आया बसन्त ,
जागो प्यारे! जाड़े का शैथिल्य छोड़ो। सुनो! पूर्णिमा नक्षत्र के बहाने कोई बसन्त की प्रस्तावना पढ़ रहा है!
हिमाद्रेः संभूता सुललित करैः पल्लवयुता
सुपुष्पामुक्ताभिः भ्रमरकलिता चालकभरैः
कृतस्थाणुस्थाना कुचफलनता सूक्ति सरसा
रुजां हन्त्री गंत्री विलसति चिदानन्द लतिका।
~आचार्य शङ्कर
अभी नयनोन्मीलन नहीं हुआ है। मैं निद्रालस ही पड़ा हूँ। दिशायें तिमिरांक लीला हैं। चतुर्दिक विशद शान्ति वितान तना है। सहसा एक कङ्कण की झंकृति सुनता हूँ। उनींदे लोचन-पलक को रात्रि-सूक्त का छंद गुनगुनाते हुये कोई हथेली सहलाने लगती है:
“निरुस्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती। अपेदु हासते तमः।“
(यह चिच्छक्ति रूपा रात्रि देवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषा देवी को प्रकट कर देती हैं जिससे अविद्यामय अंधकार विनष्ट हो जाता है।)
देखता हूँ एक आकृति! सुन्दर! सुवृतारविन्दसुरभितायतशरीरा! अनबोले अधर जैसे कह रहे हों – ’जाग तुमको दूर जाना।’ उसकी मृणालदलमृदुला अङ्गुलि में एक मानचित्र झूल रहा है। सुधावर्षिणी वाणी के प्रबोधन से बलात् उठ बैठ जाता हूँ। वह वत्सला प्रतिमूर्ति अपलक दृष्टि से निहार रही है! मैं स्वर सुनने लगता हूँ:
“देख! देख, इस मानचित्र को! भारत को पृथ्वी के इस मानचित्र पर ठीक से देख। यह ऐसा ही दीखता है जैसे हमारे शरीर में तीन लोकों का आभास। उसका स्थान वही है जो हमारे शरीर में हृदय का स्थापित स्थान, विष्णु का निवास स्थान बताया गया है। यह विशाल, विलक्षण भारत है। ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण भारत है। अतुल्य निधि है यह तुम्हारी। अपने धन से धनवान बनो। कैसे सोने वाले बेसुध बटोही बने हो कि अपने लुट जाने का ज्ञान ही नहीं है! अपने पास रहना सीखो! तुम्हारा चिन्तन-मनन, सोच-विचार, ज्ञान, बुद्धि, विवेक-विचार, मनन का परिणाम तुम्हारे साथ लग जाता है। अपनी अद्भुत भारतीयता की वास्तविक निधि, धन सँजो लो। यह एक हल्की सी हिचकी भी लेती है तो कहीं डुबकी लग जाती है जहाँ कालहीन, दिशाहीन शान्ति का अखण्ड साम्राज्य है।“
मुझे प्रतीति हो रही है-भारतीयता अमृत मंत्र है। विषम स्थिति होने पर भी मर नहीं रहे हैं। मरने नहीं पायेंगे। किसी न किसी रीति से पार उतरेंगे। यह न मेरे राष्ट्र के नायक समझ पायेंगे न स्यात मैं ही। मुझे जैसे इस दिव्य आकृति का संकल्प दिख रहा है यह, और शायद यह संकल्प ही हमारा प्रारब्ध है। उसके लिए जीवन बनायें, उसकी सृष्टि समझें। उसका राष्ट्र समझें, उसका विश्व समझें। इस तरह हम अपना प्रकाश करें, साथ ही साथ हमारा आध्यात्मिक प्रकाश भी हो जायेगा।
मैं सुन रहा हूँ। उसकी पीयूषवर्षिणी गिरा की इतनी मार्मिक पीर कि सिहरन विदा होने का नाम ही नहीं लेती है। चिबुक पर गौर मृदुल हथेली रखे प्रबोधन की रस निर्झरिणी में डूबती-डुबाती वाणी संचरण कर रही है:
