आदिकाव्य रामायण महर्षि वाल्मीकि द्वारा श्लोकछंद बद्ध रामाख्यान है। रामायण महाकाव्य जाने कितने युगों से जन जन को चमत्कृत करता रहा है। राम इस देश के रोम रोम में बसे हैं। दक्षिण पूर्व एशिया में रामायण मञ्चन एक स्थापित कला है।
रामायण से चुने हुये प्रसङ्ग ले कर लिखी जाने वाली यह शृंखला मूलत: ब्लॉग पर आरम्भ की गयी थी। ‘मघा’ के पाठकों को पुराने लेख मिलें और पाठकों तक पहुँच विस्तृत हो, इस हेतु 16 वीं कड़ी से शृंखला यहाँ प्रस्तुत की जायेगी। पहले की 15 कड़ियों के लिंक निम्नवत हैं:
(1) रामायण से दो कथायें: गङ्गावतरण और कार्तिकेय जन्म
(2) बालकाण्ड : रामजन्म, सहस्रो वर्ष और चार कवि
(3) अयोध्याकाण्ड : देवी कौशल्या का स्वस्ति वाचन
(4) अरण्यकाण्ड : अतिथि का आश्वासन
(5) किष्किंधाकाण्ड : पहली भेंट
(6) किष्किंधाकाण्ड : हनुमंस्तथा कुरुष्व
(7) किष्किंधाकाण्ड : जामवंत जी, उस पार कौन जायेगा?
(8) किष्किंधाकाण्ड : तुम जाओगे मारुति
(9) किष्किंधाकाण्ड : मैं हूँ न! अहं द्रक्ष्यामि वैदेहीं
(10) सुंदरकाण्ड : अमोघ राघवनिर्मुक्त: शर:
(11) सुंदरकाण्ड : शिला: शैलो विशाला: समन: शिला:
(12) सुंदरकाण्ड : मैनाक! प्रतिज्ञा च मया दत्ता
(13) सुंदरकाण्ड : गच्छ सौम्य यथासुखम्
(14) सुंदरकाण्ड : चार गुण – धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं
(15) सुंदरकाण्ड : राक्षसी लङ्का – समये सौम्य तिष्ठंति सत्त्ववंतो महाबला
सोलहवीं कड़ी सीता जी की खोज में हनुमान द्वारा रावण के शयन कक्ष और पानभूमि में प्रवेश से सम्बंधित है। यह प्रसङ्ग उस मान्यता के पक्ष में खड़ा दिखता है जिसके अनुसार यह माना जाता है कि आख्यानों का प्रयोग विभिन्न विद्याओं के प्रशिक्षण हेतु भी होता था जिनमें लौकिक काव्य भी सम्मिलित है।
आगे बढ़ने से पहले कुछ बिंदुओं पर लिखना आवश्यक है। रामायण के अनेक संस्करण मिलते हैं जिन्हें दो समूहों में रखा जा सकता है, उत्तरी और दक्षिणी।
उत्तरी संस्करण ईशान, वायव्य, पूर्वी आदि रूपों में उपलब्ध है। एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा ने सदियों पुरानी उपलब्ध पाण्डुलिपियों के आधार पर रामायण का एक ऐसा मानक संस्करण ( Critical Edition) सुनिश्चित करने का सफल प्रकल्प पूरा किया जो विद्वानों द्वारा सराहा गया।
आगे बढ़ने से पहले पाठ भेदों पर प्रकाश डालना आवश्यक है। इसके लिये हम जनसुलभ (vulgate) दाक्षिणात्य संस्करण, गीताप्रेस संस्करण और मानक संस्करण देखेंगे। गीताप्रेस और मानक संस्करण, दोनों का आधार मुख्यत: दाक्षिणात्य संस्करण ही है। अत: तुलना में अधिक भटकाव नहीं होगा।
गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण सुंदरकाण्ड के नवें. दसवें और ग्यारहवें सर्गों में हनुमान जी द्वारा रावण के अंत:पुर और पानभूमि में सीता जी को ढूँढ़ने का उल्लेख है। तीनों में छंद गणना निम्नवत है:
9 – 73, 10 – 54, 11– 48
दाक्षिणात्य संस्करण में नवें और दसवें सर्गों में संख्यायें यथावत हैं किंतु ग्यारहवें सर्ग में एक श्लोक की न्यूनता है। गीताप्रेस पाठ के चौथे श्लोक की अर्द्धाली – पानभूमौ हरिश्रेष्ठ: सीतासंदर्शनोत्सुक: – दाक्षिणात्य पाठ में नहीं है।
गीताप्रेस संस्करण का अन्य श्लोक जो दाक्षिणात्य पाठ में नहीं हैं:
अन्यत्रापि वरस्त्रीणां रूपसंलापशायिनां।
