आगे बढ़ते हनुमान जी को पानभूमि में क्लांत स्त्रियाँ दिखीं, कोई नृत्य से, कोई क्रीड़ा से, कोई गायन से ही क्लांत दिख रही थी। मद्यपान के प्रभाव में मुरज, मृदङ्ग आदि वाद्य यंत्रों का आश्रय ले चोली कसे पड़ी हुई थीं – चेलिकासु च संस्थिता:।
रूप कैसे सँवारा जाय, गायन के पहले गीत अर्थ विमर्श, देश काल के अनुसार बोल कैसे हों, वानरयूथ को प्रतीत हुआ कि वे स्त्रियाँ इन पर भी बातचीत में लगी रहती होंगी – रूपसंलापशीलेन युक्तगीतार्थभाषिणा देशकालाभियुक्तेन युक्तवाक्याभिधायिना।
उस पानशाला में मृग, भैंसा, वराह के भाँति भाँति प्रकार के मांस रखे हुये थे। स्वर्ण पात्रों में मोर एवं मुर्गों के अधखाये मांस टुकड़े पड़े थे। दही एवं सौवर्चल लवण से परिरक्षित सूअर, बकरे, साही एवं मोर के मांस भी वहाँ पड़े हुये थे।
विविध प्रकार से पकाया तीतर मांस एवं अधखाये चकोर भी दिखे। भैंसा, एक काँटे वाली मछली, छाग के भली भाँति प्रकार से पकाये मांस अवलेह, लवण, अम्लादि षड्स्वादी विविध खाद्यों एवं पेय के साथ कुशलता पूर्वक पृथक पृथक रखे हुये दिखे – मांसै: कुशलसंयुक्तै पानभूमिगतै: पृथक्।
ददर्श कपिशार्दूल मयूरान्कुक्कुटांस्तथा। वराहवार्ध्राणसकान्दधिसौवर्चलायुतान्॥
शल्यान्मृगमयूरांश्च हनूमानन्ववैक्षत। कृकरान्विविधान्सिद्धांश्चकोरानर्धभक्षितान्॥
महिषानेकशल्यांश्च छागांश्च कृतनिष्ठितान्। लेख्यमुच्चावचं पेयं भोज्यानि विविधानि च॥
तथाम्ललवणोत्तंसैर्विविधै रागषाडवैः –
मद्य में दिव्या (वारुणी जाति), प्रसन्ना (निष्कल्मषा), सुरा एवं कृत्रिम रूप से बनाई गयी सुरा तथा आसवों में शक्कर, मधु, पुष्प एवं फलों से बनाये पदार्थ भी वहाँ उपलब्ध थे। वहाँ सुगंधित चूर्ण अर्थात मसालों से प्रसंस्कृत पेय भी थे।
दिव्याः प्रसन्ना विविधाः सुराः कृतसुरा अपि। शर्करासवमाध्वीकाः पुष्पासवफलासवाः॥
वासचूर्णैश्च विविधैर्मृष्टास्तैस्तैः पृथक्पृथक्
जाम्बूनद, मणिमय स्फटिक एवं चाँदी के बने हुये कुम्भ पात्रों में वे पेय रखे हुये थे। कुछ टूटे हुये पात्र भी बिखरे पड़े थे। चंदन, मधु, माला, पुष्प एवं विविध खाद्य, धूप तथा पेय पदार्थों के गंध मिश्रित हो मरुत के साथ प्रवाहमान थे।
चन्दनस्य च शीतस्य शीधोर्मधुरसस्य च। विविधस्य च माल्यस्य पुष्पस्य विविधस्य च॥
बहुधा मारुतस्तत्र गन्धं विविधमुद्वहन्। स्नानानां चन्दनानां च धूपानां चैव मूर्छितः॥
ऐसे तामस वातावरण में मारुति को श्यामा, कृष्णा, सुवर्णवर्णी, हर प्रकार की स्त्रियाँ कालक्रीड़ा पश्चात मूर्च्छित सी ऐसे सोती दिखीं जैसे कमल पुष्प क्लांत पड़े हों!
