ललित व्यंग्य
[साहित्य सदैव शास्त्रों का अनुगामी नहीं होता। इस आलेख में उद्धृत प्रसंग गाँवों की चौपालों पर, संध्याकाल अवकाश के क्षणों में, गल्पाकाश को नापने वाले सर्वज्ञ गरुड़ों की अबाध उड़ानों से लिये गये हैं अतः इनका शास्त्रीय आधार अन्वेषित करने का प्रयास रसभंग ही उपस्थित करेगा। निहितार्थों की अभिव्यक्ति हेतु लेखकीय स्वतंत्रता का यथेच्छ दुरुपयोग किया गया है, तब भी रचना का उद्देश्य किसी की आस्था या धारणा को ठेस पहुंचाने का नहीं है। निवेदन है कि स्वयं को प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त संकेतों तथा रस तक सीमित रखें, ज्ञान तो यत्र-तत्र-सर्वत्र उपलब्ध ही है।- लिपिक]
नमुचि मारा गया।
कथा अत्यधिक पुरानी है, अनेकों बार की कही हुई, असंख्यों द्वारा सुनी हुई। अतः कथावस्तु में कोई नव्यता नहीं है किन्तु जब कथा अनेकों बार कही जा चुकी और असंख्यों द्वारा सुनी जा चुकी तो एक बार पुनः कह-सुन लेने में कोई हानि भी नहीं है।
हाँ! तो नमुचि मारा गया।
कैसे?
यह विश्व विचित्रताओं से भरा है। यहाँ वह सब होता और हो सकता है जो असम्भव एवं अविश्वसनीय है। मनुष्य स्वयं ही स्वयं में एक असम्भव सत्ता है जो सम्भव हो कर अस्तित्व में है।
विप्रचित्ति दैत्य का पुत्र नमुचि! जाने क्या सोच कर माता – पिता ने नाम दिया नमुचि। न मुचि, मुक्ति नहीं जिसकी। पिता विप्र-चित्ति – विप्र चित्त वाला, और पुत्र नमुचि! नमुचि उस समय का दैत्येंद्र था, दैत्यों का अधिपति।
दैत्यों एवं आदित्यों का संघर्ष कुछ नवीन नहीं। ऐसे ही एक संघर्ष में नमुचि पराजित हो सुदूर दक्षिण को पलायित हो गया था। इंद्र से भयभीत, प्राण-भय से त्रस्त!
अपने पति को त्रस्त, क्लांत, खिन्न देख नमुचि की पत्नी ने उसे देवेन्द्र से संधि कर लेने का सुझाव दिया किन्तु नमुचि के लिये यह सम्भव नहीं था। नेता मात्र नेता नहीं होता, वह अपने अनुयायियों की आशाओं का प्रतीक भी होता है, प्रकारांतर से अपने अनुयायियों की आशाओं का अनुचर। और नमुचि के अनुयायी संधि के पक्ष में नहीं थे। साथ ही पराजित तथा पलायित राजा से विजेता राजा संधि क्यों करेगा? यह सोच कर नमुचि संधि-प्रस्ताव भेजने में असहजता अनुभव कर रहा था।
दैत्यों को अवसर की खोज थी, प्रतीक्षा थी। देव विजित हो कर उल्लसित थे, मोदमग्न थे, असावधान थे। नमुचि के चरों ने सूचना दी – ‘देव असावधान हैं। इंद्र सोमपान तथा अप्सरियों के नृत्य में व्यस्त है। नमुचि ने आक्रमण किया और इस बार देव पराजित हुए।
संधि पराजितों की नीति है। कल तक दैत्य सन्धि चाहते थे, अब देवों को सन्धि चाहिये थी। देवों ने संधि का प्रस्ताव किया और नमुचि ने स्वीकार कर लिया क्योंकि वह देवेन्द्र से, देवाधिपति इंद्र से लड़ते-लड़ते थक चुका था।
संधि के नियमों में दो प्रमुख थे।
प्रथम, इंद्र तथा नमुचि परस्पर एक दूसरे पर न तो दिन में प्रहार करेंगे, न रात्रि में। संधि का यह नियम सुन इंद्र मन ही मन हँसे। देवता जानते थे, इस नियम में छिद्र है।
दूसरा नियम विचित्र था। उसके अनुसार परस्पर प्रहार हेतु जो आयुध प्रयुक्त हो वह न तो गीला हो और न ही सूखा हो। देवता समझ ही नहीं सके कि इस नियम का अर्थ क्या है, औचित्य क्या है? किन्तु नियम विजेता की ओर से प्रस्तुत था, मान्य करना पड़ा।
संधि के उपरान्त शान्ति का वातावरण बना। अशांति, भय, आशंका तथा नित्य के रक्तपात से त्रस्त धरित्री ने उन्मुक्त श्वास ली। ऋषियों के यज्ञ प्रारम्भ हुये, मंत्रोच्चार के स्वर से दिशायें हर्षित हुईं, यज्ञाग्नि में समर्पित हवियों की सुगंध से पवन भर उठा। देवों तथा दैत्यों का चिरकालिक वैर अब समाप्त हो चुका था।
किन्तु यह सब कृत्रिम था। जो वैर प्रकृत्या एवं प्रवृत्या हो, वह समाप्त नहीं हो सकता। कोई संधि, कोई अनुबंध मन के भीतर पलते वैर को नहीं मिटा सकते। देवों के जो उल्लास-व्यंजक कृत्य थे, दैत्यों को उससे वितृष्णा थी। देवता पूरे आडम्बर के साथ उच्च स्वर में मंत्रोच्चार, घंटनाद या शंखनाद करते और दैत्य सुन कर कुढ़ते। किन्तु क्षुब्ध दैत्य विवश थे। यद्यपि प्रवृत्ति तथा प्रकृति से हिंसक दैत्य इस परिस्थिति से अत्यंत दुखी थे किन्तु संधि के नियम उनके थे, अतः पालन का दायित्व भी प्रथम उन्हीं का था।
और हिंसा के अवसरों की समाप्ति ने दैत्यों को निरुद्देश्य तथा अकर्मण्य सा बना दिया था। वे कार्यहीन हो गये थे। हिंसामुक्त समाज उन्हें खटकता था। दैत्यों के दल के दल अपने प्रतिनिधियों के साथ नमुचि के पास जा कर संधि में छिद्र खोजने का आग्रह करते थे। किन्तु नमुचि उन्हें इस प्रकरण में कोई आश्वासन देने में असमर्थ था। नमुचि जैसा भी था, मूर्ख नहीं था। और हिंसा में रुचि होते हुये भी हिंसा की सार्वजनिक संस्तुति, या प्रशंसा, या अभ्यर्थना नहीं की जा सकती। बुद्धिमान राजपुरुष हिंसा को भी अहिंसा तथा शान्ति की शब्दावली में अभिव्यक्त करता है। बुद्धिमान राजपुरुष जीवन लेते समय भी जीवन देने का स्वांग नहीं छोड़ता। वह जानता है कि हिंसा की लतिका अहिंसा तथा शान्ति के आश्रय से ही वर्धमान होती है। हिंसा वह स्त्री है जो सिद्धांतों के प्रच्छद ओढ़ कर चतुष्पथ पार करती है। नमुचि भी राजपुरुष था। वह हिंसा की स्पष्ट अनुमति नहीं दे सकता था। और दैत्य अस्पष्ट संकेतों को समझने योग्य बुद्धिमान थे अतः वे संधि के नियमों में छिद्र खोजने में व्यस्त हो गये। वे जानते थे कि नेता को एक दिन अनुयाइयों के मनोनुकूल कृत्य में संलग्न होना ही होगा!