सहस्रं युवतीनां तु प्रसुप्तं स ददर्श ह॥
[यह मानक संस्करण में भी नहीं है।]
दाक्षिणात्य पाठ का यह श्लोक गीताप्रेस संस्करण में नहीं है:
क्वचित् प्रभिन्नैः करकैः क्वचिद् आलोडितैर् घटैः।
क्वचित् सम्पृक्त माल्यानि जलानि च फलानि च॥ ५-११-२७
[यह मानक संस्करण में है।]
…
मानक संस्करण में हनुमान जी के इस अभियान का प्रकरण सातवें से नवें सर्ग में मिलता है। छंद गणना निम्नवत है:
7 – 69, 8 – 50, 9 – 44
…
गीताप्रेस संस्करण के जो श्लोक मानक पाठ में नहीं हैं, उनके संदर्भ निम्नवत हैं:
9.4, 17, 18, 19(1/3), 69,
10.4, 14(1/2), 36, 40(2/2), 41(1/2),
11.4(2/2), 9, 10, 48
इनके पाठ यथास्थान आवश्यकता पड़ने पर दिये जायेंगे।
मानक संस्करण (बड़ौदा) का सम्पूर्ण पाठ निम्नवत है:
5007001a तस्यालयवरिष्ठस्य मध्ये विपुलमायतम्
5007001c ददर्श भवनश्रेष्ठं हनूमान्मारुतात्मजः
5007002a अर्धयोजनविस्तीर्णमायतं योजनं हि तत्
5007002c भवनं राक्षसेन्द्रस्य बहुप्रासादसंकुलम्
5007003a मार्गमाणस्तु वैदेहीं सीतामायतलोचनाम्
5007003c सर्वतः परिचक्राम हनूमानरिसूदनः
…
5007004a चतुर्विषाणैर्द्विरदैस्त्रिविषाणैस्तथैव च
5007004c परिक्षिप्तमसंबाधं रक्ष्यमाणमुदायुधैः
5007005a राक्षसीभिश्च पत्नीभी रावणस्य निवेशनम्
5007005c आहृताभिश्च विक्रम्य राजकन्याभिरावृतम्
5007006a तन्नक्रमकराकीर्णं तिमिंगिलझषाकुलम्
5007006c वायुवेगसमाधूतं पन्नगैरिव सागरम्
5007007a या हि वैश्वरणे लक्ष्मीर्या चेन्द्रे हरिवाहने
5007007c सा रावणगृहे सर्वा नित्यमेवानपायिनी
5007008a या च राज्ञः कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च
5007008c तादृशी तद्विशिष्टा वा ऋद्धी रक्षो गृहेष्विह
5007009a तस्य हर्म्यस्य मध्यस्थं वेश्म चान्यत्सुनिर्मितम्
5007009c बहुनिर्यूह संकीर्णं ददर्श पवनात्मजः
5007010a ब्रह्मणोऽर्थे कृतं दिव्यं दिवि यद्विश्वकर्मणा
5007010c विमानं पुष्पकं नाम सर्वरत्नविभूषितम्
5007011a परेण तपसा लेभे यत्कुबेरः पितामहात्
5007011c कुबेरमोजसा जित्वा लेभे तद्राक्षसेश्वरः
5007012a ईहा मृगसमायुक्तैः कार्यस्वरहिरण्मयैः
5007012c सुकृतैराचितं स्तम्भैः प्रदीप्तमिव च श्रिया
5007013a मेरुमन्दरसंकाशैरुल्लिखद्भिरिवाम्बरम्
5007013c कूटागारैः शुभाकारैः सर्वतः समलंकृतम्
5007014a ज्वलनार्कप्रतीकाशं सुकृतं विश्वकर्मणा
5007014c हेमसोपानसंयुक्तं चारुप्रवरवेदिकम्
5007015a जालवातायनैर्युक्तं काञ्चनैः स्थाटिकैरपि
5007015c इन्द्रनीलमहानीलमणिप्रवरवेदिकम्
…
5007015e विमानं पुष्पकं दिव्यमारुरोह महाकपिः
5007016a तत्रस्थः स तदा गन्धं पानभक्ष्यान्नसंभवम्
5007016c दिव्यं संमूर्छितं जिघ्रन्रूपवन्तमिवानिलम्
5007017a स गन्धस्तं महासत्त्वं बन्धुर्बन्धुमिवोत्तमम्
5007017c इत एहीत्युवाचेव तत्र यत्र स रावणः
5007018a ततस्तां प्रस्थितः शालां ददर्श महतीं शुभाम्
5007018c रावणस्य मनःकान्तां कान्तामिव वरस्त्रियम्
5007019a मणिसोपानविकृतां हेमजालविराजिताम्
5007019c स्फाटिकैरावृततलां दन्तान्तरितरूपिकाम्
5007020a मुक्ताभिश्च प्रवालैश्च रूप्यचामीकरैरपि
5007020c विभूषितां मणिस्तम्भैः सुबहुस्तम्भभूषिताम्
5007021a समैरृजुभिरत्युच्चैः समन्तात्सुविभूषितैः
5007021c स्तम्भैः पक्षैरिवात्युच्चैर्दिवं संप्रस्थितामिव
5007022a महत्या कुथयास्त्रीणं पृथिवीलक्षणाङ्कया