श्यामावदातास्तत्रान्याः काश्चित्कृष्णा वराङ्गनाः। काश्चित्काञ्चनवर्णाङ्ग्यः प्रमदा राक्षसालये॥
तासां निद्रावशत्वाच्च मदनेन विमूर्छितम्। पद्मिनीनां प्रसुप्तानां रूपमासीद्यथैव हि॥
इतना सब देखते हुये विद्वान मारुति के भीतर सतोगुणी चेतना का सञ्चार हुआ। परस्त्रियों का उनकी शयनावस्था में निरीक्षण को लेकर हनुमान जी के मन में महान चिंता व्याप्त हो गई, मेरा यह कर्म अवश्य मेरे धर्म का लोप कर देगा!
शत्रु के पुर में थे, उसके शयनगृह में थे, पकड़े जाने का संकट था। ऐसे में धर्मभङ्ग भाव आत्मघाती हो सकता था।
धीरता की परीक्षा इन्हीं परिस्थितियों में होती है। मनस्वी मारुति के चित्त ने अपना मार्ग तत्काल ढूँढ़ लिया – मैंने पराई स्त्रियों को विषय दृष्टि से नहीं देखा, न हि मे परदाराणां दृष्टिर्विषयवर्तिनी!
मन उद्देश्य के प्रति निश्चित था, केंद्रित था कि सीताजी को ढूँढ़ निकालना है – निश्चित एक अन्त चित्तस्य कार्य निश्चय दर्शिनी। मेरे मन में किञ्चित भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ – न तु मे मनसः किंचिद् वैकृत्यम् उपपद्यते।
शुभ हो या अशुभ, हर परिस्थिति में मन ही समस्त इंद्रियों को संचालित करता है। मेरा मन सुव्यवस्थित है। वैदेही को मैं अन्यत्र कहाँ ढूँढ़ सकता था? स्त्री को स्त्रियों के बीच ही तो ढूँढ़ा जायेगा। जिस जाति का जीव हो, उसी में ढूँढ़ा जाता है। स्त्री को मृगियों के बीच तो ढूँढ़ पाना सम्भव नहीं! (मैंने वही किया जो करणीय था)
मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तते। शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम्॥
नान्यत्र हि मया शक्या वैदेही परिमार्गितुम्। स्त्रियो हि स्त्रीषु दृश्यन्ते सदा संपरिमार्गणे॥
यस्य सत्त्वस्य या योनिस्तस्यां तत्परिमार्ग्यते। न शक्यं प्रमदा नष्टा मृगीषु परिमार्गितुम्॥
शुद्ध मन से मैंने जानकी को रावण के अंत:पुर में भी ढूँढ़ लिया, नहीं मिलीं।
तदिदं मार्गितं तावच्छुद्धेन मनसा मया। रावणान्तःपुरं सरं दृश्यते न च जानकी॥
मन को अपने इस प्रबोध से सांत्वना मिली। जानकी ने न मिलने की निराशा सांत्वना का आश्रय ले सिर उठाये, इससे पहले ही हनुमान जी वहाँ अन्यत्र ढूँढ़ ढाँढ़ कर रावण के अंत:पुर से बाहर आ गये। लतागृह देख लिये, चित्रगृह देख लिये एवं अन्य निशा गृह भी, जानकी के शुभ दर्शन नहीं हुये तो नहीं हुये।
धर्मभङ्ग की आशंका से उबरे ही थे कि अनिष्ट आशंका ने घेर लिया। हनुमान जी सोचने लगे – श्रेष्ठ मार्ग पर चलने वाली पतिव्रता सीता को रावण ने निश्चित ही मार दिया होगा, हता भवेद् आर्य पथे परे स्थिता! या विरूपा, विकृत, मलिन, भयावह आँखों वाली राक्षसियों को देख जानकी मारे भय के मर गई होंगी – भयाद्विनष्टा जनकेश्वर आत्मजा!
हनुमान अपने विराट उद्योग की विफलता एवं उसकी परिणति की सोच अवसाद-समुद्र में डूबते चले गये –
न सीता दृश्यते साध्वी वृथा जातो मम श्रमः।
(क्रमश:)
अगले अङ्क में:
मेरी असफलता के कारण सभी वानर अग्निप्रवेश कर लेंगे – ध्रुवम् प्रायम् उपेष्यन्ति कालस्य व्यतिवर्तने।
असफल मैं वृद्ध जाम्बवान एवं कुमार अङ्गद को क्या उत्तर दूँगा – किं वा वक्ष्यति वृद्धश्च जाम्बवानङ्गदश्च सः?