यशार्क पाण्डेय
‘राम की शक्ति पूजा’ महाप्राण निराला का अमर काव्य है। निराला के काव्य का कथानक पन्द्रहवीं शताब्दी के बँगला कवि कृत्तिबास ओझा द्वारा रचित कृत्तिबासी रामायण पर आधारित है। कथा इस प्रकार है कि श्रीरामचन्द्र जी को लंका की धरती पर रावण से प्रत्यक्ष युद्ध में पहली लड़ाई में पराजय प्राप्त हुई। विचलित हो उठे राम ने जब देखा कि आदिशक्ति ने रावण को अपनी गोद में ले रखा है तब वे निराश हो गए। उन्हें लगा कि वे युद्ध जीत नहीं पायेंगे। सीता जी का स्मरण करते अश्रु की कुछ बूँदें भी छलक उठीं। तब जाम्बवंत ने श्रीराम से कहा कि वे ‘शक्ति‘ की मौलिक कल्पना और आराधना करें। प्रभु को प्रेरणा मिली और उन्होंने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए एक सौ आठ कमल पुष्पों से शक्ति की पूजा करने का संकल्प लिया। पूजा अंत होने से पहले देवी ने परीक्षा लेने के उद्देश्य से एक कमल चुरा लिया। यह देख व्याकुल श्रीराम को स्मृति हो आई कि कौशल्या माँ उन्हें कमलनयन कहती थीं और वे कमल की संख्या पूर्ण करने हेतु अपने नेत्र निकाल कर अर्पित करने को उद्यत हुये कि माँ शक्ति ने उनका हाथ थाम रोक लिया और कहा कि तुम्हारी जय होगी। शक्ति ने श्रीराम की देह में प्रवेश किया और श्रीराम रावण का मर्दन करने में सफल हुये।
आधुनिक भारत के सामरिक चिंतन में सन् 1947, ’62, ’71 और 1998 सबसे महत्वपूर्ण हैं। इनमें से तीन वर्ष सैन्यबल के जय-पराजय को रेखांकित करते हैं जबकि 1998 राष्ट्रीय शक्ति की परिकल्पना का परिचायक है। भारत की रक्षा प्रणाली के उच्च प्रबंधन में अत्यावश्यक सुधार सन् 1971 के उपरांत नहीं किये गए हैं।
बँगला कवि कृत्तिबास ओझा की ‘रामायण’ की एक घटना पर आधारित हिन्दी महाकवि निराला की कृति ‘राम की शक्ति पूजा’ से प्रेरणा ले यह लेखमाला राष्ट्र द्वारा ‘शक्ति’ की मौलिक कल्पना और पूजा में अब तक अर्पित किये गये प्रत्येक कमल का विश्लेषण करने की धृष्टता मात्र है। राष्ट्र को शक्ति की पूजा करने में अभी बहुत सारे कमल अर्पित करने होंगे।
भारत का आणविक अस्त्र कार्यक्रम: संक्षिप्त इतिहास
18 मई 1974 को बुद्ध पूर्णिमा के दिन ‘बुद्ध मुस्कुराये’ थे जब भारत ने पहली बार पोखरण में परमाणविक अस्त्र का परीक्षण किया था। चौबीस वर्ष पश्चात 11 मई 1998 को भी बुद्ध पूर्णिमा थी जब भारत ने पोखरण में सिंह की भाँति दहाड़ कर स्वयं को परमाणु ‘शक्ति’ सम्पन्न राष्ट्र होने का उद्घोष किया था। सन् 1974 और 1998 के परमाणु परीक्षण में अंतर था। सन् 1974 का परीक्षण होमी भाभा और उनके पश्चात राजा रमन्ना, पी के आयंगर, होमी सेठना, विक्रम साराभाई जैसे वैज्ञानिकों के प्रोत्साहन का परिणाम था। वस्तुतः भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम की नींव 1944 में ही पड़ गई थी। भाभा के नेतृत्व में नेहरू के शासन काल में परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) की स्थापना की गयी थी। विक्रम साराभाई इंदिरा गाँधी के समय 1971 तक परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष थे। उनके बाद होमी सेठना आयोग के अध्यक्ष बने। इंदिरा गांधी ने 1974 के परीक्षण को ‘Operation Smiling Buddha’ नाम दिया था। सन् ’74 में परमाणु परीक्षण करने के उपरांत हमने देश को परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र घोषित नहीं किया था बल्कि अपने बल पर अर्जित की गयी शक्ति को ‘शांतिपूर्ण विस्फोट’ बता कर अंतर्राष्ट्रीय दबाव से बचने का हास्यास्पद प्रयास किया गया था जिससे कुछ लाभ नहीं हुआ। ऑपरेशन Smiling Buddha के फलस्वरूप अमेरिका के नेतृत्व में न्यूक्लिअर सप्लायर ग्रुप (NSG) नामक अंतर्राष्ट्रीय संगठन बना और किसी भी देश द्वारा किसी भी मूल्य पर भारत को परमाणु ईंधन सामग्री की आपूर्ति न करने देने का निश्चय किया गया। महत्वपूर्ण बात यह थी कि उस समय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य देशों के अतिरिक्त भारत अकेला देश था जिसने परमाणु अस्त्रों का परीक्षण किया था। तब भी वही 1972 वाले शिमला समझौते वाली अनिश्चय की स्थिति यथावत रही। भारत स्वयं को स्पष्टत: परमाणु शक्ति सम्पन्न देश नहीं घोषित कर सका। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC) के तत्कालीन निदेशक डॉ राजा रमन्ना ने 1997 में पीटीआई को दिए इंटरव्यू में कहा कि ’74 का पोखरण परीक्षण कतई शांतिपूर्ण नहीं था। उन्होंने कहा कि, “बम या गोला बारूद को धरती पर चलाया जाये या किसी व्यक्ति पर वह बम ही होता है।”
मई 11-13, 1998 का परमाणु परीक्षण अडिग राजनैतिक नेतृत्व और दृढ़ राष्ट्रीय इच्छाशक्ति की विजय थी। उस परीक्षण को ऑपरेशन ‘शक्ति’ नाम दिया गया था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 11 मई को सन्ध्या समय प्रेस वार्त्ता में कहा, “Today, at 15:45 hours, India conducted three underground nuclear tests in the Pokhran range. The tests conducted today were with a fission device, a low yield device and a thermonuclear device. The measured yields are in line with expected values…” उस दिन यह नहीं कहा गया कि हमनें कोई शांतिपूर्ण विस्फोट किया है क्योंकि विस्फोटों की गूँज में भारत की सामरिक शक्ति परिलक्षित हो रही थी। डॉ अब्दुल कलाम ने कहा था कि पोखरण में रेगिस्तान की धरती काँप उठी थी और वह बड़ा सुंदर दृश्य था। दो दिन बाद ही 13 मई को दो और परीक्षण किये गए थे। प्रश्न है कि क्या यह केवल शक्ति प्रदर्शन मात्र था?