5007022c पृथिवीमिव विस्तीर्णां सराष्ट्रगृहमालिनीम्
5007023a नादितां मत्तविहगैर्दिव्यगन्धाधिवासिताम्
5007023c परार्ध्यास्तरणोपेतां रक्षोऽधिपनिषेविताम्
5007024a धूम्रामगरुधूपेन विमलां हंसपाण्डुराम्
5007024c चित्रां पुष्पोपहारेण कल्माषीमिव सुप्रभाम्
5007025a मनःसंह्लादजननीं वर्णस्यापि प्रसादिनीम्
5007025c तां शोकनाशिनीं दिव्यां श्रियः संजननीमिव
5007026a इन्द्रियाणीन्द्रियार्थैस्तु पञ्च पञ्चभिरुत्तमैः
5007026c तर्पयामास मातेव तदा रावणपालिता
5007027a स्वर्गोऽयं देवलोकोऽयमिन्द्रस्येयं पुरी भवेत्
5007027c सिद्धिर्वेयं परा हि स्यादित्यमन्यत मारुतिः
5007028a प्रध्यायत इवापश्यत्प्रदीपांस्तत्र काञ्चनान्
5007028c धूर्तानिव महाधूर्तैर्देवनेन पराजितान्
5007029a दीपानां च प्रकाशेन तेजसा रावणस्य च
5007029c अर्चिर्भिर्भूषणानां च प्रदीप्तेत्यभ्यमन्यत
5007030a ततोऽपश्यत्कुथासीनं नानावर्णाम्बरस्रजम्
5007030c सहस्रं वरनारीणां नानावेषविभूषितम्
5007031a परिवृत्तेऽर्धरात्रे तु पाननिद्रावशं गतम्
5007031c क्रीडित्वोपरतं रात्रौ सुष्वाप बलवत्तदा
5007032a तत्प्रसुप्तं विरुरुचे निःशब्दान्तरभूषणम्
5007032c निःशब्दहंसभ्रमरं यथा पद्मवनं महत्
5007033a तासां संवृतदन्तानि मीलिताक्षाणि मारुतिः
5007033c अपश्यत्पद्मगन्धीनि वदनानि सुयोषिताम्
5007034a प्रबुद्धानीव पद्मानि तासां भूत्वा क्षपाक्षये
5007034c पुनःसंवृतपत्राणि रात्राविव बभुस्तदा
5007035a इमानि मुखपद्मानि नियतं मत्तषट्पदाः
5007035c अम्बुजानीव फुल्लानि प्रार्थयन्ति पुनः पुनः
5007036a इति वामन्यत श्रीमानुपपत्त्या महाकपिः
5007036c मेने हि गुणतस्तानि समानि सलिलोद्भवैः
5007037a सा तस्य शुशुभे शाला ताभिः स्त्रीभिर्विराजिता
5007037c शारदीव प्रसन्ना द्यौस्ताराभिरभिशोभिता
5007038a स च ताभिः परिवृतः शुशुभे राक्षसाधिपः
5007038c यथा ह्युडुपतिः श्रीमांस्ताराभिरभिसंवृतः
5007039a याश्च्यवन्तेऽम्बरात्ताराः पुण्यशेषसमावृताः
5007039c इमास्ताः संगताः कृत्स्ना इति मेने हरिस्तदा
5007040a ताराणामिव सुव्यक्तं महतीनां शुभार्चिषाम्
5007040c प्रभावर्णप्रसादाश्च विरेजुस्तत्र योषिताम्
5007041a व्यावृत्तगुरुपीनस्रक्प्रकीर्णवरभूषणाः
5007041c पानव्यायामकालेषु निद्रापहृतचेतसः
5007042a व्यावृत्ततिलकाः काश्चित्काश्चिदुद्भ्रान्तनूपुराः
5007042c पार्श्वे गलितहाराश्च काश्चित्परमयोषितः
5007043a मुखा हारवृताश्चान्याः काश्चित्प्रस्रस्तवाससः
5007043c व्याविद्धरशना दामाः किशोर्य इव वाहिताः
5007044a सुकुण्डलधराश्चान्या विच्छिन्नमृदितस्रजः
5007044c गजेन्द्रमृदिताः फुल्ला लता इव महावने
5007045a चन्द्रांशुकिरणाभाश्च हाराः कासांचिदुत्कटाः
5007045c हंसा इव बभुः सुप्ताः स्तनमध्येषु योषिताम्
5007046a अपरासां च वैदूर्याः कादम्बा इव पक्षिणः
5007046c हेमसूत्राणि चान्यासां चक्रवाका इवाभवन्
5007047a हंसकारण्डवाकीर्णाश्चक्रवाकोपशोभिताः
5007047c आपगा इव ता रेजुर्जघनैः पुलिनैरिव
5007048a किङ्किणीजालसंकाशास्ता हेमविपुलाम्बुजाः
5007048c भावग्राहा यशस्तीराः सुप्ता नद्य इवाबभुः
5007049a मृदुष्वङ्गेषु कासांचित्कुचाग्रेषु च संस्थिताः
5007049c बभूवुर्भूषणानीव शुभा भूषणराजयः
5007050a अंशुकान्ताश्च कासांचिन्मुखमारुतकम्पिताः
