१. ऋषि और मुनि :
ऋषि शब्द के ७ अर्थ हैं।
(१) रस्सी, सृष्टि का मूल १०-३५ मी. के तन्तु। सृष्टि का मूल असत् (अदृश्य) प्राण था जो रस्सी की भाँति श्रम और तप से खींचते थे :
असद्वाऽइदमग्रऽआसीत् । तदाहः – किं तदासीदिति । ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः – के ते ऋषय इति। ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषन्–तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)
इन ऋषियों से पितर, तत्पश्चात देव-दानव, देवों से जगत् (चर, स्थाणु, अनुपूर्व-३ प्रकार के कण) हुए :
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
मनुष्य शरीर से छोटे क्रमशः बालाग्र तथा उससे छोटे ऋषि तक क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे विश्व हुए, अतः सबसे छोटा विश्व ऋषि होगा जो मनुष्य से १० घात ३५ भाग छोटा होगा-
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
(२) तारा – जैसे सप्तर्षि,
(३) मन्त्र द्रष्टा – आधिदैविक (आकाश), आधिभौतिक (पृथ्वी) तथा आध्यात्मिक (शरीर के भीतर) विश्वों का सम्बन्ध (इनको जोड़ने वाली रस्सी, या ब्रह्म और सामान्य मनुष्य के बीच की रस्सी),
(४) गुरु-शिष्य परम्परा आरम्भ करने वाले (उनके बीच की रस्सी),
(५) गोत्र प्रवर्तक
(६) आनुवंशिक सम्बन्ध – २१ पीढ़ी तक (७ पीढ़ी तक पिण्ड, १४ पीढ़ी तक उदक, उसके पश्चात २१ पीढ़ी तक ऋषि),
(७) आकाश के १० आयामों (दश, दशा, दिशा, आशा …) में सातवाँ जो दो कणों के बीच आकर्षण से सम्बन्धित है।
मुनि उसे कहते हैं जो राग, भय, क्रोध से मुक्त हो कर अपने मन और शरीर पर नियन्त्रण रखता है एवं स्थिर बुद्धि का है :
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ (गीता, २/५६)
जो मुनि है, वही ऋषि हो सकता है। ऋषि परम्परा वेद है, मुनि परम्परा लौकिक शास्त्र हैं, जिनसे वेद समझा जा सकता है।
ऋषि सत्य का दर्शन कर सकता है, पर वह तभी स्वीकृत हो सकता है जब सत्ता द्वारा भी उसका समर्थन हो। राजा का भी लोग तभी अनुकरण करते हैं जब वह सच्चरित्र हो। अतः वही लोग जैन तीर्थंकर हुये, जो राजा बनने के पश्चात संंन्यासी बने। राजा के रूप में राज्य चलाने का अनुभव हो, उसके पश्चात निरपेक्ष और निस्पृह हो।
इसीलिये आरुणि उद्दालक को शिक्षा पूरी करने के लिये राजा अश्वपति के पास भेजा गया (छान्दोग्य उपनिषद्, अध्याय ५)।
ऐसा ही व्यक्ति लौकिक और पारलौकिक रूप से संसार से पार करा सकता है, अतः उसे तीर्थंकर (नदी या समुद्र पार करने के लिये तट) कहते हैं।
ऋषि या गुरु-शिष्य क्रम तीर्थंकरों में भी है। स्रोत को ऋषभ तथा अन्तिम को महावीर (महः = सीमा) कहा गया है। बीच के सभी नाथ (बाँधने वाले) हैं।
२. तीर्थंकर :
वर्तमान कल्प के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं जो प्रायः ९,५०० ई.पू. में हुये जब १०,००० ई.पू. के जल-प्रलय के पश्चात सृष्टि का पुनः आरम्भ हुआ। इससे पहले इसी प्रकार ३१००० ई.पू. के जल-प्रलय के पश्चात २९१०० ई.पू. में भी स्वायम्भुव मनु ने सभ्यता का आरम्भ किया था। अतः उनको स्वायम्भुव मनु का वंशज कहा गया है। स्वायम्भुव मनु को मनुष्य रूप में ब्रह्मा कहा गया है। इसके अतिरिक्त महाभारत शान्ति पर्व अध्याय ३४८-३४९ के अनुसार ७ मनुष्य ब्रह्मा थे। ब्रह्मा को परमेष्ठी तथा पितामह भी कहा जाता है। जैन शास्त्रों में ऋषभदेव के पूर्व के तीर्थंकरों को परमेष्ठी कहा गया है। इनके स्रोत नाम हैं :
