं जिनके लिए सूचना हमें सरलता से मिलती है। जिन बातों को हम अधिक सुनते, देखते हैं या जिन बातों से हम व्यक्तिगत और भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं वे हमें अधिक सम्भाव्य लगती हैं। जो लोग किसी त्रासदी को झेल चुके होते हैं, वे आपदा, संकट और शत्रुओं का आकलन वास्तविकता से अधिक करते हैं – दूध का जला छाछ भी फूँक फूंक कर पीता है। अचेतन मन पर भी यह प्रभाव होता है। जो सूचना हमें बार बार मिलती है हम उसके सच होने पर भरोसा करने लगते हैं। हमारी सांख्यिकी ज्ञान शक्ति समाचारों से मिलने वाली सूचना के कोहरे में ढँक जाती है। रेल दुर्घटना के समाचार के पश्चात रेल यात्रा अधिक दुर्विगाह लगने लगती है। हम जितने भयभीत होते जाते हैं समाचार पत्र एवं पत्रकार उसे उतनी ही उत्सुकता से संवेदी समाचार बनाते हैं जिससे रेल यात्रा और दुर्विगाह लगने लगती है। एक चक्र बन जाता है। वास्तविक आँकड़े देखकर निष्कर्ष निकालने की हमारी शक्ति समाप्त होती जाती है और हम अनावश्यक प्रतिक्रिया करने लगते हैं। सोशल मीडिया इस सिद्धांत का सबसे अच्छा उदाहरण है।
इसी क्रम में स्थिरक प्रभाव (anchoring effect) अचेतन मन पर सुनी और देखी जा रही बातों के प्रभाव का सिद्धांत है। पहले से मिली सूचना का उसके तुरंत बाद लिए जाने वाले निर्णयों पर प्रभाव होता है, भले ही उस सूचना का निर्णय से कोई लेना देना नहीं हो। लोगों को यदि 10 लिखने को कहा जाय एवं उसके पश्चात उनसे गांधी जी की मृत्यु के समय की आयु का अनुमान लगाने को कहा जाय तो वो छोटी संख्या बताते हैं, जिन लोगों को 65 लिखने को कह कर अनुमान लगाने को कहा जाता है वे बड़ी। चित्रों और कलाकृतियों की नीलामी में प्राय: नीलामी-कर्ता पहले बनावटी बोली लगाते हैं और उन कलाकृतियों के बारे में चर्चा करते हैं जो बहुत अधिक मूल्य चुका कर खरीदी गयीं। उसके पश्चात वे वास्तविक नीलामी आरम्भ करते हैं। जिन्हें कलाकृतियों के मूल्य की कोई जानकारी नहीं होती वे उसे अधिक सोचते हैं। दुगुनी करके आधी छूट पर मिली वस्तु हमें अल्पमूल्य में मिल गयी लगती है अर्थात हमें जितना प्रतीत होता है, हम उससे कई गुना अधिक दूसरों के कहे में सरलता से आ जाने वाले होते हैं। दुष्प्रचार, हमें जितना लगता है उससे, अधिक प्रभावी होते हैं।
व्यवहारिक अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान के आधुनिक सिद्धांतों के अनुसार यदि हमें एक साथ आँकड़े और एक कहानी दिये जायें तो मस्तिष्क की स्वतः प्रवृत्ति सांख्यिकी की अनदेखी कर कहानी पर भरोसा करने की होती है। साथ ही उन्हें जोड़कर हम वे समस्त कारण-परिणाम सोच लेते हैं जो होते तक नहीं हैं। हो रही या हो चुकी घटनाओं को समझने के प्रयास में हम प्राय: गलत कहानियाँ गढ़ लेते हैं, तदुपरांत उन कहानियों के आलोक में ही हम हो चुकी घटनाओं की व्याख्या और भविष्य की परिकल्पना भी करते हैं। पिछली घटनाओं को लेकर हमें लगता है कि हमें सब कुछ समझ आ रहा है, हमें पता था कि यह होने ही वाला था।
इन पक्षपातों के परे देखने का एक ढंग किसी सांख्यिकीविद् की तरह सोचना और प्रश्न करना है, मन और अहम् से परे बुद्धि और चैतन्य का उपयोग करना है। कोहरे में ढके मन के स्थान पर बुद्धि का उपयोग करने के लिये सांख्यिकी एक उपकरण है।
अधूरी सूचना से बनी पक्षपाती कहानियों वाले निष्कर्ष को गर्व से प्रस्तुत करने वाले विशेषज्ञ भर्तृहरि के इस कथन की तरह हैं:
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्ध: समभवम् तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मन:।
यदा किञ्चित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगत:॥
थोड़ा ज्ञान रहते हुये मैं मद काल के हाथी समान गर्वोन्मत्त हो गया। मेरे मन में सर्वज्ञ होने का अहंकार था। बुद्धिमान जन की संगति में किञ्चित किञ्चित कर के जब मुझे बोध हुआ तो चढ़े ज्वर के समान मेरा मद तिरोहित हो गया, मुझे पता चला कि मैं वास्तव में मूर्ख हूँ।
(क्रमशः)