5007050c उपर्युपरि वक्त्राणां व्याधूयन्ते पुनः पुनः
5007051a ताः पाताका इवोद्धूताः पत्नीनां रुचिरप्रभाः
5007051c नानावर्णसुवर्णानां वक्त्रमूलेषु रेजिरे
5007052a ववल्गुश्चात्र कासांचित्कुण्डलानि शुभार्चिषाम्
5007052c मुखमारुतसंसर्गान्मन्दं मन्दं सुयोषिताम्
5007053a शर्करासवगन्धः स प्रकृत्या सुरभिः सुखः
5007053c तासां वदननिःश्वासः सिषेवे रावणं तदा
5007054a रावणाननशङ्काश्च काश्चिद्रावणयोषितः
5007054c मुखानि स्म सपत्नीनामुपाजिघ्रन्पुनः पुनः
5007055a अत्यर्थं सक्तमनसो रावणे ता वरस्त्रियः
5007055c अस्वतन्त्राः सपत्नीनां प्रियमेवाचरंस्तदा
5007056a बाहूनुपनिधायान्याः पारिहार्य विभूषिताः
5007056c अंशुकानि च रम्याणि प्रमदास्तत्र शिश्यिरे
5007057a अन्या वक्षसि चान्यस्यास्तस्याः काचित्पुनर्भुजम्
5007057c अपरा त्वङ्कमन्यस्यास्तस्याश्चाप्यपरा भुजौ
5007058a ऊरुपार्श्वकटीपृष्ठमन्योन्यस्य समाश्रिताः
5007058c परस्परनिविष्टाङ्ग्यो मदस्नेहवशानुगाः
5007059a अन्योन्यस्याङ्गसंस्पर्शात्प्रीयमाणाः सुमध्यमाः
5007059c एकीकृतभुजाः सर्वाः सुषुपुस्तत्र योषितः
5007060a अन्योन्यभुजसूत्रेण स्त्रीमालाग्रथिता हि सा
5007060c मालेव ग्रथिता सूत्रे शुशुभे मत्तषट्पदा
5007061a लतानां माधवे मासि फुल्लानां वायुसेवनात्
5007061c अन्योन्यमालाग्रथितं संसक्तकुसुमोच्चयम्
5007062a व्यतिवेष्टितसुस्कन्थमन्योन्यभ्रमराकुलम्
5007062c आसीद्वनमिवोद्धूतं स्त्रीवनं रावणस्य तत्
5007063a उचितेष्वपि सुव्यक्तं न तासां योषितां तदा
5007063c विवेकः शक्य आधातुं भूषणाङ्गाम्बरस्रजाम्
5007064a रावणे सुखसंविष्टे ताः स्त्रियो विविधप्रभाः
5007064c ज्वलन्तः काञ्चना दीपाः प्रेक्षन्तानिमिषा इव
5007065a राजर्षिपितृदैत्यानां गन्धर्वाणां च योषितः
5007065c रक्षसां चाभवन्कन्यास्तस्य कामवशं गताः
…
5007066a न तत्र काचित्प्रमदा प्रसह्य; वीर्योपपन्नेन गुणेन लब्धा
5007066c न चान्यकामापि न चान्यपूर्वा; विना वरार्हां जनकात्मजां तु
5007067a न चाकुलीना न च हीनरूपा; नादक्षिणा नानुपचार युक्ता
5007067c भार्याभवत्तस्य न हीनसत्त्वा; न चापि कान्तस्य न कामनीया
5007068a बभूव बुद्धिस्तु हरीश्वरस्य; यदीदृशी राघवधर्मपत्नी
5007068c इमा यथा राक्षसराजभार्याः; सुजातमस्येति हि साधुबुद्धेः
5007069a पुनश्च सोऽचिन्तयदार्तरूपो; ध्रुवं विशिष्टा गुणतो हि सीता
5007069c अथायमस्यां कृतवान्महात्मा; लङ्केश्वरः कष्टमनार्यकर्म
10.4,
5008001a तत्र दिव्योपमं मुख्यं स्फाटिकं रत्नभूषितम्
5008001c अवेक्षमाणो हनुमान्ददर्श शयनासनम्
5008002a तस्य चैकतमे देशे सोऽग्र्यमाल्यविभूषितम्
5008002c ददर्श पाण्डुरं छत्रं ताराधिपतिसंनिभम्
5008003a बालव्यजनहस्ताभिर्वीज्यमानं समन्ततः
5008003c गन्धैश्च विविधैर्जुष्टं वरधूपेन धूपितम्
5008004a परमास्तरणास्तीर्णमाविकाजिनसंवृतम्
5008004c दामभिर्वरमाल्यानां समन्तादुपशोभितम्
5008005a तस्मिञ्जीमूतसंकाशं प्रदीप्तोत्तमकुण्डलम्
5008005c लोहिताक्षं महाबाहुं महारजतवाससं
5008006a लोहितेनानुलिप्ताङ्गं चन्दनेन सुगन्धिना
5008006c संध्यारक्तमिवाकाशे तोयदं सतडिद्गुणम्
5008007a वृतमाभरणैर्दिव्यैः सुरूपं कामरूपिणम्
5008007c सवृक्षवनगुल्माढ्यं प्रसुप्तमिव मन्दरम्
5008008a क्रीडित्वोपरतं रात्रौ वराभरणभूषितम्
5008008c प्रियं राक्षसकन्यानां राक्षसानां सुखावहम्