१. मुख्य – नारायण के मुख से । उनसे वैखानस (भूगर्भ से धातु खनन करने वाले) ने वेद सीखा।
२. आँख से – उनको सोम ने वेद पढ़ाया तथा उनसे बालखिल्यों ने सीखा।
३. वाणी से – महाभारत, शान्तिपर्व (३४९/३९) में उनको वाणी (तथा हिरण्यगर्भ) का पुत्र अपान्तरतमा कहा गया है। उन्होंने त्रिसुपर्ण ऋषि को वेद पढ़ाया। अपान्तरतमा पुराणों के अनुसार गौतमी (गोदावरी) तट पर रहते थे। सुपर्ण ने समुद्र तट की भूमि का पालन (रेळ्हि) किया था, अतः आन्ध्र पदेश के किसानों को आज भी रेड्डी कहते हैं।
एक॑: सुप॒र्णः स स॑मु॒द्रमा वि॑वेश॒ स इ॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ वि च॑ष्टे ।
तं पाके॑न॒ मन॑सापश्य॒मन्ति॑त॒स्तं मा॒ता रे॑ळ्हि॒ स उ॑ रेळ्हि मा॒तर॑म् ॥ (ऋग्वेद १०/११४/४)
इस ब्रह्मा की ६४ अक्षरों की ब्राह्मी लिपि आज भी कन्नड़ तथा तेलुगू रूप में चल रही है। आदि शंकराचार्य को इस अपान्तरतमा का अवतार कहा गया है।
४. कान से – आदि कृतयुग (३७९०२-३३१०२ ई.पू.) में नारायण के कर्ण से ब्रह्मा हुए। इन्होंने आरण्यक, रहस्य और संग्रह सहित स्वारोचिष मनु, शंखपाल और दिक्पाल सुवर्णाभ को वेद पढ़ाया।
५. नासिका से – आदि कृतयुग में ही नारायण की नाक से ब्रह्मा हुये जिन्होंने वीरण, रैभ्य मुनि तथा कुक्षि (दिक्पाल) को पढ़ाया।
६. अण्डज ब्रह्मा ने बर्हिषद् मुनि, ज्येष्ठ सामव्रती तथा राजा अविकम्पन को पढ़ाया।
७. पद्मनाभ ब्रह्मा ने दक्ष, विवस्वान् तथा इक्ष्वाकु को पढ़ाया।
यह परम्परा है, कोई एक ही व्यक्ति १४००० ई.पू. के विवस्वान् तथा ८५७६ ई.पू. के इक्ष्वाकु को नहीं पढ़ा सकता है। यह सम्भवतः पूर्व तिब्बत के रहे होंगे जो ब्रह्म विटप है जहां से ब्रह्मपुत्र का उद्गम है। त्रिविष्टप् (तिब्बत) के अन्य दो विटप हैं पश्चिम में विष्णु विटप (सिन्धु उद्गम) तथा मध्य में शिव विटप (गंगा उद्गम)। भारत का प्राचीन नाम अजनाभ वर्ष था, इसका नाभि-कमल (पद्मनाभ) मणिपुर है जिससे इस ब्रह्मा का जन्म हुआ। इसके पश्चात का क्षेत्र ब्रह्म देश (अब महा-अमर = म्याम्मार) है।
ऋषभ देव के पुत्र भरत भी संंन्यासी हुए थे पर वे योग भ्रष्ट हो गये अतः तीर्थंकर नहीं बने। उसके पश्चात कई अन्य राजा भी विश्व विख्यात थे तथा संंन्यासी बने पर कठिनाई यह है कि जैन ग्रन्थों में केवल संंन्यास नाम दिया है अतः पता नहीं चलता कि यह किस पौराणिक राजा का संंन्यास नाम है।
अन्य सम्भावित जैन तीर्थंकरों के संंन्यास पूर्व नाम हैं-इक्ष्वाकु (८५७६ ई.पू), पुरुरवा (८४५० ई.पू.), ययाति (८२०० ई.पू.), मान्धाता (७६०० ई.पू.), सगर (६७६२ ई.पू.), दुष्यन्त पुत्र भरत (५००० ई.पू.), संवरण (४१५९-४०७१ ई.पू.), कुरु (४०७१-३९९९ ई.पू.), उपरिचर वसु (३७५१-३७०९ ई.पू.)।
निम्नलिखित व्यास भी तीर्थंकर हो सकते हैं-सुरक्षण (८१०० ई.पू.), त्र्यारुण (७७०० ई.पू.), धनञ्जय (७४०० ई.पू.), कृतञ्जय (७००० ई.पू.), ऋतञ्जय (६६५० ई.पू.), वाचस्पति (निर्यन्तर ५६०० ई.पू.), सुकल्याण (५२०० ई.पू.), तृणविन्दु (४८५० ई.पू.)।