पराजित की तात्कालिक नीति के कारण संधि भले करनी पड़ी थी, देव भी संधि के नियमों में छिद्र-अन्वेषण में संलग्न थे। नीति यही कहती है कि संधियाँ तात्कालिक होती हैं तथा उनका कोई दीर्घकालिक महत्व नहीं होता है। सहस्राक्ष इंद्र के सहस्र चर नित्य उन्हें दैत्यों की उद्विग्नता की सूचनायें उपलब्ध कराते, बहुधा अतिरंजित भी।
दोनों पक्ष घात के अवसर खोज रहे थे किन्तु देवता अधिक चतुर थे।
दिवस तथा रात्रि का प्रश्न इतना दुरूह न था क्योंकि दोनों का संधिकाल एक बार नियम-भंग हेतु प्रयुक्त हो चुका था। संधि के नियमों में इस संधिकाल का उल्लेख नहीं था। अतः निश्चित हुआ कि गोधूलि वेला का समय नमुचि पर प्रहार हेतु सर्वाधिक उपयुक्त है। सूर्य डूब चुका होगा अतः दिन नहीं रहा। और रात्रि अभी आयी नहीं, तो रात्रि भी नहीं! प्रथम नियम में छिद्र खोजा जा चुका था। किन्तु दूसरा नियम कठिन था। देव उसमें छिद्र खोजने में संलग्न थे। एक ही प्रश्न! वह शस्त्र कहाँ से मिले जो न सूखा हो, न गीला? प्रत्येक वस्तु दो में एक थी – या तो सूखी, या गीली! और इस सूखे-गीले के द्वंद्व से कुछ नहीं बचता था।
दैत्यों को भी पता चला, देवेन्द्र कोई ऐसी वस्तु खोज रहा है जो न सूखी हो न गीली। वे हँसते – देवता मूर्ख हैं! वे प्रकृति के विरुद्ध सोच रहे हैं। गीला और सूखा से भिन्न कुछ नहीं हो सकता। दिन और रात से भिन्न कुछ नहीं हो सकता। संधि के अनुबन्धों के अनुसार अब नमुचि पर प्रहार सम्भव नहीं है। नमुचि अब अवध्य है। नमुचि अब अमर है।
देवताओं को देख कर वे उनका उपहास करते,“अरे भाई! कुछ सम्भव की खोज करो! असम्भव की खोज से क्या लाभ?” देवों को दैत्यों का उपहास सालता था। वे देवेन्द्र की बुद्धि पर अविश्वास प्रकट करते थे। उन्हें लगता था कि देवेन्द्र का निर्णय शीघ्रता का था, जिसमें सूक्ष्मता का अभाव था। किन्तु इंद्र ने कहा,“प्रकृति के विरुद्ध आविष्कार ही वास्तविक आविष्कार है। प्रयास करो! करते रहो!”
दुष्प्रवृत्तियाँ निष्क्रिय भी नहीं रहना चाहतीं। दैत्यों को शान्ति सहन नहीं हो रही थी अतः उन्होंने अभिनय का आश्रय लिया। उन्होंने ऋषियों से संपर्क किया,“हम भी इस तामस देह से, तामस वृत्ति से मुक्त होना चाहते हैं। हम भी मन, कर्म तथा वाणी से पवित्र होना चाहते हैं। हे समत्व बुद्धि वाले ऋषिगण! हमारा उद्धार करें! हमारे मुक्ति के मार्ग का निर्देश करें! हे ‘साम्यवादी’ विचारधारा वाले ऋषियों! हम आप की शरण हैं।”
समस्त भूतों के प्रति मैत्री, करुणा, मुदिता एवं अद्वेष ही प्रथम ऋषि-गुण है। क्षमाशील ऋषियों को दैत्यों के प्रति करुणा हुई। उन्होंने उपाय सोचा- सरस्वती ही समस्त कल्मषों की प्रक्षालिका है। सरस्वती भौतिक सत्ता में नदी रूप हो या अभौतिक सत्ता में ज्ञान की देवी स्वरुप हो, उसकी निरुज-विमल वारिधारा में अवगाहन से समस्त पाप एवं अवदमन नष्ट हो जाते हैं। सरस्वती ही तुम्हारी मुक्ति का साधन हो!
नदी सरस्वती ने विरोध किया,“यह कैसे सम्भव है? दैत्यों की अपवित्रता का आधिक्य तो मुझे भी अपवित्र कर देगा! और वह भी एक नहीं, अनेक दैत्य? ऋषि-समुदाय सुने! मैं उन्हें अपना जल दूषित नहीं करने दूँगी! वे घृणित हैं! मैं आप सभी का आदर करती हूँ अतः आपका प्रत्येक आदेश शिरोधार्य है किन्तु यह आदेश मेरे अस्तित्व को ही नष्ट कर देगा अतः इसका अनुपालन सम्भव नहीं है। ये दैत्य जल-प्रदूषण उत्पन्न करना चाहते हैं जिसे आप लोग समझ नहीं पा रहे।”
सरस्वती के इस कथन से ऋषियों को दुःख हुआ। उन्होंने समझाया,“देवि! तुम मल-प्रक्षालिका हो! ब्रह्म-पाद से प्रारम्भ हो कर पुनः उसी में समाहित होने वाली देवी! मल-प्रक्षालन तुम्हारा सनातन कर्तव्य है। ब्रह्म ही समस्त सृष्टि का बीज भी है और योनि भी। वह ब्रह्म स्वयं अपनी ही योनि में स्वयं ही बीज रूप में प्रविष्ट होता है, गर्भ धारण करता है, प्रसव करता है। अतः इस सृष्टि में कुछ भी ब्रह्म से भिन्न नहीं। देव, दैत्य, दानव, मनुष्य, सभी उसी ब्रह्म से उद्भूत हैं अतः तुम्हें भेद दृष्टि से रहित हो कर अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये। तुम सेवा करो देवि! सेवा-कर्म से प्राप्त मृत्यु भी अमरत्व है। सेवा ही तुम्हारा धर्म है। इस विराट में तुम्हारे अस्तित्व की उपयोगिता ही यही है। और तुम चाह कर भी इससे विरत नहीं हो सकती क्योंकि दैत्य तुम्हारे न चाहने पर भी तुम्हारी इस निर्मल धारा का उपयोग करेंगे ही। तुम जड़ रूप में भी अतिचेतन हो! और जड़ता तथा अतिचेतना दोनों स्वार्थ-रहित होते हैं।”
नदी सरस्वती ने देखा कि ऋषि उसकी प्रार्थना स्वीकार करने वाले नहीं हैं। उसने तर्क बंद कर दिया तथा उपाय सोचा। उसने अपनी एक धारा को अरुणा के रूप में आगे कर दिया। नदी सरस्वती विभाजित हो चुकी थी।
अरुणा की धारा देखते ही दैत्यों में हलचल मच गई। उस सुन्दर, शीतल, सुस्वादु एवं सुगन्धित जलधारा को देख कर वे सभी एक साथ उसमें कूद पड़े। किन्तु कोई शुद्ध न हो सका। उनके देह से निकले अताधिक मल से स्वयं अरुणा ही कालिमा तथा कर्दमा प्रतीत होने लगी।
सरस्वती ने दूसरी नदी को प्रेरित किया, पुन: तीसरी को, पुन: चौथी को, पाँचवीं को। किन्तु सभी दैत्यों के अवगाहन से अपवित्र-अपावन होती गईं। हिरण्यवती दूषित हुई, दृषद्वती दूषित हुई। वितस्ता, अस्किनी तथा परुष्णी दूषित हुईं। क्रुमु, कुभा तथा सुषोमा भी न बच सकीं। और दैत्यों को नया मार्ग भी दिख गया। वे प्रत्येक छोटी-बड़ी नदी को प्रदूषित करने लगे। उन्होंने हर नदी को मल से भर दिया। उनके मल से जलचर मरने लगे। मृत जलचरों के सड़ने से उठती दुर्गन्ध असह्य हो गई।
समस्त नदियाँ संक्रामक रोगों का आवास हो गईं। प्रदूषित जल का पान तथा उससे स्नान रोग उत्पन्न करने लगा। जल, जो ओषधि है, स्वयं रुग्ण हो चुका था। शुद्धि के समस्त मार्ग बंद हो चुके थे। जल में घुला व्यापक दोष पवन को भी दूषित करने लगा। चतुर्दिक त्राहि का वातावरण उत्पन्न हो गया।
अपार्थिव सरस्वती ने नदी सरस्वती के प्रतिरोध का परिणाम देख कर कोई विरोध ही नहीं किया। सरस्वती का अर्चन और अर्जन करने का आडम्बर कर के दैत्यों नें शास्त्रों को दूषित करना प्रारम्भ किया। पोथियों के महत्वपूर्ण पृष्ठ नष्ट कर दिये गये, परिवर्तित कर दिये गये। शब्दों के अर्थ, श्लोकों के भावार्थ, ज्ञान-विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली तथा प्रायोगिक विधियाँ परिवर्तित हो गईं। ऐतिहासिक सत्य के आख्यान विरूपित कर दिये गये, साक्ष्य नष्ट कर दिये गये। कपोल-कल्पित आख्यानों को इतिहास बना कर प्रस्तुत किया जाने लगा। ग्रंथों में जहां परिवर्तन सम्भव न हो सका वहाँ तात्पर्यों को प्रभावित करने योग्य क्षेपकों का समावेश कर दिया गया। मूल तात्पर्य की स्वेच्छ व्याख्या निर्मित कर दी गई। निरर्थक तर्कों से सत्य को आहत किया जाने लगा।
सरस्वती दूषित हो चुकी थी, ब्रह्म-पाद से उद्भूत नदी सरस्वती भी और ब्रह्मा की मानस-दुहिता शतरूपा वाग्देवी सरस्वती भी। जो जल समस्त ओषधियों का सार है वह स्वयं रुग्ण हो चुका था और जिस वाग्देवी की छत्रछाया में ज्ञान का प्रकाश विकिरित होता है वह भ्रम की कुहेलिका तथा अज्ञान के अन्धकार का हेतु बन चुकी थी। पाप, कल्मष तथा अवदमन से मुक्ति का कोई मार्ग अवशिष्ट नहीं रह गया था। चतुर्दिक एक विभीषिका थी, एक त्राहि थी, एक आर्तनाद था।
देव-सभा में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि इस परिस्थिति से त्राण का मात्र एक उपाय है – नमुचि का वध। नेता का पराभव ही उसके अनुयायियों का पराभव है। यदि नमुचि मारा गया तो उसके अनुयायी दैत्य स्वतः पलायन कर जायेंगे।
किन्तु इंद्र वचन-भंग के परिताप से बचना चाहते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा,“सब सत्य है, किन्तु नमुचि के वध हेतु शस्त्र-निर्माण हेतु वह पदार्थ खोजना आवश्यक है जो न गीला हो, न सूखा हो। मैं देव-जाति पर वचन-भंग का अभियोग स्वीकार नहीं कर सकता अतः यदि आप चाहते हैं कि नमुचि का वध हो, तो उस पदार्थ का अन्वेषण करें जो न गीला हो, न सूखा हो!”