5008009a पीत्वाप्युपरतं चापि ददर्श स महाकपिः
5008009c भास्करे शयने वीरं प्रसुप्तं राक्षसाधिपम्
5008010a निःश्वसन्तं यथा नागं रावणं वानरोत्तमः
5008010c आसाद्य परमोद्विग्नः सोऽपासर्पत्सुभीतवत्
5008011a अथारोहणमासाद्य वेदिकान्तरमाश्रितः
10.14(1/2)
5008011c सुप्तं राक्षसशार्दूलं प्रेक्षते स्म महाकपिः [गीताप्रेस संस्करण में नहीं]
5008012a शुशुभे राक्षसेन्द्रस्य स्वपतः शयनोत्तमम्
5008012c गन्धहस्तिनि संविष्टे यथाप्रस्रवणं महत्
5008013a काञ्चनाङ्गदनद्धौ च ददर्श स महात्मनः
5008013c विक्षिप्तौ राक्षसेन्द्रस्य भुजाविन्द्रध्वजोपमौ
5008014a ऐरावतविषाणाग्रैरापीडितकृतव्रणौ
5008014c वज्रोल्लिखितपीनांसौ विष्णुचक्रपरिक्षितौ
5008015a पीनौ समसुजातांसौ संगतौ बलसंयुतौ
5008015c सुलक्षण नखाङ्गुष्ठौ स्वङ्गुलीतललक्षितौ
5008016a संहतौ परिघाकारौ वृत्तौ करिकरोपमौ
5008016c विक्षिप्तौ शयने शुभ्रे पञ्चशीर्षाविवोरगौ
5008017a शशक्षतजकल्पेन सुशीतेन सुगन्धिना
5008017c चन्दनेन परार्ध्येन स्वनुलिप्तौ स्वलंकृतौ
5008018a उत्तमस्त्रीविमृदितौ गन्धोत्तमनिषेवितौ
5008018c यक्षपन्नगगन्धर्वदेवदानवराविणौ
5008019a ददर्श स कपिस्तस्य बाहू शयनसंस्थितौ
5008019c मन्दरस्यान्तरे सुप्तौ महार्ही रुषिताविव
5008020a ताभ्यां स परिपूर्णाभ्यां भुजाभ्यां राक्षसाधिपः
5008020c शुशुभेऽचलसंकाशः शृङ्गाभ्यामिव मन्दरः
5008021a चूतपुंनागसुरभिर्बकुलोत्तमसंयुतः
5008021c मृष्टान्नरससंयुक्तः पानगन्धपुरःसरः
5008022a तस्य राक्षससिंहस्य निश्चक्राम मुखान्महान्
5008022c शयानस्य विनिःश्वासः पूरयन्निव तद्गृहम्
5008023a मुक्तामणिविचित्रेण काञ्चनेन विराजता
5008023c मुकुटेनापवृत्तेन कुण्डलोज्ज्वलिताननम्
5008024a रक्तचन्दनदिग्धेन तथा हारेण शोभिता
5008024c पीनायतविशालेन वक्षसाभिविराजितम्
5008025a पाण्डुरेणापविद्धेन क्षौमेण क्षतजेक्षणम्
5008025c महार्हेण सुसंवीतं पीतेनोत्तमवाससा
5008026a माषराशिप्रतीकाशं निःश्वसन्तं भुजङ्गवत्
5008026c गाङ्गे महति तोयान्ते प्रसुतमिव कुञ्जरम्
5008027a चतुर्भिः काञ्चनैर्दीपैर्दीप्यमानैश्चतुर्दिशम्
5008027c प्रकाशीकृतसर्वाङ्गं मेघं विद्युद्गणैरिव
5008028a पादमूलगताश्चापि ददर्श सुमहात्मनः
5008028c पत्नीः स प्रियभार्यस्य तस्य रक्षःपतेर्गृहे
5008029a शशिप्रकाशवदना वरकुण्डलभूषिताः
5008029c अम्लानमाल्याभरणा ददर्श हरियूथपः
5008030a नृत्तवादित्रकुशला राक्षसेन्द्रभुजाङ्कगाः
5008030c वराभरणधारिण्यो निषन्ना ददृशे कपिः
5008031a वज्रवैदूर्यगर्भाणि श्रवणान्तेषु योषिताम्
5008031c ददर्श तापनीयानि कुण्डलान्यङ्गदानि च
5008032a तासां चन्द्रोपमैर्वक्त्रैः शुभैर्ललितकुण्डलैः
5008032c विरराज विमानं तन्नभस्तारागणैरिव
5008033a मदव्यायामखिन्नास्ता राक्षसेन्द्रस्य योषितः
5008033c तेषु तेष्ववकाशेषु प्रसुप्तास्तनुमध्यमाः
10.36
5008034a काचिद्वीणां परिष्वज्य प्रसुप्ता संप्रकाशते
5008034c महानदीप्रकीर्णेव नलिनी पोतमाश्रिता
5008035a अन्या कक्षगतेनैव मड्डुकेनासितेक्षणा
5008035c प्रसुप्ता भामिनी भाति बालपुत्रेव वत्सला
5008036a पटहं चारुसर्वाङ्गी पीड्य शेते शुभस्तनी
5008036c चिरस्य रमणं लब्ध्वा परिष्वज्येव कामिनी
5008037a काचिदंशं परिष्वज्य सुप्ता कमललोचना
10.40(2/2), 41(1/2)