“मैं चिदानन्दमयी चिन्मय लतिका अपने विलास में ’जागते रहो-जागते रहो” की दुंदुभि बजा रही हूँ। इस मन से ऊपर उठकर अपने परमभाव परमात्मा की ओर चरणन्यास कब करोगे? देह ही माया है। इस द्वैताभास से परे ब्रह्माण्ड की यात्रा में तुम्हारी उंगली थामे पकड़ कर ले चलूँगी। मैं भारतीयता की पावसी बेला हूँ। तुम्हारी सुसुप्ति में इस स्वर्ण विहंगम के पंख नोचने वालों की विशाल वाहिनी तैयार है। जागो! ’परम प्रत्यक्ष’ तुमको भेंटने के लिए बाहें पसारे खड़ा है।“
“देखो, निर्भ्रान्त अवस्था से अध्यात्म प्रसाद-’आत्म-ज्योति’ मिलती है, जिसका नाम ’ऋतम्भरा प्रज्ञा’ है। इस प्रज्ञा की विशेषता उद्घाटित करते व्यास देव फूट पड़े हैं- “अन्वर्थ सा, सत्यमेव विभर्ति न च तत्र विपर्यास–गन्धोऽप्यस्तीति”। इससे ’विवेक ख्याति’ प्रकट होती है। थोड़ा और आगे ’स्थितप्रज्ञ’ अवस्था है। इसी अवस्था में भागवत प्रसाद रूप ’धर्म’ का साक्षात्कार होता है। यह परम वैराग्य की ’धर्म मेघ’ की स्थिति है। यही मघा है- “बरसै मघा झकोरि-झकोरि।“ इसी रिमझिम में भीगो। मघा की पूर्वा ’आश्लेषा’ की एक बाहु तथा परवर्ती ’पूर्वा फाल्गुनी’ की अपरा रसवन्ती विह्वल बाहु तुम्हें आलिंगनबद्ध करने को आतुर है। ’मघा’ यों ही मघा नहीं है। इसके रस में भींगो। ’मघा’ का विपरीत जो ’घाम’ है उसमें तपो। निहारो, निहारो। मेरा कहा अनसुना मत करो। मुझे मेरी आँख से देखो!“
“क्षपां क्षामीकृत्य प्रसभमपहृत्याम्बु सरितां
प्रताप्योर्वीं कृत्स्नां तरुगहनमुच्छोस्य सकलम्।
क्वसम्प्रत्युष्णांशुर्गत इति समालोकन परा-
स्तडिद्दीपालोका दिशि दिशि चरन्तीह जलदा:॥“
’मघा की छटा छायी हुई है। प्रत्येक दिशा में जलद घिर आये हैं। विद्युत भी इन मेघों में कौंध जाती है। ये परम उपकारी बादल, जो न्याय की जीती हुई मूर्ति हैं, विद्युत रूपी दीपक के प्रकाश में चारों ओर घूम रहे हैं। भला इनके घूमने का उचित कारण क्या हो सकता है? अरे, ये तीक्ष्ण किरण वाले अपराधी सूर्य की खोज में इधर-उधर घूम रहे हैं। उसने रातों को पतली बना डाला है, नदियों का नीर चुरा डाला है। समग्र विस्तीर्ण पृथ्वी को तपा डाला है, वृक्ष-समूह को तपा डाला है। इन अपराधों को करने के बाद न जाने किस दिशा मे वह अपराधी छिपा हुआ है! इसीलिए न्यायप्रिय ये बादल – ये ’मघा’ के मर्मस्पर्शी पयोधर उस तिग्मांशु की खोज में चारों ओर घूम रहे हैं। ’मघा’ के मेघ का मातृत्व उसे डुबा कर ही छोड़ेगा- ’मानहु मघा मेघ झरि लाई।“
“एक बात और स्मरण रखो। ’मघा’ है वत्सला मतारी। ’मघा’ का मातृत्व फलित होता है शरद के शालि क्षेत्र में। ’मघा’ है मनोहर घाट’- “मज्जहिं जहाँ वर्ण चारिउ नर”, शरद-शिशिर का ’निर्मल नीर’ मघा की ही प्रदत्त जीवन-सम्पदा है। “संत हृदय जस निर्मल बारी”। मघा-सृजित मानस सर में शारदीय मरालिनी क्रीड़ा कल्लोल करती है। ’मघा’ के मेघ साद्रानन्द पयोद हैं”। चोट मत पहुँचाओ-यही उसका दुंदुभिनाद है। भगोड़े सूर्य को भी सुख देने की आनन्दिनी विधा इसी ने रच दी। रजनी रूपी प्रिया ने उसे गाढ़ालिंगन में लेकर सुला दिया। अतः वह दिनमणि लेटा हुआ है। तब भला हेमंत की रात बड़ी क्यों न हो!