सदन ने इंद्र की बुद्धि पर खेद प्रकट किया, किन्तु अन्य कोई मार्ग न था। सभी उस पदार्थ की खोज में प्राण-पण से संलग्न हो गये। सदन का निर्णय प्रजा तक भी पहुँचा। देवों के साथ नाग, यक्ष, गंधर्व, किन्नर का पञ्चजन एवं मनुष्य जाति की प्रजा भी अपने प्रकार से इस खोज में सन्नद्ध हुई।
प्रजा के अपने दैनंदिन कार्य होते हैं। उसे अपने उदर-पूर्ति से अवकाश नहीं। कोई भी सत्ता प्रजा को उसकी स्थालिका में अनायास भोजन नहीं परिवेशित करती। अपनी स्थालिका का भोजन सभी को स्वयं अर्जित करना होता है, तथा उस भोजन पर उसे कर भी प्रदान करना होता है। प्रजा को इतना अवकाश कहाँ कि वह उदर-पूर्ति के उपक्रम त्याग कर अन्वेषण में प्रवृत्त हो सके? किन्तु प्रजा के पास उसकी वाणी है और प्रजा के पास उसके विचार भी हैं। और यह वाणी तथा यह विचार उसे अपने अवकाश के समय बहुत प्रखर प्रतीत होती है। वाणी पर कोई अर्गला नहीं, विचारों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं। कम से कम देव-जाति में तो निश्चित ही नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तो सभ्य समाज की चिह्न होती है। प्रजा ने अपनी वाणी का मुक्त उपयोग तथा अपने विचारों का उन्मुक्त प्रदर्शन किया।
यह समाज एक अगाध सागर है और समाज की इकाई, समाज के व्यक्तियों के विचार उस अगाध सागर की लहरें। अपने अवकाश के क्षणों में प्रजा के विचारों की लहरें उठतीं, ऊँचे, बहुत ऊँचे, बहुत-बहुत ऊँचे। और पुन: गिर पड़तीं, नीचे, बहुत नीचे, बहुत-बहुत नीचे। इस प्रक्रिया में लहरें परस्पर टकरातीं, और इस टकराव से बडवाग्नि की ज्वाला छिटक उठती। विचारों का टकराव व्यक्तियों के टकराव में परिवर्तित हो जाता। सभी अपने-आप में अन्तिम सत्य थे। और सत्य कभी एक से अधिक नहीं रहा। सत्य यह था कि वे सभी विचार असत्य थे – अनुपयोगी, अकार्यकर, व्यर्थ। प्रजा का समस्त प्रयास बुद्धिजीविता के आवरण में मूर्खता का निदर्शन था, विद्वत्ता के आडम्बर में जड़ता का काल-यापन था।
उधर ऋषियों ने देखा – सत्ता अपनी ही उलझन में उलझी है तथा प्रजा अपनी विडम्बनाओं तथा वैचारिक मतभेदों में। सरस्वती को पुनः शुद्ध और पवित्र करने के प्रति सत्ता या जनता, किसी में कोई उत्सुकता नहीं, कोई रुचि नहीं। और ऋषियों को यह बोध था कि सरस्वती की अशुद्धता तथा अपवित्रता के मूल में वे स्वयं हैं। उन्होंने स्वयं कुछ सार्थक करने का निर्णय लिया। नैमिषारण्य में ऋषियों की सभा जुटी। सबने संकल्प लिया – सरस्वती की अशुद्धि के कारण हम हैं, हमारा अविचारित निर्णय है। अतः सरस्वती को पुनः शुद्ध एवं पूत-पवित्र करना हमारा दायित्व है। हम अपने दायित्व का पालन करेंगे। हम नदी को भी परिशुद्ध करेंगे, हम शास्त्रों को भी परिशुद्ध करेंगे!
संकल्प शासकीय स्तर का हो तो उसकी सिद्धि में संदेह हो सकता है, होता है, क्योंकि शासन के संकल्प सीढ़ियों से हो कर धरातल तक उतरते हैं; किन्तु यदि संकल्प जनता का हो तो उसकी सिद्धि में कोई बाधा अधिक दिनों तक टिकी नहीं रह सकती। नैमिषारण्य की सभा में लिया गया संकल्प भले शनैः-शनैः ही, कार्यरूप में ढलने लगा था। नदियाँ भी स्वच्छ होने लगी थीं और शास्त्र भी शुद्ध होने लगे थे। किन्तु मनुष्य जाति सहित पञ्चजन, समस्त प्रजा तथा समस्त ऋषि अपने समवेत प्रयासों के पश्चात भी वह पदार्थ नहीं खोज पा रहे थे जिससे नमुचि के वध हेतु शस्त्र निर्मित किया जा सके। वह पदार्थ जो गीले तथा सूखे के द्वंद्व से रहित हो, अब तक अनुपलब्ध था। और देव-संसद चिंतित थी।
चिंतातुर देवराज ने देवगुरु बृहस्पति का आश्रय लिया। देवगुरु ने आश्वासन दिया,“समस्त पञ्चजन के बुद्धिजीवी प्रयास कर रहे हैं। जनता भी अपने स्तर से प्रयत्नशील है। कोई न कोई मार्ग अवश्य निकलेगा देवराज!”