5008037c निद्रावशमनुप्राप्ता सहकान्तेव भामिनी
5008038a अन्या कनकसंकाशैर्मृदुपीनैर्मनोरमैः
5008038c मृदङ्गं परिपीड्याङ्गैः प्रसुप्ता मत्तलोचना
5008039a भुजपार्श्वान्तरस्थेन कक्षगेण कृशोदरी
5008039c पणवेन सहानिन्द्या सुप्ता मदकृतश्रमा
5008040a डिण्डिमं परिगृह्यान्या तथैवासक्तडिण्डिमा
5008040c प्रसुप्ता तरुणं वत्समुपगूह्येव भामिनी
5008041a काचिदाडम्बरं नारी भुजसंभोगपीडितम्
5008041c कृत्वा कमलपत्राक्षी प्रसुप्ता मदमोहिता
5008042a कलशीमपविद्ध्यान्या प्रसुप्ता भाति भामिनी
5008042c वसन्ते पुष्पशबला मालेव परिमार्जिता
5008043a पाणिभ्यां च कुचौ काचित्सुवर्णकलशोपमौ
5008043c उपगूह्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता
5008044a अन्या कमलपत्राक्षी पूर्णेन्दुसदृशानना
5008044c अन्यामालिङ्ग्य सुश्रोणी प्रसुप्ता मदविह्वला
5008045a आतोद्यानि विचित्राणि परिष्वज्य वरस्त्रियः
5008045c निपीड्य च कुचैः सुप्ताः कामिन्यः कामुकानिव
5008046a तासामेकान्तविन्यस्ते शयानां शयने शुभे
5008046c ददर्श रूपसंपन्नामपरां स कपिः स्त्रियम्
5008047a मुक्तामणिसमायुक्तैर्भूषणैः सुविभूषिताम्
5008047c विभूषयन्तीमिव च स्वश्रिया भवनोत्तमम्
5008048a गौरीं कनकवर्णाभामिष्टामन्तःपुरेश्वरीम्
5008048c कपिर्मन्दोदरीं तत्र शयानां चारुरूपिणीम्
5008049a स तां दृष्ट्वा महाबाहुर्भूषितां मारुतात्मजः
5008049c तर्कयामास सीतेति रूपयौवनसंपदा
5008049e हर्षेण महता युक्तो ननन्द हरियूथपः
5008050a आस्ह्पोटयामास चुचुम्ब पुच्छं; ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम
5008050c स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ; निदर्शयन्स्वां प्रकृतिं कपीनाम्
5009001a अवधूय च तां बुद्धिं बभूवावस्थितस्तदा
5009001c जगाम चापरां चिन्तां सीतां प्रति महाकपिः
5009002a न रामेण वियुक्ता सा स्वप्तुमर्हति भामिनी
5009002c न भोक्तुं नाप्यलंकर्तुं न पानमुपसेवितुम्
5009003a नान्यं नरमुपस्थातुं सुराणामपि चेश्वरम्
5009003c न हि रामसमः कश्चिद्विद्यते त्रिदशेष्वपि
5009003e अन्येयमिति निश्चित्य पानभूमौ चचार सः
11.4(2/2)
5009004a क्रीडितेनापराः क्लान्ता गीतेन च तथा पराः
5009004c नृत्तेन चापराः क्लान्ताः पानविप्रहतास्तथा
5009005a मुरजेषु मृदङ्गेषु पीठिकासु च संस्थिताः
5009005c तथास्तरणमुख्य्येषु संविष्टाश्चापराः स्त्रियः
5009006a अङ्गनानां सहस्रेण भूषितेन विभूषणैः
5009006c रूपसंलापशीलेन युक्तगीतार्थभाषिणा
5009007a देशकालाभियुक्तेन युक्तवाक्याभिधायिना
5009007c रताभिरतसंसुप्तं ददर्श हरियूथपः
11.9, 10
5009008a तासां मध्ये महाबाहुः शुशुभे राक्षसेश्वरः
5009008c गोष्ठे महति मुख्यानां गवां मध्ये यथा वृषः
5009009a स राक्षसेन्द्रः शुशुभे ताभिः परिवृतः स्वयम्
5009009c करेणुभिर्यथारण्यं परिकीर्णो महाद्विपः
5009010a सर्वकामैरुपेतां च पानभूमिं महात्मनः
5009010c ददर्श कपिशार्दूलस्तस्य रक्षःपतेर्गृहे
5009011a मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च भागशः
5009011c तत्र न्यस्तानि मांसानि पानभूमौ ददर्श सः
5009012a रौक्मेषु च विशलेषु भाजनेष्वर्धभक्षितान्
5009012c ददर्श कपिशार्दूल मयूरान्कुक्कुटांस्तथा
5009013a वराहवार्ध्राणसकान्दधिसौवर्चलायुतान्
5009013c शल्यान्मृगमयूरांश्च हनूमानन्ववैक्षत