“स्वपति पुनरुदेतुं सालसांगस्तु तस्मात्
किमु न भवतु दीर्घा हैमिनी यामनीयम्।
यह मघा का ही मार्द्रव है जो गुदगुदाता तो है पर घायल नहीं करता। ’मघा’ में ’घात’ नहीं है। वहाँ तो अद्भुत रस निष्पत्ति का रसायन है। भाव, विभाव, अनुभाव-ये हैं शरद, शिशिर, हेमंत, तब संचारी भाव का वसंत, फिर तो ऋतुपति रूपी रस निष्पत्ति। यह मघा का ही कमाल है-’भावानुभावसंचारीभावसंयोगात् रसनिष्पत्ति। निरंतर प्रवहमान रस की जन्मदात्री ’मघा’।“
“वसंत के मलय पवनान्दोलित जल में लीलारविन्द से क्रीड़ा करती वही चिदानन्द लतिका है ’मघा’ जिसके स्मरण रस में शंकराचार्य डूब गये:
“वसन्ते सानन्दे कुसमितलताभिः परिवृते
स्फुरन्नानापद्मे सरसि कलहंसालिसुभगे।
सखीभिः खेलन्तीं मलयपवनान्दोलित जले
स्मरेद्यस्त्वां तस्य ज्वरजनित पीड़ापसरति॥“
प्रफुल्ल प्रकृति की गोद है। लतायें पुष्पवती हैं। राशि-राशि विविधवर्णी सुमनों के परिमल की सुगंध से दिशायें महामोदमय हैं। कलहंस क्रीड़ा-कल्लोल निरत हैं। ऐसे प्रफुल्ल प्रांगण में मलयपवनान्दोलित सरोवर शोभायमान है। उसमें सखियों के साथ खेल रही है वह पराम्बा चिदानन्दलतिका। इस मधुमय विलासयुता का स्मरण करने वाला ज्वरजनित पीड़ा से मुक्त हो जाता है। और सबसे बड़ा ज्वर क्या है-’काम ज्वर, यौवन ज्वर’। इस लीला विलास की स्मृति से ही काम-ज्वर विनष्ट हो जाता है। मद मत्सर, मान, मोह का घालन करने वाली लीलालावण्य संयुक्ता शक्ति है ’मघा’। “
“एक बात और स्मरण करा दूँ। यह ’मघा’ वह प्रसवपीड़ा है जो फाल्गुन से पुत्रवती हुई है। वह ऐसी रंग-सर्जनी नहीं है जो फाग की नोंक-झोंक, धमा-चौकड़ी, चोट-चपेट, भंग-तरंग झेलती हुई मदालसा बनी हो। वह विरल अनुरागवती है। उदाहरण तो है ही:
“या अनुराग की फाग लखो जहाँ राजत राग किशोरी किशोरी
त्यों पद्माकर घालि घनी रहि तैसइ राखी अबोर की झोरी।
नेक न काहु छुई पिचकी कर काहु न केसर रंग में बोरी
गोरी के रंग में भींजि गे सावरो सावरे के रँग भींजिगी गोरी॥“
ऐसा ही महामोदमय अनुग्र-संपुटित जीवन पाथेय सम्हाले निकल चलो। किसी का मर्दन नहीं, किसी का घर्षण नहीं, किसी का अपनय नहीं। किसी को चोट नहीं पहुँचे, यही है ’मघा’ का मन। पावसी पीर और वासंती वैभव का युगपत समीकरण सिद्ध है यहाँ। गुणमयी चिन्मयी लतिका ’मघा’! बलिहारी है, बलिहारी है।“
… बीता पावस, बीता जाड़। आयी माघ पूनम, आया बसंत, द्वार पर।
लेखक: हिमांशु कुमारपाण्डेय |
अहा!