इन्द्र की व्यग्रता मुखर हो उठी,“क्या मार्ग निकलेगा देवगुरु? कोई भी प्रयास सार्थक नहीं दिख रहा। बुद्धिजीवी वर्ग राजकोष से अनुसंधानों तथा शोध के नाम पर धन-दोहन मात्र कर रहा है। प्रत्येक असफलता पर उनका स्पष्टीकरण मात्र यह होता है कि हम प्रयास कर रहे हैं। फिर मुझ पर ही आक्षेप लगता है कि सन्धि बिंदुओं के यमलपत्र पर हस्ताक्षर करते समय मैंने विचार क्यों नहीं किया। और प्रजा के प्रयासों की तो बात ही न करें गुरुदेव! प्रजा प्रयास के नाम पर मात्र परिवाद कर रही है। कोई कहता है कि मैं नमुचि का गुप्त हितैषी हूँ अन्यथा ऐसी कोई सन्धि स्वीकार ही नहीं करता। कोई कहता है कि नमुचि तथा इंद्र दो नहीं, एक ही हैं। कोई कायर कहता है, तो कोई देवजाति का द्रोही। प्रजा स्पष्टतः दो विरोधी मतों के आधार पर विभाजित हो चुकी है तथा परस्पर उलझने भी लगी है। सागर की लहरों के परस्पर आलोड़न-विलोडन की भाँति जैसे सागर में अपद्रव्यों का झाग सा उठता है जो किसी भी उपयोग का नहीं होता, प्रजा के विचारों का आलोड़न-विलोडन भी उसी प्रकार के निरर्थक निष्कर्ष उत्पन्न कर रहा है। प्रजा के विचारों पर ध्यान देने पर तो मैं ही भ्रम में पड़ जाता हूँ तथा सत्यासत्य का भेद ही विस्मृत हो जाता है। कभी-कभी तो मुझे ही शंका होने लगती है कि मैं इन्द्र ही हूँ या नमुचि हो गया हूँ। मैंने अब उस पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है। मैं तो आप की शरण आया हूँ। आप देवताओं के गुरु हैं। मार्ग बताइये! यह आपका दायित्व भी है, कर्तव्य भी है, और मेरा निवेदन भी!”
राजा का निवेदन भी आदेश ही होता है, यह देवगुरु भलीभाँति जानते थे। उन्होंने ध्यान से देवराज इंद्र की बातें सुनीं थीं। उन्हें आश्चर्य था कि सदा अभिधा में वार्ता करने वाले उतावले इंद्र आज लक्षणा तथा व्यंजना का आश्रय कैसे ले रहे हैं। किन्तु देवराज की वार्ता से अचानक उनके नेत्र चमक उठे। उन्होंने देवराज को आश्वस्त किया,“व्यग्र न हों देवेन्द्र! मुझे प्रसन्नता है कि आप परिस्थितियों की सम्यक विवेचना कर सकने में अब भी समर्थ हैं। किन्तु इतना अवश्य स्मरण रखें कि अपद्रव्य भी द्रव्य होता है। मुझे प्रतीत हो रहा है कि देवजाति की इस समस्या का समाधान उपलब्ध हो चुका है। आप एक गोपनीय यात्रा की व्यवस्था करें तथा देवशिल्पी विश्वकर्मा को भी साथ ले लें।”
“कब प्रस्थान करना है देवगुरु?” देवराज उत्कण्ठित थे।
“यथाशीघ्र! सम्भव हो तो आज! सम्भव हो तो अभी! शुभस्य शीघ्रं!”
देवगुरु बृहस्पति इंद्र तथा विश्वकर्मा को साथ लेकर छद्म वेश में सागर-तट पर पहुँचे। उनकी दृष्टि कभी सागर के वक्ष पर तैर जाती तो कभी सागर तट पर दौड़ लगाती। विश्वकर्मा तथा इंद्र एक आशा, एक व्यग्रता और एक संदेह के त्रिपाद पर बृहस्पति के पीछे घिसट रहे थे। उन्हें कुछ ज्ञात न था कि देवगुरु क्या कर रहे हैं, क्या देख रहे हैं, क्या खोज रहे हैं। कि तभी एक स्थान पर देवगुरु रुक गये। उनके समक्ष एक मटमैले रंग की शिला जैसी कोई वस्तु थी। बहुत बड़ी नहीं, तो बहुत छोटी भी नहीं। विश्वकर्मा तथा इंद्र दोनों बृहस्पति के निकट पहुंचे। वे कुछ पूछें इससे पूर्व देवगुरु ने ही पूछ लिया,“इस शिला जैसे पदार्थ को आप लोग पहचानते हैं?”
“अवश्य देवगुरु! यह समुद्रफेन है।” विश्वकर्मा ने उत्तर दिया।
“क्या यह गीला है देवराज?”
“नहीं गुरुदेव! यह तो नितांत शुष्क है।” देवराज का संशय-विहीन उत्तर था।
“सत्य है। अब आप दोनों सागर के वक्ष पर तैरती हुई तट के निकट पहुँची उस मेघ जैसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करें। बता सकते हैं कि वह क्या है?”
“वह भी समुद्रफेन ही है गुरुदेव!” इन्द्र ने ही उत्तर दिया।
“क्या वह सूखा है?”
“यह कैसा प्रश्न है गुरुदेव? वह सागर के वक्ष पर खौलती – उछलती – टकराती – तड़पती लहरों के आलोड़न से उत्पन्न झाग है। निश्चित ही सूखी नहीं है। गीली है।”
“क्या वह झाग सा समुद्रफेन वही समुद्रफेन है जो यहाँ, आपके निकट शिला सी हो कर पड़ी है?
“अवश्य वही है गुरुदेव! किन्तु आप कहना क्या चाहते हैं?” इंद्र का मस्तिष्क उलझा जा रहा था।
“मैं यह कहना चाहता हूँ देवराज, कि यह वह पदार्थ है जिसकी खोज में सारी देवजाति लगी है। यह समुद्रफेन गीला नहीं है। और वह समुद्रफेन सूखा नहीं है। अतः समुद्रफेन वह पदार्थ है जो न गीला है और न सूखा है। अब देवशिल्पी यह निर्णय करें कि क्या इस पदार्थ से कोई शस्त्र या अस्त्र निर्मित हो सकता है अथवा नहीं।”
विश्वकर्मा ने परीक्षण किया और आश्वस्ति के साथ शिर हिलाते कह उठे,“निर्मित हो सकता है देवगुरु। अधिक समय तक तो नहीं टिकेगा, किन्तु कुछ काल तक के प्रहारों के लिये पर्याप्त कठोर है।”
“किन्तु देवगुरु! यह कैसे सम्भव है? यह तो एक ही पदार्थ की दो अवस्थायें हैं। किसी एक अवस्था में यह सन्धि के अनुबंध पूरे नहीं करता। जिस शिला से शस्त्र निर्मित होगा वह गीली तो नहीं है, किन्तु सूखी तो है।”
“शिला नहीं देवेन्द्र! समुद्रफेन! वह समुद्रफेन, जो गीला नहीं है। और जो सूखा भी नहीं है। सन्धि में पदार्थ की अवस्थाओं का उल्लेख नहीं है।”
“किन्तु क्या यह वाग्जाल नहीं?”
“अवश्य है देवेन्द्र! किन्तु यह आपको स्वीकार नहीं करना है कि यह वाग्जाल है।”
“क्या इस प्रकार नमुचि का वध उचित है देवगुरु?” इंद्र कातर हो रहे थे।
“इसका उत्तर अनन्तर दूँगा। प्रथम तो आप यह बतायें कि क्या नमुचि का वध आवश्यक है देवराज?”
“आवश्यक तो है! नमुचि के वध के बिना देव तथा मानव जाति का वर्तमान संकट दूर नहीं हो सकता!”
“तो देवराज! ये ‘उचित’ तथा ‘आवश्यक’ दोनों शब्द अपने निहितार्थों में परस्पर अन्योन्याश्रयी होते हैं। जो आवश्यक होता है वह सदा उचित हुआ करता है तथा जो उचित होता है वह सर्वदा आवश्यक भी होता है। और जहाँ तक राजनीति का प्रश्न है, राजनीति में तो जिससे उद्देश्य की पूर्ति होती हो वही उचित भी है और वही आवश्यक भी!”
“दैत्य इसका विरोध करेंगे देवगुरु!”