5009014a कृकरान्विविधान्सिद्धांश्चकोरानर्धभक्षितान्
5009014c महिषानेकशल्यांश्च छागांश्च कृतनिष्ठितान्
5009014e लेख्यमुच्चावचं पेयं भोज्यानि विविधानि च
5009015a तथाम्ललवणोत्तंसैर्विविधै रागषाडवैः
5009015c हार नूपुरकेयूरैरपविद्धैर्महाधनैः
5009016a पानभाजनविक्षिप्तैः फलैश्च विविधैरपि
5009016c कृतपुष्पोपहारा भूरधिकं पुष्यति श्रियम्
5009017a तत्र तत्र च विन्यस्तैः सुश्लिष्टैः शयनासनैः
5009017c पानभूमिर्विना वह्निं प्रदीप्तेवोपलक्ष्यते
5009018a बहुप्रकारैर्विविधैर्वरसंस्कारसंस्कृतैः
5009018c मांसैः कुशलसंयुक्तैः पानभूमिगतैः पृथक्
5009019a दिव्याः प्रसन्ना विविधाः सुराः कृतसुरा अपि
5009019c शर्करासवमाध्वीकाः पुष्पासवफलासवाः
5009019e वासचूर्णैश्च विविधैर्मृष्टास्तैस्तैः पृथक्पृथक्
5009020a संतता शुशुभे भूमिर्माल्यैश्च बहुसंस्थितैः
5009020c हिरण्मयैश्च करकैर्भाजनैः स्फाटिकैरपि
5009020e जाम्बूनदमयैश्चान्यैः करकैरभिसंवृता
5009021a राजतेषु च कुम्भेषु जाम्बूनदमयेषु च
5009021c पानश्रेष्ठं तदा भूरि कपिस्तत्र ददर्श ह
5009022a सोऽपश्यच्छातकुम्भानि शीधोर्मणिमयानि च
5009022c राजतानि च पूर्णानि भाजनानि महाकपिः
5009023a क्वचिदर्धावशेषाणि क्वचित्पीतानि सर्वशः
5009023c क्वचिन्नैव प्रपीतानि पानानि स ददर्श ह
5009024a क्वचिद्भक्ष्यांश्च विविधान्क्वचित्पानानि भागशः
5009024c क्वचिदन्नावशेषाणि पश्यन्वै विचचार ह
5009025a क्वचित्प्रभिन्नैः करकैः क्वचिदालोडितैर्घटैः [गीताप्रेस संस्करण में नहीं]
5009025c क्वचित्संपृक्तमाल्यानि जलानि च फलानि च [गीताप्रेस संस्करण में नहीं]
5009026a शयनान्यत्र नारीणां शून्यानि बहुधा पुनः
5009026c परस्परं समाश्लिष्य काश्चित्सुप्ता वराङ्गनाः
5009027a काचिच्च वस्त्रमन्यस्या अपहृत्योपगुह्य च
5009027c उपगम्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता
5009028a तासामुच्छ्वासवातेन वस्त्रं माल्यं च गात्रजम्
5009028c नात्यर्थं स्पन्दते चित्रं प्राप्य मन्दमिवानिलम्
5009029a चन्दनस्य च शीतस्य शीधोर्मधुरसस्य च
5009029c विविधस्य च माल्यस्य पुष्पस्य विविधस्य च
5009030a बहुधा मारुतस्तत्र गन्धं विविधमुद्वहन्
5009030c स्नानानां चन्दनानां च धूपानां चैव मूर्छितः
5009030e प्रववौ सुरभिर्गन्धो विमाने पुष्पके तदा
5009031a श्यामावदातास्तत्रान्याः काश्चित्कृष्णा वराङ्गनाः
5009031c काश्चित्काञ्चनवर्णाङ्ग्यः प्रमदा राक्षसालये
5009032a तासां निद्रावशत्वाच्च मदनेन विमूर्छितम्
5009032c पद्मिनीनां प्रसुप्तानां रूपमासीद्यथैव हि
5009033a एवं सर्वमशेषेण रावणान्तःपुरं कपिः
5009033c ददर्श सुमहातेजा न ददर्श च जानकीम्
5009034a निरीक्षमाणश्च ततस्ताः स्त्रियः स महाकपिः
5009034c जगाम महतीं चिन्तां धर्मसाध्वसशङ्कितः
5009035a परदारावरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम्
5009035c इदं खलु ममात्यर्थं धर्मलोपं करिष्यति
5009036a न हि मे परदाराणां दृष्टिर्विषयवर्तिनी
5009036c अयं चात्र मया दृष्टः परदारपरिग्रहः
5009037a तस्य प्रादुरभूच्चिन्तापुनरन्या मनस्विनः
5009037c निश्चितैकान्तचित्तस्य कार्यनिश्चयदर्शिनी
5009038a कामं दृष्ट्वा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः
5009038c न तु मे मनसः किंचिद्वैकृत्यमुपपद्यते
