07 अगस्त 2016 का दिन था, जो जीवनपर्यन्त अविस्मृत रहेगा। पिताजी को सुबह हृदयाघात हुआ था। मैं दिल्ली में और भैया चेन्नई थे। पिताजी की जीवन रक्षा हेतु हम दोनों आतुर एवं व्यग्र थे किन्तु भैया की अधीरता नहीं भूलती, पिताजी संध्या काल प्रयाण कर गए। अगले दिन जब भैया गाँव पहुंचे तो उन्होंने मुझे अङ्क में छिपा लिया, अपने सारे अश्रु पी गए।
माताजी ने जब गोलोक के लिए प्रयाण किया तब हम दोनों चिकित्सालय में साथ थे। लगभग एक मास तक हम दोनों मां को अचेतावस्था में साथ लिए रहे। भैया प्राय: मुझसे छिप कर रोया भी करते थे।
भैया ने मुझे इन झाञ्झावातों में अपने स्नेह रूपी वटवृक्ष तले बचाए रखा। उनका मुझ पर स्नेह ऐसा था जैसे कि वर्षा होने पर चिड़िया अपने बच्चों को पङ्खों तले छिपा लेती है।
उनका स्नेहिल स्वभाव और परिवार के हरेक सदस्य की कुशलक्षेम हेतु सदैव सन्नद्ध रहना अद्वितीय था। विवाह के सत्रह वर्ष पश्चात हमारे माता-पिता ने न जाने कितने पूजा-पाठ और जप-तप किए, तब भैया का जन्म हुआ था। पिताजी ने उन्हें दो सञ्ज्ञाएं प्रदान की थीं – “देवपुत्र” और “ज्ञानवृद्ध”। जो निश्चय ही सत्य थीं। उनका सहोदर भ्राता होना मेरे लिए अभिमान की बात है। मेरे प्रति उनका प्रेम और अनुराग लोगों के लिए कौतूहल और ईर्ष्या का विषय थे। जब हम दोनों गाँव में साथ-साथ निकलते थे तो न जाने कितनी बार सुनने को मिलता- “निकल गई राम लक्ष्मण की जोड़ी”!
हा विधाता!
किसकी कुदृष्टि लग गई इस जोड़ी को…।
मुझ पर इस प्रकार का विश्वास रखते थे कि गङ्गेश को सौंपा गया कार्य अवश्य ही पूरा होगा। मेरे भैया मेरे लिए श्रीराम के सदृश थे और मेरे हृदय में सदैव यही भाव रहा कि “राम काज कीजे बिनु मोहि कहां विश्राम”!
कलियुग में ऐसे कम ही भाई होंगे जो मुझ सदृश प्रौढ़ अनुज को अङ्कवार में लेते होंगे।
(भैया की) अंत्येष्टि पश्चात जब राम की पौढ़ी, सरयू तीरे अयोध्या में अस्थि विसर्जन करते हुए ऐसा प्रतीत हुआ कि मुझे किसी अदृश्य शक्ति ने अपनी ओर खींचा हो… मैं आकण्ठ सरयू में था, ब्राह्मण देवता ने मुझे बाहर निकाला।
संभवतः उन्होंने जाते जाते भी अङ्कवार में लिया था मुझे…।
(लिखना बहुत कुछ था, है और रहेगा भी , किंतु अभी मनोदशा इतना ही लिखने भर की है)
उड़ जायेगा
हंस अकेला…
जग दर्शन का मेला…
– अनुज, गङ्गेश राव
Respect 🙏🙏🙏🙏🙏