“दैत्य विरोध कब नहीं करते थे, कब नहीं करते हैं और कब नहीं करेंगे देवराज? उनका तो अस्तित्व ही देवों के विरोध हेतु है। किन्तु तर्कों के निकष पर उनके विरोध टिक नहीं सकेंगे। असमंजस को त्याग कर नमुचि के वध हेतु सन्नद्ध हो जाइये देवराज! और देवशिल्पी विश्वकर्मा! आशा करता हूँ कि इस समुद्रफेन से आप एक ऐसा शस्त्र निर्मित कर सकेंगे जिसके एक प्रहार के उपरांत देवराज को दूसरा प्रहार करने की आवश्यकता न पड़े।”
विश्वकर्मा ने उस समुद्रफेन से बने, सागर के अपद्रव्यों से निर्मित झाग के सूखने से बने, उस अनुपयोगी सी शिला को छील-काट-घिस कर एक परशु जैसा शस्त्र निर्मित किया। समस्या थी कि नमुचि परशु जैसे उस शस्त्र के प्रहार की परास में कैसे आये? मंत्रियों ने मन्त्र दिया, इंद्र ने मन्त्र धारण किया।
इन्द्र ने नमुचि के आवास पर जा कर सूचना भिजवाई,“इन्द्र नमुचि से भेंट का आकांक्षी है।” इन्द्र को प्रतीक्षा करने को कह कर द्वारपाल सूचना देने गया। इन्द्र को प्रतीक्षा करनी पड़ी।
संयोगों का भी इतिहास में अपना ही विशिष्ट महत्व है। यथासम्भव अपना शस्त्र छिपाये इन्द्र नमुचि के द्वार पर प्रतीक्षारत थे, कि तभी उन्होंने देखा – नमुचि के महल के लघुद्वार से एक सुंदर स्त्री चली आ रही है। गौर वर्ण, लम्बी देह-यष्टि, भरी-भरी सी काया, प्रातःकालीन उषा सी दीप्त! दोनों कानों में लटकते कर्णफूल दो प्रखर सूर्य सम भासित हो रहे थे। एक हाथ में अम्लान कमल-पुष्प! वह देवी समान दैदीप्यमान स्त्री स्वयं के प्रकाश से ही प्रकाशित थी। शीश पर रत्न-जटित मुकुट विद्युत्-प्रभा सा चमक रहा था। काया से पद्म-पराग की गंध प्रस्फुटित हो रही थी। ललाट की प्रभा कोटि-कोटि सूर्यों की आभा से अधिक आभामय! इन्द्र अवाक से, चकित देखते रहे – कौन है यह नारी? देवी? दानवी? मानवी? यक्षिणी? कौन है? कौन है?
इन्द्र ने उस नारी को रोका। आश्चर्य से पूछा,“आप कौन हैं देवि? आप की दंत-पंक्ति कुंद-कली सी शुभ्र तथा परस्पर सटी हैं। आयत्त्त लोचनों की रचना जैसे नीलोत्पल से हुई है। सम्पूर्ण काया जैसे पुष्प-पराग से ही निर्मित हुई प्रतीत होती है। अपनी ही छवि से स्वयं को अभिव्यक्त करती देवि! कौन हैं आप? मैं अमरावती का राजा, देवों का अधिपति इंद्र हूँ! अपना परिचय दे कर मुझे कृतार्थ करें!”
वह स्त्री एक चित्ताकर्षक मुस्कान सहित बोली,“आप मुझे भूल गये हैं इंद्र! किन्तु मैं आपको भलीभाँति जानती हूँ!”
“कैसे? कैसे जानती हैं आप मुझे?”
“इस सृष्टि में मुझसे कुछ भी छिपा नहीं है शक्र! मुझे तुम इस सृष्टि की मूल शक्ति समझो! यह सारा संसार मुझ पर ही आधृत है। मैं ही इस सृष्टि की विभूति, धृति, श्री तथा शोभा हूँ! मैं ही स्वाहा, स्वधा तथा षट्कार का फल हूँ! मेरे ही कारण अब तक दैत्य अजेय थे क्योंकि मैं ही अब तक उनकी विभूति थी।”
“आप विधाता का वरदान सरीखी प्रतीत होती हैं देवि। किन्तु आप कौन हैं यह अब तक स्पष्ट नहीं हुआ।”
“मैं न धाता को जानती हूँ न विधाता को मानती हूँ देवराट! मेरा सम्बंध सीधे काल से है। उसी की प्रेरणा से मैं चंचल या स्थिर होती हूँ। वही काल आज मुझे इन दैत्यों को त्याग देने को कह रहा है।”
“क्या दैत्यों ने काल के प्रति कोई अपराध किया है?”
“दैत्यों ने अपराध तो अवश्य किया है किन्तु काल के प्रति नहीं, मेरे प्रति! काल के प्रति कोई क्या अपराध करेगा? वह तो समस्त प्रपंचों से शून्य है। वह अकर्ता है, मात्र साक्षी! उसके देखने मात्र में ही उसकी क्रिया है अतः बुद्धिमान पुरुष काल की दृष्टि पर दृष्टि रखते हैं। काल के इंगित पर ही सृष्टि के समस्त व्यापार संचालित होते हैं। सुनो शक्र! मैं सत्य, तप तथा श्रद्धा में निवास करती हूँ। दैत्यों ने इसका त्याग कर दिया है जो काल का ही संकेत है अतः इनको त्याग देना मेरी विवशता है।”
“मैं आपको अब जान गया देवि! आप देवी लक्ष्मी हैं! मेरा प्रणाम स्वीकार करें! क्या मैं जान सकने का अधिकारी हूँ कि अब आप का निवास कहाँ होने वाला है?”
“मैं आप ही के पास आ रही थी देवराज! काल का यही निर्देश है। अब मैं देवों को कृतार्थ करना चाहती हूँ!”
प्रसन्न इन्द्र अभ्यर्थना में झुक से गये,“अभिहित हूँ देवि! कृतार्थ हूँ!”
देवी लक्ष्मी हँसीं!
“देवराज! मुझे आते देख सभी प्रसन्न होते हैं! तुम भी हो रहे हो! किन्तु जब मैं जाती हूँ तो सभी दुःख से भर उठते हैं। किन्तु कालचक्र, भूचक्र, ग्रहचक्र के ही समान अस्थिरता मेरा स्वभाव है, अतः देवेन्द्र! मेरे सन्दर्भ में समता ही उचित नीति है। अब मैं देवों को कृतार्थ करना चाहती हूँ किन्तु इसके लिये तुम सहित देवों को सत्य, धर्म, श्रम तथा श्रुति का आश्रय लेना होगा।”
इन्द्र की प्रसन्नता का आवेग छिपाये न छिपता था। उन्होंने आग्रह किया,“आप अत्यंत सुकोमल सुकुमारि हैं देवी! और असुर-गृहवास से क्लांत भी प्रतीत होती हैं। कृपया मेरे ऐरावत पर आसीन हो कर अमरावती की यात्रा करें!”
