दोहे
राजेंद्र स्वर्णकार
[वर्षा संगीत]
शीतल सरस सुहावनी गंधिल बहे बयार ।
रविशंकर की बज रही, मानो मधुर सितार ॥
मद्धम लय घन गरजते, मंद सुगंध समीर ।
विष्णु पलुस्कर का मनो, गायन गहन गंभीर ॥
तबले पर ज्यों मस्त हो’ दी हुसैन ने थाप ।
बादल गरजे आ गई बरखा हरने ताप ॥
सावन ने जग को दिया बरखा का उपहार ।
ज्यों पंडित जसराज ने गाया मेघ मल्हार ॥
भीमसेन जोशी भरे ज्यों ऊंचा आलाप ।
गरज बरस कर मेघ ये हरते दुख संताप ॥
खेतों खेतों में मगन बरखा नाची आज ।
वन उपवन आंगन हुए ज्यों बिरजू महराज ॥
गाते नीर समीर मिल’ …करे जगत रसपान ।
राजन साजन मिश्र का जैसे युगल सुगान ॥
बूंदें झनकीं, ज्यों छिड़ा शिवजी का संतूर ।
मधुरस भीगे गा उठे मलिकार्जुन मंसूर ॥
अहो! विलंबित मध्य द्रुत रुक थम’ पड़े फुहार ।
झूम झूम कर गा रहे ज्यों पंडित ओंकार ॥
सावन झड़ ने यों किया मस्ती का अभ्यस्त ।
गाए ठुमरी दादरा सिंह बंधु ज्यों मस्त ॥
तेज़ कभी मद्धम कभी, बरसे बरखा नीर ।
मींड मुरकियां ले रहे ज्यों उस्ताद अमीर ॥
सावन संग बजा रहे अमज़द अली सरोद ।
छेड़ें हरिजी हो’ मगन राग तिलक कामोद ॥
बेग़म अख़्तर की ग़ज़ल बरखा गाए आज ।
बदरी कजरी गा रही बन’ मलिका पुखराज ॥
आरोही स्वर गा रहे, ज्यों कुमार गंधर्व ।
सावन झड़ से मन रहा आनंदोत्सव पर्व ॥
बूंदन झड़ से यों हुआ मुदित मुग्ध संसार ।
मनो किशोरि अमोणकर छेड़े राग बहार ॥
मोर पिहू, कोयल कुहू, भीगे धूम मचाय ।
सुल्ताना परवीन ज्यों जैजैवंती गा’य ॥
बरखा बिजुरी यों रमें गांव शहर वन बाग़ ।
लक्ष्मीशंकर निर्मलादेवी छेड़ें राग ॥
उत्तर दिशि की बादली बूंदन झड़ी लगाय ।
गिरिजा देवी ज्यों मगन चैती झूला गा’य ॥
झड़ी झमाझम झम लगी, बिजुरी चमके साथ ।
एम राजम के वायलिन पर चलते ज्यों हाथ ॥
बूंदन की स्वर लहरियां, सुनो लगा कर ध्यान ।
ज्यों कैवल्य कुमार की मधुर मधुर हो तान ॥
बरखा संग राजेन्द्र गा रहा प्रणय के गीत ।
रोम रोम झरना बहे क्लासीकल संगीत ॥
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[गुरु शिष्य]
शिल्पी छैनी से करे, सपनों को साकार ।
अनगढ़ पत्थर से रचे, मनचाहा आकार ॥
माटी रख कर चाक पर, घड़ा घड़े कुम्हार ।
श्रेष्ठ गुरु मिल जाय तो, शिष्य पाय संस्कार ॥
चादर रंगदे रंग में, सुगुणी गुरु रंगरेज ।
ज्यूं ज्यूं प्रक्षालन करे, बढ़े शिष्य का तेज ॥
गोविंद से गुरु है बड़ा, कहे गुणी समझाय ।
गुरु के आशीर्वाद से, शिष्य परम पद पाय ॥
‘गुरु के सम हरि ना गिनूं, तज डारूं मैं राम ।’
ऐसी श्रद्धा जो रखे, उनके संवरे काम ॥
श्रेष्ठ गुरू संसार में, विश्वामित्र – वशिष्ठ ।
गुरू कृपा से रामजी, बने जगत के इष्ट ॥
मिल गए गुरु संदीपनी ; ली उनसे आशीष ।
ग्वाले ने गीता रची, बने कृष्ण जगदीश ॥
एकलव्य ; गुरु-दक्षिणा दे’कर हुआ निहाल ।
द्रोणागुरु-मन जीत कर, जीत गया वह काल ॥
रामदास गुरु ; शिष्य श्री छत्रपति शिवराज ।
गर्वित भारत मां हुई, हर्षित हिंदु समाज ॥
परमहंस गुरु मिल गए, धन्य विवेकानंद ।
सुभग शिष्य-गुरु-योग से मिले सच्चिदानंद ॥
एक बूंद मोती बने, इक सागर बन जाय ।
जितनी करुणा गुरू करे, शिष्य-मान बढ़ जाय ॥
शिष्यों । गुरु का कीजिए, निर्मल मन से मान ।
मिलते, गुरु-आशीष से सुख, सम्पति, सम्मान ॥
मात्र समर्पण से मिले, गुरुजन की आशीष ।
हाथ जोड़’ रख दीजिए, गुरु-चरणों में शीश ॥
गुरू तपाए ; शिष्य तप – तप’ कुंदन बन जाय ।
सच्चा गुरु संसार में, भाग्यवान ही पाय ॥
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कृतज्ञ हूं
हृदय से आभार आदरणीय
सुन्दर प्रयोग और सृजन !! धन्य हैं आप !