5009039a मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तते
5009039c शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम्
5009040a नान्यत्र हि मया शक्या वैदेही परिमार्गितुम्
5009040c स्त्रियो हि स्त्रीषु दृश्यन्ते सदा संपरिमार्गणे
5009041a यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते
5009041c न शक्यं प्रमदा नष्टा मृगीषु परिमार्गितुम्
5009042a तदिदं मार्गितं तावच्छुद्धेन मनसा मया
5009042c रावणान्तःपुरं सरं दृश्यते न च जानकी
5009043a देवगन्धर्वकन्याश्च नागकन्याश्च वीर्यवान्
5009043c अवेक्षमाणो हनुमान्नैवापश्यत जानकीम्
5009044a तामपश्यन्कपिस्तत्र पश्यंश्चान्या वरस्त्रियः
5009044c अपक्रम्य तदा वीरः प्रध्यातुमुपचक्रमे
…
11.48
सोलहवाँ पुष्प
हनुमान जी रावण के भवन पहुँचे। आधे और एक योजन की माप वाले आयत में वह भवन बना हुआ था जिसमें कई प्रासाद थे – अर्धयोजनविस्तीर्णमायतं योजनं हि तत् बहुप्रासादसंकुलम्।
प्रहरियों द्वारा रक्षित रावण का प्रासाद चार, तीन और दो दाँतों वाले हाथियों से भरा हुआ था किंतु इतना विशाल था कि उनके कारण असम्बाधम् स्थान की तनिक भी न्यूनता नहीं थी – चतुर्विषाणैर्द्विरदैस्त्रिविषाणैस्तथैव च।
उस भवन में राक्षसियाँ, राक्षस पत्नियाँ और अपहृत कर लायी गयी राजकन्यायें ऐसे भरी थीं जैसे समुद्र में मकर, बड़ी मछलियाँ, छोटी मछलियाँ और तिमिंगल (शार्क) वायु प्रवाह के साथ लहराते हुये साँपों के साथ विचरण कर रहे हों:
राक्षसीभिश्च पत्नीभी रावणस्य निवेशनम्
आहृताभिश्च विक्रम्य राजकन्याभिरावृतम्
तन्नक्रमकराकीर्णं तिमिंगिलझषाकुलम्
वायुवेगसमाधूतं पन्नगैरिव सागरम्शयन
समुद्र से घिरी लंकापुरी के भीतर की स्थिति के लिये वाल्मीकि जी वायुप्रवाह के साथ फेनिल समुद्र जल में विचरते विविध जीवधारियों की उपमा उपयुक्त ही देते हैं। जिन्होंने समुद्र में गोता लगा ऐसे दृश्य देखे हों, वे इस उपमा का सौंदर्य सहज ही समझ जायेंगे कि कैसे विभिन्न रूप रंग, कुल, स्वभाव की स्त्रियाँ रावण के अंत:पुर समुद्र में एक साथ निवास कर रही थीं।
वाल्मीकि जी रावण के वैभव की तुलना इंद्र, कुबेर, यम और वरुण के वैभव से करते हैं। तुलना में प्रयुक्त देवता रामायण की प्राचीनता के प्रमाण हैं।
पुष्पक विमान मेरु मंदर के समान आकाश का स्पर्श करता दिखा। उसकी आभा कैसी थी, जैसे अग्नि और सूर्य सम्मिलित हो गये हों! ज्वलन अर्क प्रतीकाशम्।
नथुनों में पेय और भक्ष्य अन्न पदार्थादि की दिव्य गंध के झोंके प्रविष्ट हुये जैसे कि स्वयं अनिल देव ने गंध रूप धर लिया हो। मधुर महा सत्त्वयुक्त गंध युक्त देव पुकार कर बता रहे थे – यहाँ आओ, यहाँ आओ! रावण यहाँ है। हनुमान को लगा जैसे कोई बंधु अपने बहुत ही प्रिय बंधु से कह रहा हो!
तत्रस्थः स तदा गन्धम् पान भक्ष्य अन्न सम्भवम्
दिव्यम् सम्मूर्चितम् जिघ्रन् रूपवन्तम् इव अनिलम्
स गन्धः तम् महा सत्त्वम् बन्धुर् बन्धुम् इव उत्तमम्
इत एहि इति उवाच इव तत्र यत्र स रावणः
‘पवन’पुत्र हनुमान ठिठक गये, अपने की बात थी।
(क्रमश:)
अगले अंक में :
जैसे साँझ के समय आकाश की लाली हो, मेघ घिरे हों और बिजली चमक रही हो!
लोहितेन अनुलिप्त अङ्गम् चंदनेन सुगंधिना
संध्या रक्तम् इव आकाशे तोयदम् सतडिद् गुणम्
सोलहवाँ पुष्प पा लिया, अब सतरहवे की आतुर प्रतीक्षा!