“नहीं देवेन्द्र! स्वकुलोत्पन्न, सुहृद या सहोदर की पीठ पर पाँव रखना संस्कार विरुद्ध है। जो इस संस्कार का अनुपालन नहीं करते वे एक दिन अवश्य पछताते हैं। ऐरावत मेरा सहोदर है। और मेरा एक अपना व्यक्तिगत वाहन है। मैं अन्यों के वाहन का प्रयोग नहीं करती! मेरा उल्लू तुम्हारे ऐरावत से तीव्र गति से चलता है।”
उल्लू? इस दैदीप्यमान व्यक्तित्व का वाहन उल्लू? और उल्लू की तुलना ऐरावत से? कैसी देवी हैं यह लक्ष्मी? इंद्र एक क्षण को स्तब्ध रह गये। इंद्र की यह दुविधा लक्ष्मी से छिपी न रह सकी।
“आप समझ नहीं सके देवराज! लोग मेरे उल्लू से व्यर्थ घबराते हैं। यह तो मेरा नितांत व्यक्तिगत सचिव भी है। मेरा विश्वासपात्र बनने से पूर्व इसका विश्वासपात्र बनना आवश्यक है। आप सब समझ जायेंगे! अभी आप ,अपना उद्देश्य पूर्ण करें! मैं अमरावती को प्रस्थान करती हूँ। कुछ काल काशी में भी रुकूँगी! आपके लौटते समय मुझसे काशी में भेंट हो सकती है अन्यथा अमरावती तो मैं पहुँच ही रही हूँ।”
इंद्र विवाद की स्थिति में नहीं थे। उन्हें ज्ञात था कि लक्ष्मी विवाद से रुष्ट होती है तथा विवादियों के निकट वे कदापि रहना स्वीकार नहीं करतीं। और तब तक नमुचि का द्वारपाल भी आता दिख गया। इन्द्र ने शीघ्रता से देवी लक्ष्मी को प्रणाम किया। देवी लक्ष्मी उल्लू पर आसीन हो प्रस्थान कर गईं। नमुचि का द्वारपाल निकट आ चुका था। उसने सूचना दी कि दैत्येन्द्र नमुचि स्वयं पधार रहे हैं।
दैत्येन्द्र? शब्द सुनते ही अस्त होते सूर्य की समस्त लालिमा इन्द्र के नेत्रों में समा गई। नासापुटों से उभरते निःश्वांस में उन्चासो मरुत डोल उठे। सूर्य अस्ताचल को जा चुका थे।
नमुचि निर्भय था, किसी भी आशंका से रहित! वह बाहें पसारे इन्द्र का स्नेहालिंगन करने बढ़ा। और परशु के परास में नमुचि के आते ही इन्द्र ने समुद्रफेन से निर्मित उस शस्त्र से एक ही आघात में नमुचि का शीश काट कर अलग कर दिया।
दैत्यों में हाहाकार मच गया। उन्होंने इन्द्र को घेर कर उनका वध करना चाहा किन्तु पहले से प्रच्छन्न रूप में महल के समीप स्थित देव-सैन्य ने विकट युद्ध करते हुए इन्द्र को सकुशल निकाल लिया। नमुचि मारा जा चुका था।
लौटते समय इंद्र को लक्ष्मी काशी में नहीं मिलीं। वास्तव में नदियों के शुद्धिकरण की प्रक्रिया अभी समाप्त नहीं हुई थी तथा उस समय तक गंगा पूर्णतः शुद्ध नहीं हो सकी थीं। काशी में महामारी पसरी थी तथा लक्ष्मी को रोग से भय लगता है। जिस स्थान पर रोगों का वास हो, लक्ष्मी वहाँ अधिक समय तक नहीं टिकती। रोगी के पास से तो वे भयग्रस्त सरीसृप की भाँति पलायित होती हैं। उनका तो स्वभाव ही सर्पणशील है, अप्सरोचित! इन्द्र ने अमरावती का मार्ग पकड़ा।
लक्ष्मी इंद्र के अमरावती पहुँचने से पूर्व ही वहाँ पहुँच चुकी थीं, किन्तु वे अमरावती में प्रवेश न कर सकीं। अमरावती के द्वार-रक्षकों ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया। मुख्य आरक्षी ने लक्ष्मी से कहा,“देवि! आप सुरूपवती हैं। स्त्री हैं। आप के स्वर्ग – प्रवेश से हमें आपत्ति नहीं, किन्तु यह उल्लू? यह स्वर्ग में प्रविष्ट नहीं हो सकता! अमरावती में उल्लुओं हेतु कोई स्थान नहीं!”
सुन कर लक्ष्मी हँसीं, किन्तु उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया। वे अमरावती के द्वार पर ही इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगीं। किन्तु एक महिमामयी नारी को इस प्रकार प्रतीक्षा करते देख द्वार-रक्षकों में शंका ने जन्म लिया। उन्हें लगा कि कहीं यह नारी देवेन्द्र की विशिष्ट अतिथि हुई तो वे इन्द्र का कोप-भाजन हो सकते हैं। उन्होंने लक्ष्मी से निवेदन किया,“देवि! आप विशिष्ट प्रतीत होती हैं। आप का इस प्रकार प्रतीक्षारत रहना उचित नहीं लगता। आप अपना यह वाहन हमारे संरक्षण में छोड़ कर अमरावती में प्रवेश करें।”
रक्षकों की विनम्रता से प्रसन्न लक्ष्मी ने उनसे कहा,“देवेन्द्र के सेवक ध्यान से सुनें! देवेन्द्र से हमारी वार्ता हो चुकी है और देवेन्द्र स्वयं भी किसी भी क्षण आते ही होंगे अतः मेरी प्रतीक्षा से आप सब उद्विग्न न हों! किन्तु जहाँ तक उल्लू के स्वर्ग में प्रविष्ट होने की बात है, तो मेरी कृपा होती ही इसीलिए है। लक्ष्मी की कृपा हो और उल्लू स्वर्ग में प्रविष्ट न हो सके तो लक्ष्मी की कृपा का अर्थ ही क्या रहा? मेरी कृपा से उल्लू भी इन्द्र और मेरे कोप से इंद्र भी उल्लू हो जाते हैं। मेरी एक वास्तविक झलक से तुम सब भी मेरे वशवर्ती हो जाओगे किन्तु अभी उसका कोई प्रयोजन ही नहीं। और जो लक्ष्मी का महत्व नहीं समझता उन मूर्खों को समझाने का भी कोई लाभ नहीं। अतः मैं भी देवेन्द्र की प्रतीक्षा कर रही हूँ, तुम लोग भी करो!”
कुछ काल उपरांत देवेन्द्र भी अमरावती के द्वार पर पहुंचे। देवी लक्ष्मी को देख कर अतिशय प्रसन्न इंद्र ने उनका अभिवादन किया। यह सब देख कर द्वार-रक्षक डरे कि कहीं देवेन्द्र रुष्ट न हों। यद्यपि वे अपने को अपराधी नहीं मान रहे थे, किन्तु भय राज-सेवकों का अभिनय है।
और सब ने देखा – उल्लू लक्ष्मी के प्रभाव से स्वर्ग में प्रविष्ट हुआ। हतप्रभ द्वार-रक्षकों में से एक, जिसके सेवानिवृत्त होने में कुछ ही दिन शेष थे, उसने अन्यों को समझाया,“मूर्खों! उल्लू – उल्लू में भी अंतर करना सीखो। एक उल्लू वे होते हैं जिन पर लक्ष्मी की कृपा होती है। दूसरे वे, जो लक्ष्मी के रोष के कारण उल्लू हो गये होते हैं। लक्ष्मी के कृपा-पात्र उलूक की तो चरण-धूलि भी कार्य-साधक होती है। ऐसे उल्लू से द्वेष या विवाद उचित नहीं। अब से तुम सब उसकी प्रशंसा करो। देखना कि शीघ्र ही तुम्हें पुरस्कार मिलेगा। वेतन वृद्धि भी सम्भव है।“
स्पष्ट तो नहीं, किन्तु संकेतों में लक्ष्मी देवी ने इंद्र को अवगत करा दिया कि स्वर्ग-द्वार पर उल्लू की अवहेलना उन्हें प्रिय नहीं लगी थी। किन्तु इन्द्र भी चतुर एवं वार्ताकुशल थे। उन्होंने लक्ष्मी देवी को आश्वस्त किया,“देवि! आप अन्यथा न लें। मैं राजा हूँ! राजा को यह ज्ञात होता है कि ‘राजकर्मचारियों की सेवा ही राजसेवा है’ क्योंकि राजा अपनी सेवा राजकर्मियों के माध्यम से ही स्वीकार करता है। बिना राजकर्मी की सेवा के राजा की सेवा सम्भव ही नहीं है। अतः भविष्य में उलूक देव की सेवा में कोई त्रुटि नहीं होगी एतदर्थ आप आश्वस्त रहें!”
लक्ष्मी प्रसन्न हुईं। उन्होंने कहा,“जानती हूँ देवेन्द्र, कि आप एक श्रेष्ठ राजपुरुष हैं! प्रत्येक राजपुरुष उलूक-पूजक होता है। राजपुरुषों को उलूक-पूजक होना ही पड़ता है।”
“तो देवि! अब स्वर्ग ही आपका स्थायी निवास हो! आप मुझे छोड़ कर कहीं न जाँय। आज से मैं आपका तथा आपके वाहन इस उलूक का भी अन्यतम सेवक हूँ!”