चित्र आभार: dnaindia.com
शक्ति अपने मौलिक स्वरूप में दायित्व रूपी सिंह पर सवार होकर आती है। प्रधानमंत्री वाजपेयी भविष्यद्रष्टा सिद्ध हुये। उन्हें बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य और इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते भारत का प्रभाव विश्व पटल पर साफ दिखता था। उनसे पहले भी दो बार भारत ने परीक्षण करना चाहा था लेकिन अंतर्राष्ट्रीय दबाव को झेलने और उससे उबरने की इच्छाशक्ति के अभाव में परीक्षण स्थगित ही रहे। उस मई में भारत द्वारा किये गए परीक्षण के फलस्वरूप जो होना था वही हुआ। जून 1998 में ही अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में बैठक बुलाई और भारत पर ढेर सारे आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए जिनसे उबरने में भारत को अधिक समय नहीं लगा। भारत सरकार की कूटनीतिक दक्षता का परिणाम था कि प्रतिबंधों को झेलने के बाद भी भारत-अमरीका नाभिकीय समझौते की नींव रख दी गयी। अमेरिका से सम्बंध सुधारने के लिए दोनों देशों के विदेश मंत्रियों जसवंत सिंह और स्ट्रोब टैलबोट ने ’98 से 2000 तक सात देशों में चौदह वार्तायें की थीं। इन सभी प्रयासों का परिणाम अमरीका से किए गए नागरिक परमाणु ऊर्जा समझौते के रूप में 2008 में सामने आया।
मई 1998 के परमाणु परीक्षण के उपरांत सन् 2003 में भारत ने अणुशक्ति सम्पन्न राष्ट्र के दायित्व का निर्वहन करते हुए आणविक आयुध प्रबंधन हेतु संस्थागत प्रणाली गठित की। राजनैतिक नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय कमान प्राधिकरण (National Command Authority) के साथ ही सशस्त्र सेनाओं के लिए Strategic Forces Command (SFC) की स्थापना की गयी। उसी वर्ष भारत ने नाभिकीय सिद्धांत (Nuclear Doctrine) को भी अपनाया जिसके अनुसार हमने न्यूनतम विश्वसनीय अवरोध (Credible Minimum Deterrence) की नीति अपनाई जिसके अनुसार भारत पर इस बात के लिए विश्वास किया जा सकता है कि वह आणविक अस्त्रों का प्रयोग प्रतिकारात्मक कार्यवाही के रूप में ही करेगा। यद्यपि भारत ने एक विश्वसनीय अणुशक्ति सम्पन्न राष्ट्र के सभी मूल्यों एवं दायित्वों का निर्वहन किया तथापि वामपंथी विचारकों ने भारत के सामरिक चिंतन की दिशा को भ्रमित करने का यथासंभव प्रयत्न किया। विदेशों में पुरस्कृत वृत्तचित्रों में यह प्रदर्शित किया गया कि भारत सरकार ने अपनी गरीब जनता की चिंता न करते हुए परमाणु परीक्षणों में धन का अपव्यय कर देश को जनमानस को युद्ध के लिए आमादा करने का प्रयास किया। देश की तकनीकी दक्षता का जितना हो सका उपहास किया गया। लोकप्रिय अंग्रेजी साहित्य में जनविमर्श के अनेक विषयों को नाभिकीय अस्त्रों से बलात् जोड़ कर एक अनूठा ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ खड़ा किया गया जहाँ राष्ट्रीय सुरक्षा और तकनीकी दक्षता के मानक ‘गरीबी हटाओ’ की कसौटी पर ही कसे जाते थे। जहाँ अमरीका हिरोशिमा-नागासाकी में हुए जनसंहार को दरकिनार कर आणविक अस्त्र के अविष्कार को अपनी उपलब्धियों में गिनता है वहीं भारत के अधिकांश बच्चे 11 मई तकनीकी दिवस का महत्व ही नहीं जानते। भारत ‘राज्य-राष्ट्र’ यूरोपीय ‘राष्ट्र-राज्य’ से भिन्न है। हमारे देश में शक्ति की मौलिक कल्पना राज्य ने तो की परन्तु राष्ट्र इस शक्ति को ग्रहण करने से रह गया।
शक्ति की मौलिक कल्पना का प्रकटीकरण
