एकाष्टका देवी
अनुवाद: गिरिजेश राव
चेतना के स्तर अनुसार वेदों के मंत्र अपने कई अर्थ खोलते हैं। कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि किसी श्रुति के छ: तक अर्थ भी किये जा सकते हैं – सोम चन्द्र भी है, वनस्पति भी है, सहस्रार से झरता प्रवाह भी। वेदों के कुछ मंत्र अतीव साहित्यिकता लिये हुये हैं। इस शृंखला में हम कुछ मंत्रों के भावानुवाद प्रस्तुत करेंगे।
संहिताओं और अन्य वैदिक साहित्य में ‘अष्टकों या अष्टकाओं’ की अवधारणा मिलती है। अथर्वण संहिता (शौ.शा., 15.16) में स्पष्टत: अष्टका पूर्णिमा के पश्चात आठवीं रात है। पञ्चविश ब्राह्मण में हर महीने की ऐसी रातों को लेकर 12 अष्टकाओं का वर्णन है:
एतावद्वाव संवत्सर इन्द्रियं वीर्यं यदेता रात्रयो द्वादश पूऋनमास्यो द्वादशैकष्टका द्वादशामावास्या यावदेव संवत्सर इन्द्रियं वीर्यं तदेतेनाप्त्वावरुन्धे द्वादशाहेन (10.3.11)
तैत्तिरीय संहिता और पञ्चविश ब्राह्मण में भी वर्ष की इस [अंतिम(?), नववर्ष आरम्भ] अष्टका के लिये ‘एकाष्टका’ संज्ञा देते हुये उसे संवत्सर की पत्नी बताया गया है जिसके साथ वह (यह सुहाग की) आरम्भ रात व्यतीत करता है:
एषा वै संव्वत्सरस्य पत्नी यदेकाष्टकैतस्यां वा गतां रात्रिं वसति साक्षादेव तत् संव्वत्सरमारभ्य दीक्षन्ते। (5.9.2)
तैत्तिरीय संहिता (5.7.2.2-3) में एकाष्टका को भूमि तुल्य बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण एकाष्टका को स्वयं प्रजापति के लिये भी पवित्र बताता है:
अष्टकायामुखां सम्भरति । प्राजापत्यमेतदहर्यदष्टका प्राजापत्यमेतत्कर्म
यदुखा प्राजापत्य एव तदहन्प्राजापत्यं कर्म करोति।(6.2.2_23)
भाष्यकारों ने एकाष्टका को माघ मास की पूर्णिमा के पश्चात की आठवीं रात माना है (Vedic Index, II, p.157)। इस रात अर्द्धचंद्र अर्द्धरात्रि को ख मध्य के निकटवर्ती क्षेत्र में रहते हैं।
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अथर्ववेद का एक सुंदर सूक्त (शौ.शा., 3.10) एकाष्टका देवी को समर्पित है जिसमें मानवीकरण के चरम का स्पर्श कर लिया गया है। तेरह ऋचाओं में से चुनी हुई दस का भावानुवाद प्रस्तुत है। वर्णन इतना समृद्ध है कि कई भाष्यकारों ने एकाष्टका को प्रकृति मान लिया है।
नववर्ष है, हर्ष है। उषाकाल से ही मोद में डूबा कवि कभी एकाष्टका से प्रार्थना करता है, कभी मंगल मनाता है, कभी संवत्सर पिया के आगमन के उल्लास में स्वयं को समोता एकाष्टका से सम्बोधित होता है कि देख कौन आया है! आज तू सुखी सुहागन है!
नववर्ष के आगमन पर वह क्षात्रधर्म को नहीं भूलता और एकाष्टका को इंद्र-जननी बताते हुये अन्य कामनाओं में शत्रु के विनाश की कामना भी जोड़ देता है।
पहली उषा प्रकट हुई, धेनु जैसी उदित यमी।
आगत से आगत में भी, वह पयस्वती रहे समी॥
देव समस्त आनंदित हैं, देख रात धेनु जैसी।
संवत्सर पत्नी वह है, जो हम सबकी सुमंगली॥
संवत्सर प्रतिमा मान सब, हे रात! करें हम उपासना।
दीर्घायु वाली प्रजा हेतु, हो पुष्टिकर समृद्धि कामना॥
वह यही जो पहले प्रकटी, इतरों में प्रविष्ट हुयी।
महांता महिमाना नववधू जननी नव सृजनमयी॥
कर रहे घोष वनस्पतियों के सम्बंधी-
पत्थर, परिवत्सर की हवि बनाने को।
एकाष्टके! कर अर्पण हों हम सुप्रजा,
हों सुवीर धन सम्पत्ति स्वामी होने को॥
एकाष्टके! आया संवत्सर पति हो तेरा।
आयुष्मति प्रजा हेतु सम्पदा का हो घेरा॥
मास ऋतु ऋतुपतियों के साथ,
अयनवर्ष सम और संवत्सर को अर्पण।
ऋतुसम्बंधियों को अर्पण मेरा,
भूतों के स्वामी हेतु यजन और समर्पण॥
वर्ष महीने ऋतु साथ सभी,
धाता विधाता समृद्धि को अर्पण।
सबका हो कल्याण सभी,
स्वामी हेतु यजन और समर्पण॥
तापसी तप्यमाना एकाष्टका,
महिमान इंद्र को जन्म दिया।
देवशत्रु दस्यु सब जीते जिसने
शचीपति वह प्रकट हुआ॥
इंद्र और सोम की जननी हे!
प्रजापति की पुत्री तू।
हवि को हमसे ग्रहण करो,
कर कामनायें पूरी तू॥
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(संदर्भों हेतु पुस्तक Goddesses in Ancient India, Prithvi Kumar Agrawala, पृ. 108 बहुत सहायक सिद्ध हुई।आभार)