लक्ष्मी ने कोई उत्तर नहीं दिया किन्तु उनके मुख पर मुस्कान की लाली अवश्य उभरी जिससे उनका सुवर्ण मुख और भी दीप्तिमान हो उठा। इंद्र को लगा जैसे रक्त-कमल पर उषा की किरणें उतर आयी हों। वे निर्निमेष देखते ही रह गये।
कुछ समय के मौन के पश्चात देवी लक्ष्मी ने इंद्र से कहा,“शक्र! मैं प्रकट-वास नहीं करती! मुझे गुप्त रहना ही भाता है। अतः मेरी उपस्थिति का प्रदर्शन नहीं होना चाहिये! लक्ष्मी को प्रतिपल अपहरण का भय होता है। वैसे तो मेरी उपस्थिति छिपी रह नहीं जाती किन्तु मेरी उपस्थिति का तो बोध ही पर्याप्त है। मेरी उपस्थिति के बोध-मात्र से पाषाण रत्नों में परिवर्तित हो जाते हैं, सागर की लहरों पर भी सुन्दर आमोद-गृह निर्मित हो जाते हैं, श्वानों-मार्जारों हेतु भी सेवक नियुक्त हो जाते हैं, जिनके मुख देखने से लोग कतराते हों उन्हें श्री-मुख कहा जाने लगता है। मेरी ही कृपा से विद्वानों को आदर तथा नेताओं को पद प्राप्त होता है। अराजक तत्वों को समाजसेवक तथा वार-वनिताओं को समाज-श्री की उपाधि प्राप्त हो जाती है। अतः मेरी उपस्थिति का बोध तो सबको हो ही जायेगा, तो भी मेरा निवास गुप्त ही रहेगा। अतः आज से यह मेरा वाहन ही मेरा आधिकारिक प्रतिनिधि है। इसके समस्त वक्तव्यों में मेरी पूर्ण सहमति होगी। साथ ही मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि तथ्यों एवं तर्कों से मुझे घृणा है अतः तर्कपूर्ण तथा तथ्यपूर्ण वार्ता करने वाले मुझे प्रिय नहीं। साथ ही, मेरी भाषा भी गुप्त-धन सी ही रहस्यपूर्ण होती है अतः स्पष्ट आश्वासन मैं नहीं देती। मेरी हाँ और मेरी ना दोनों अस्पष्ट होते हैं। अब मैं अदृश्य होती हूँ अतः आगे से जो भी कहना हो, इस उल्लू से ही कहें। बस इसे रुष्ट न करियेगा।”
नमुचि का वध हो ही चुका था। दैत्य-समाज पाताल को पलायित हो गया। दैत्यों ने अपने पीछे अथाह संपत्ति छोड़ी थी, वह सब देवों को प्राप्त हुई। अदृश्य रह कर लक्ष्मी इंद्र का कीर्ति-वर्धन करने लगीं।
इन्द्र समुद्रफेन का शस्त्र के रूप में उपयोग करने के प्रति प्रारम्भ से ही दुविधा में थे। दैत्यों ने भी प्रवाद प्रसारित करने में कोई कृपणता नहीं की, और देवों में भी कुछ ऐसे लोगों का वर्ग था जो सकारण-अकारण और जाने-अनजाने उस प्रवाद को समर्थन दे रहा था। प्रजा में प्रवाद फैल गया,“इंद्र ने छल से नमुचि का वध किया है। इंद्र पापी हैं।”
नमुचि को मार कर भी इंद्र को शांति नहीं थी। उन्हें मन ही मन लज्जा का अनुभव होता था। प्रवाद तथा इंद्र की स्वयं ढोई जाती ग्लानि ने इंद्र को भी विश्वास दिला दिया कि उनसे पाप हुआ है। इंद्र को प्रतीत होता था कि उनके वाम-स्कंध पर नमुचि का छिंदित शीश आ जुड़ा है। सोते-जगते वह शीश सदा इंद्र के साथ है यह विश्वास इंद्र के मन में घर कर गया। उन्हें अवचेतन में नमुचि का अट्टहास सुनाई देता,“इंद्र! तुम छली हो! तुमने छल से मेरा वध किया है!”
इंद्र का उत्साह मंद पड़ गया था। वे नमुचि का स्मरण भी नहीं करना चाहते थे किंतु उन्हें नमुचि सदा उन्हीं के स्कंध पर आसीन प्रतीत होता था। एकांत में वह और भी विराट हो उठता था। इस मानसिक विभ्रम के कारण इंद्र के शासकीय निर्णय प्रभावित होने लगे और असंगत निर्णयों से प्रजा में असंतोष फैलने लगा। उधर उल्लू भी इंद्र के निर्णयों को प्रभावित करता रहता था तथा लक्ष्मी के रोष के भय से इंद्र उसकी अवहेलना भी नहीं कर पाते थे।
उल्लू देशाटन के नाम पर बहुधा स्वर्ग से बाहर जाया करता था। वह कब जाता और कब लौटता, इसका कोई निश्चित समय न था। इस परिस्थिति का लाभ उठा कर उल्लू अपने परिचित उल्लुओं को भी स्वर्ग में प्रविष्ट कराने लगा और उसके परिचित उल्लू अपने परिचित उल्लुओं को स्वर्ग-प्रवेश में सहयोग करने लगे। इस प्रकार स्वर्ग में अन्य उल्लू भी आने लगे। ढेरों-ढेर उल्लू। कोई भेद नहीं, सब उल्लू देखने में एक जैसे। क्रमशः स्वर्ग में उल्लुओं की संख्या में वृद्धि होने लगी। पारिजात तथा कल्पवृक्ष की शाखाओं पर उल्लुओं के अधिवास स्थापित हो गये। नंदनवन में पिक, मयूर, चातकों की अपेक्षा उल्लुओं की बहुलता हो गई। कोई भी किसी भी उल्लू से भय के मारे कोई प्रश्न तक नहीं करता था – कौन जाने इनमें लक्ष्मी का वाहन कौन सा है? सबकी मुखाकृति एक जैसी, कोई भेद नहीं। इंद्र की सभा सुधर्मा के वातायनों, अलिंदों, आसंदियों तक उल्लुओं की पहुंच थी। प्रत्येक सभासद किसी न किसी उल्लू के सम्पर्क में था और उन सब तक किसी न किसी प्रकार से लक्ष्मी की कृपा पहुँच रही थी।
पलायित दैत्य भी उद्विग्न थे, किंतु उनमें युद्ध का साहस नहीं बचा था। वे इंद्र से पराजित थे, और प्रतिशोध की भावना से व्याकुल थे। उनका आक्रोश शुक्र पर फूटा – मात्र यजमान की दक्षिणा खाते हैं? हमारे उत्थान हेतु कुछ तो विचार कीजिये!
शुक्र अपने शिष्यों का कल्याण चाहते थे, किंतु उन्हें दैत्यों पर रोष भी था। संधि के नियमों को प्रस्तुत करते समय किसी ने उनसे मंत्रणा नहीं की थी। तब भी उन्होंने उपाय निकाल लिया। वे जानते थे कि इन दिनों देवी लक्ष्मी देवों से रुष्ट हैं क्योंकि देवों के राज्य में उनके वाहन का उचित सम्मान नहीं हो रहा है।
आचार्य शुक्र ने अपने शिष्यों को देवी लक्ष्मी के वाहन उलूक के संधान में लगा दिया किन्तु यह सरल कार्य नहीं था। जहाँ शाखा-प्रतिशाखा पर उलूक ही उलूक हों वहाँ किसी विशेष उलूक का संधान कठिन होता ही है। बड़ी कठिनता से उलूक-राज की पहचान हो सकी। उसे शुक्राचार्य का सन्देश दिया गया,”दैत्यगुरु शुक्राचार्य आपसे भेंट का अवसर चाहते हैं! कृपा कर के समय निकाल कर दर्शन दें!”
किन्तु उलूक तो उलूक! वह अड़ गया,“मैं क्यों जाऊँ शुक्राचार्य के पास? जिसे आवश्यकता हो वह मेरे पास स्वयं आये! आचार्य देवों का हो या दैत्यों का, कोई उलूक भी कहीं आचार्यों के पास जाता है? और मेरी स्वामिनी के कृपा-कटाक्ष के बिना भला कौन बृहस्पति या शुक्र किसी संस्थान का आचार्य बन सका? और मेरी स्वामिनी का कृपा-कटाक्ष उलूकों के अतिरिक्त किसी अन्य पर हुआ ही कब? अच्छा! तो यह शुक्र आचार्य है? निश्चित ही उलूक-स्वभाव का होगा! किसी उलूक के पास रह कर पाँच–छः वर्षों तक उलूक-वृत्ति का प्रदर्शन-नियमन किया होगा! तो वह भी उलूक, और मैं भी! और मैं लक्ष्मी-वाहन! वह तो सरस्वती-सेवा का अभिनय करने वाला लक्ष्मी-वाहन है! सरस्वती और लक्ष्मी का वैर तो जगविश्रुत है! तो मैं क्यों जाऊँ उसके पास?”