महान् राजाओं में नहुष (८२५० ई.पू.) भी थे जो कुछ समय इन्द्र पद पर भी रहे, कालान्तर में शाप से सर्प हो गये (मेक्सिको की नहुआ जाति)। श्रीराम (४४३३-४३६३ ई.पू.) महानतम राजा थे, पर वे राजा रहते ही परलोक गये और संंन्यासी नहीं बने। उस समय उनके पुत्र लव-कुश केवल २१ वर्ष के थे। अतः नहुष और श्रीराम तीर्थंकर नहीं हैं।
३. तीर्थंकर युधिष्ठिर :
२२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ के बारे में कई कल्पनायें हैं। कुछ लोग उनको छान्दोग्य उपनिषद् का ऋषि अरिष्टनेमि मानते हैं (नेमि शब्द के कारण) पर ये राजा नहीं थे जो कालान्तर में संंन्यासी हुए। नेमिनाथ जी भगवान् कृष्ण के भाई थे। उनके भाइयों में केवल २ ही राजा हुए थे – दुर्योधन राजा बना था पर धृतराष्ट्र के प्रतिनिधि रूप में; उसका अभिषेक नहीं हुआ था। युधिष्ठिर का महाभारत युद्ध के पश्चात १७-१२-३१३९ ई.पू. को अभिषेक हुआ था तथा २८-८-३१०२ ई.पू. तक शासन किया। उसके पश्चात वे संंन्यासी बने तथा २५ वर्ष पश्चात ३०७६ ई.पू. में उनके देहान्त से कश्मीर में लौकिक सम्वत् आरम्भ हुआ। उन्हीं के लिये धर्मराज तथा लोकोत्तर (उनका रथ भूमि से चार अङ्गुल ऊपर चलता था) शब्दों का प्रयोग हुआ है। ये दोनों ही तीर्थंकर के विशेषण हैं।
आगामी तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे जो युधिष्ठिर की ८ पीढ़ी पश्चात काशी के राजपरिवार में हुए थे। उनका मूल नाम युधिष्ठिर हो सकता है क्योंकि उनके संन्यास से जैन युधिष्ठिर सम्वत् (२६३४ ई.पू.) आरम्भ होता है। युधिष्ठिर की ७ पीढ़ी पश्चात सरस्वती नदी सूख गयी तथा गंगा की अप्रत्याशित बाढ़ में हस्तिनापुर बह गया एवं पाण्डव राजा निचक्षु कौसाम्बी आ गये। इस महान् विपर्यय में एक शक्तिशाली राजा के संन्यासी होने की आवश्यकता थी जो देश में धर्म और शान्ति बनाये रख सके। उस समय वाराणसी राज्य ही इसमें सक्षम था।
प्राचीन काल के महान् राजाओं की तुलना में वर्धमान बहुत छोटे भाग के राजा थे। वर्धमान राजाओं के परस्पर युद्ध से दूर गणतन्त्र के शान्त वातावरण में थे और राजनैतिक प्रभाव के स्थान पर तपस्या एवं आचरण को अधिक महत्त्व दिये। जैन मत सनातन धर्म का पूरक बना रहा। संन्यास के पश्चात वर्धमान का नाम महावीर हुआ।
कुमारिलभट्ट (५५७-४९३ ई.पू.) के जैन गुरु उज्जैन के कालकाचार्य जी (५९९-५२७ ई.पू.) ने जैन ग्रन्थों का पुनरुद्धार किया था, अतः उनको वीर कहा गया (जिनविजय महाकाव्य)। उनके देहान्त के पश्चात वीर सम्वत् आरम्भ हुआ जो वीर सम्वत् ही है,महावीर सम्वत् नहीं।
४. ऋषभदेव जी की आयु :
पुराणों में बड़ी बड़ी संख्यायें दी गयी हैं तथा हम अपनी प्रशंसा के लिये उनको और बड़ा करते जाते हैं। पर इससे वे अविश्वसनीय बन जाते हैं तथा भक्त भी उनकी ऐतिहासिक सत्यता पर विश्वास नहीं करते।
ऋषभदेव जी की आयु १०० कोड़ा कोड़ी अर्थात १० करोड़ का पुनः करोड़ गुणा; या १ पर १६ शून्य वर्ष। यह ब्रह्माण्ड की आयु (८६४ करोड़ वर्ष का ब्रह्मा का दिनरात) से ११ लाख गुणा बड़ा है। प्रशंसा में इतनी बड़ी संख्या कैसे निकली?
ऋषभ देव जी विष्णु के २४ अवतारों में से एक हैं। पूरा विश्व विष्णु की श्वास (सृष्टि-प्रलय का चक्र= ८६४ कोटि वर्ष) है। यह सृष्टि वेद है जिसके बारे में तुलसीदास जी ने लिखा है :
जाकी श्वास सहज श्रुति चारी (रामचरितमानस, बालकाण्ड, २०३/३)
यही बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है :
एवं वा अरेऽस्य महतोभूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ऽथर्वाङ्गिरस इतिहास पुराण विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि अस्यैवैतानि निःश्वसितानि। (बृहदारण्यक उपनिषद्, २/४/१०)
ज्योतिष में श्वास चक्र को असु कहा गया है जो ४ सेकण्ड का होता है। ४ सेकण्ड को ८६४ करोड़ वर्ष मानने पर १०० कोड़ा-कोड़ी वर्ष का अर्थ ५३ वर्ष होगा। भगवती सूत्र में ऋषभ देव जी का राज्यकाल ५३ पूर्वा कहा गया है, जहां पूर्वा का अर्थ इस गणना के अनुसार वर्ष होगा।
इसी प्रकार रामायण में भी राम की सेना १० घात ६२ कही गयी है जो सौरमण्डल के एलेक्ट्रान् संख्या का १०० गुणा है। रामचरितमानस में भी उनके सेनापतियों की संख्या १८ पद्म कही गयी है जो विश्व की वर्तमान जनसंख्या का २० लाख गुणा अधिक है। वस्तुतः १८ क्षेत्रों (पद्म) में रावण के साथ युद्ध हुआ था और हर क्षेत्र के लिये १-१ सेनापति थे जिनको पद्म कहा है। इनके नाम वाल्मीकि रामायण में वर्णित हैं। उत्तरकाण्ड (२५/३३) के अनुसार रावण ने इन्द्र पर ४ (४ सहस्र = प्रायः ४) अक्षौहिणी सेना के साथ आक्रमण किया था। उसके पश्चात उसकी सेना ५ अक्षौहिणी से कुछ अधिक हुई होगी। इस गणित से राम ने ६ अक्षौहिणी सेना जुटाई। नीलकण्ठ टीका के अनुसार राम के पास ६२ इकाई (६.२ अक्षौहिणी) तथा रावण के पास ७० इकाई (७ अक्षौहिणी) सेना थी। महाभारत, आदि पर्व (२/१९-२५) के अनुसार १ अक्षौहिणी में २,१८,५०० युद्ध करने वाले सैनिक होते हैं।
सम्पादकीय टिप्पणी :
- पुराने भारत के ऐतिहासिक व्यक्तियोंं का अभिजान एवं काल निर्धारण पाश्चात्य हस्तक्षेप एवं कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति समर्पित रहे कथित इतिहासकारों के कारण दुष्कर है। ऐसे में भारतीय परम्पराओं के अपने साक्ष्यों एवं गणितीय अनुप्रयोगों द्वारा समान्तर पाठ देना एक चुनौती भरा साहसिक काम है। विद्वान लेखक इस दिशा में जो बढ़े हैं तो आशा है कि इससे विमर्श एवं शोध की नयी धारायें प्रस्फुटित होंगी।
- आदि पर्व, महाभारत में गणितज्ञों के लिये ‘संख्यागणिततत्त्वज्ञ’ और ‘संख्यातत्त्वविद’ शब्दों का प्रयोग किया गया है। उसी पर्व में सेना की अक्षौहिणी इकाई के विभिन्न घटकों और उनमें पैदल सैनिकों, अश्वों, रथों और हाथियों की संख्या बताई गयी है। भारत युद्ध में कौरवों की ओर से 11 अक्षौहिणी और पांडवों की ओर से 7 अक्षौहिणी सेनायें लड़ी थीं। इन संख्याओं में महाभारत ग्रंथ से सम्बन्धित कोई कूट छिपा हुआ है। 18 का अभाज्य संख्याओं 7 और 11 में विभाजन एक उदाहरण भर है। ‘चमू’ तक की योजना भारत में बहुत परवर्ती काल तक चली। ‘चमूपति’ जैसे नाम अब भी पाये जाते हैं।