शिष्यों ने समझाया,”आप सत्य कहते हैं उलूक-राज! किन्तु उलूक धर्म भी तो कोई वस्तु है? सजातियों का कष्ट अपना कष्ट होता है। सजातियों के आग्रह-आमंत्रण ठुकरा कर आप उलूक-आदर्श की अवहेलना कर रहे हैं। एक उल्लू दूसरे उल्लू के लाभ के लिये किसी भी सीमा तक जा सकता है यह उलूक धर्म है! सब कुछ नष्ट हो जाय किन्तु धर्म नहीं नष्ट होना चाहिये! और उलूक-धर्म तो कदापि नष्ट नहीं होना चाहिये! यदि इस संसृति से उलूक-धर्म नष्ट हो गया तो समस्त व्यवहार-जगत स्तंभित हो कर रह जायेगा! उल्लूपना ही तो व्यवहार-जगत की मेरु-रज्जु है! आप उलूक-राज हैं! आप को शुक्राचार्य का यह निवेदन स्वीकार करना चाहिये!”
लक्ष्मी का वाहन उल्लू बड़े आश्चर्य में पड़ा,“यह उलूक-धर्म क्या होता है? कुछ-कुछ समझ तो रहा हूँ किन्तु बहुत स्पष्ट नहीं है।”
“तब तो आपको शुक्राचार्य से अवश्य भेंट कर लेनी चाहिये! हम लोग तो शुक्राचार्य के शिष्य मात्र हैं। बड़े उल्लुओं की बड़ी बातें हम कैसे व्याख्यायित कर सकते हैं?”
शुक्राचार्य के शिष्य अपने दौत्य में सफल हुए। शुक्राचार्य तथा उलूक-राज में गोपनीय मंत्रणा हुई। मंत्रणा क्या हुई, शुक्राचार्य ने उलूक को अपने मिष्टभाषण से अनुकूल करने के शताधिक प्रयत्न किये,“हे पक्षिराज उलूक! सवित्रि-तेज के वाहक गरुड को तो व्यर्थ ही पक्षिराज कहा जाता है! वास्तविक पक्षिराज तो आप हैं! अन्धकार में भी जिसकी दृष्टि अबाध हो ऐसा गुण आप के अतिरिक्त मात्र वाक्-गुदमों में ही होता है जो आपके असंदिग्ध अनुयायी हैं। आप जैसे के अतिरिक्त उन्हें अन्यत्र शरण भी कहाँ प्राप्त हो सकती है? आप तमचर हैं, निशाचर हैं, अन्धकार के पक्षधर हैं! दैत्य भी ऐसे ही हैं! आप और दैत्यों में स्वभावगत ऐक्य है। दोनों का ही पौरुष अन्धकार में ही अभिव्यक्त होता है। अन्धकार दोनों की मूलभूत शक्ति है। प्रकाश चाहे सूर्य का हो, चन्द्र का हो, अग्नि का हो, सत्य का हो, ज्ञान का हो, संस्कृति का हो, कला का हो, प्रकाश से दोनों का विरोध है। तो मेरा निवेदन है कि एक निशाचर अन्य निशाचरों की, एक अन्धकार का पक्षधर अन्धकार के अन्य पक्षधरों की सहायता करे! यही न्यायोचित है! यही जाति-धर्म है! ज्ञान का, कला का, संस्कृति का, शुभ का, सत्य का, ज्योति का, दीप्ति का, द्युति का, प्रकाश का विरोध, इनकी अवहेलना, इन्हें हतोत्साहित करना, यही उलूक-धर्म है उलूक-राज!! आपके सजातीय संकट में हैं! तम के आराधकों के इस संकट में यदि आप सहयोग नहीं करेंगे तो कौन करेगा?”
लक्ष्मीवाहन उलूक स्वयं अमरावती में सदा व्याप्त प्रकाश से त्रस्त था। उसे अपने नेत्रों पर ही संदेह होने लगा था किन्तु उलूक व्यवसाय-चतुर भी होता है। किसी भी प्रस्ताव को तत्काल मान लेने से अपना महत्व घटता है, यह लक्ष्मी-वाहनों को भली-भाँति ज्ञात होता है। उसने अपना व्यावहारिक संकट बताया,“किन्तु देवी लक्ष्मी यह स्वीकार नहीं करेंगी। ऐसा करने का उनके पास कोई उचित कारण भी नहीं है।”
शुक्राचार्य विद्वान थे तथा विद्वान् हेतु तर्क गढ़ना कठिन नहीं है। उन्होंने तर्क गढ़ा – इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी है। उन्होंने जिन दैत्यों को भी मारा, वे सभी ब्राह्मण-संतान थे। इंद्र के पास रह कर देवी भी इस पाप में भागी हो रही हैं क्योंकि वे धन से इंद्र की सहायता कर रही हैं तथा हत्या में या हत्यारे का सहयोग करने वाला भी सामान पाप का भागी होता है अतः देवी लक्ष्मी को चाहिये कि वे तत्काल इंद्र का त्याग कर दें अन्यथा इस संग-दोष का पाप किसी भी प्रायश्चित से शान्त होने वाला नहीं है!”
उलूक ने प्रश्न किया,“किन्तु इससे मुझे क्या लाभ होगा?”
लक्ष्मी-वाहन को लक्ष्मी के अतिरिक्त भी किसी अन्य लाभ की आकांक्षा हो सकती है यह जान कर शुक्राचार्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने उलूक से कहा,“हे पक्षिराज! उलूक-मंतव्य सामान्य जनों हेतु सदा स्पष्ट नहीं होते! आप अपना वांछित स्वयं कहें!”
और तब उलूक ने कहा,“आचार्य शुक्र! आप नीतियों का नियमन करने वाले स्मृतियों के रचयिता हैं। किन्तु आप जानते हैं कि अब तक प्रत्येक शासक ने उल्लुओं की उपेक्षा ही की है जबकि इस विश्व को उलूक-लोकतंत्र की महती आवश्यकता है। अतः आपको आश्वासन देना होगा कि नयी व्यवस्था उलूक-प्रधान होगी! इस व्यवस्था के प्रधान पदों पर उल्लुओं को नियुक्त किया जायेगा। शासन से लेकर प्रशासन तक समस्त विभागों में उलूकों की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक रहेगी। संचार माध्यम उलूक वाणी का प्रसारण करेंगे। बालकों को उलूक भाषा तथा उलूक-पुराण की शिक्षा प्रदान की जायेगी। समस्त राजकीय कार्य उलूक-पद्धति से होंगे। समस्त कार्यालयों में सारे प्रमुख कार्य रात्रि में होंगे। प्रकाश की, ज्ञान की, सत्य की अभ्यर्थना अपराध मानी जायेगी। ऋत के स्थान पर अनृत को प्रोत्साहन दिया जायेगा। ज्योति की ओर नहीं, तमस की ओर बढ़ना देश तथा समाज का लक्ष्य होगा। यदि आप यह सब स्वीकार करें, तो मैं आपका इच्छित कार्य करने को प्रस्तुत हूँ!”
शुक्राचार्य ने कहा,“उलूकराज! मैं वचन देता हूँ कि भविष्य में आपके सुझाये प्रत्येक बिन्दु को प्रत्येक नीति-नियामक ग्रन्थ में अलिखित रूप से सम्मिलित कर दिया जायेगा जिनका अक्षरशः पालन प्रत्येक शासक एवं कर्मचारी हेतु अनिवार्य होगा।”
इंद्र ने सरस्वती तथा अरुणा के संगम पर प्रायश्चित किया जिससे उन्हें तथा उनके वाम-स्कंध पर बैठे नमुचि के छिन्दित शीश दोनों को मुक्ति मिल गयी किन्तु हर देश-काल में हर इंद्र के वाम-स्कंध पर नमुचि का यह छिन्दित शीश सदा आसीन रह कर उनके निर्णयों को प्रभावित करता रहता है तथा शुक्राचार्य का आश्वासन भी शासकीय नियमावली का प्रच्छन्न अनुच्छेद बन कर संकलित है जो अपरिहार्य रूप से पालनीय माना जाता है।
स्वर्ग से पृथ्वी तक ! वाह !!