भारत सम्भवतः अकेला देश है जहाँ शक्ति को स्त्री और बल को पुरुष रूप में पूजा जाता है। बल और शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। यदि सैन्यबल में शक्ति न हो तो वह निष्प्रभावी है और राष्ट्र-शक्ति तब तक निस्तेज है जब तक वह सैन्यबल का समुचित उपयोग न कर सके। शक्ति की यह मौलिक कल्पना आज की महती आवश्यकता है। किसी भी राष्ट्र के विकास क्रम में सबसे पहले विमर्श का एक कथानक (discourse) होता है। यह कथानक स्थापित मान्यताओं और विचारों को तत्कालीन समाज की विषमताओं की कसौटी पर कसता है। सत्ता अधिष्ठान और बुद्धिजीवी वर्ग इनमें से नीतियाँ बनाते हैं। नीतियाँ योजनाओं में परिवर्तित होती हैं। योजनायें परियोजनाओं का स्वरूप लेती हैं जिनसे आम जनमानस राज्य द्वारा स्थापित संस्थानों के माध्यम से लाभान्वित होता है। जनमानस का श्रम राष्ट्र निर्माण में योगदान देता है जिससे आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ होती है। क्रमानुसार इस व्यवस्था की परिणति ‘राष्ट्रीय हित’ के रूप में परिकल्पित होती है। दुर्भाग्यवश देश में शिक्षा व्यवस्था का नियंत्रण ऐसे हाथों में रहा जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी विषयों को विमर्श के सबसे न्यूनतम स्तर पर रखा।
अब राष्ट्रीय शक्ति की परिभाषा भी देख लें। किसी देश की शक्ति की आरंभिक परिभाषा इस प्रकार दी जाती थी कि ‘शक्ति वह क्षमता है जो किसी दूसरे देश को वह करने पर बाध्य कर दे जो अन्यथा सम्भव नहीं होता।’ आज के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय शक्ति किसी राष्ट्र की वह क्षमता है जिससे वह राष्ट्र अपने सभी संसाधनों का उपयोग राष्ट्रीय हित के लक्ष्यों को साधने में करता है। फाउंडेशन फॉर नेशनल सिक्यूरिटी रिसर्च (FNSR) के अनुसार वैश्विक राष्ट्रीय शक्ति सूचकांक तालिका में भारत 8वें स्थान पर है। विश्व में भारत का सैन्य क्षमता सूचकांक 57.8 है। ये आँकड़े सन् 2012 के हैं और इनकी गणना भारत के थिंक टैंक FNSR ने की है अर्थात् राष्ट्रीय शक्ति केवल एक कल्पना मात्र नहीं अपितु गणनात्मक परिमाण है।
यहाँ राष्ट्रीय सुरक्षा की परिभाषा का अवलोकन आवश्यक है। राष्ट्रीय रक्षा महाविद्यालय (National Defense College) के अनुसार किसी राष्ट्र की राष्ट्रीय सुरक्षा उसके राजनैतिक लचीलेपन एवं परिपक्वता, मानव संसाधन, आर्थिक ढाँचे एवं क्षमता, तकनीकी क्षमता, औद्योगिक आधार एवं संसाधनों की उपलब्धता, तथा अंत में सैन्य शक्ति के समुचित व आक्रामक सम्मिश्रण से प्रवाहित होती है। सशस्त्र सेनाओं के संयुक्त सैन्य सिद्धांत-2017 के अनुसार राष्ट्रीय हित की सुरक्षा ही राष्ट्रीय सुरक्षा है। प्रश्न है कि क्या भारत ने अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए समुचित प्रयास किये हैं?
अपारंपरिक अथवा छद्म युद्ध: एक चुनौती
स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरांत भारत ने दो परम्परागत युद्ध (1965, 1971) लड़े हैं। सामरिक विश्लेषक सन् ’47, ’62 और 1999 की लड़ाइयों को पूर्ण पारम्परिक युद्ध नहीं मानते। पाकिस्तान द्वारा थोपा गया छद्म युद्ध अपरम्परागत युद्ध की श्रेणी में आता है। ऐसे युद्ध पारंपरिक वैचारिक अस्त्रों से नहीं लड़े जा सकते। सामरिक विषयों के विद्वान डॉ भरत कर्नाड गांधी और बुद्ध दोनों के वैचारिक निष्कर्षों को निरस्त करते हैं। उनके अनुसार ऋग्वेद में वर्णित शत्रु का समूल नाश करने का उल्लेख ‘विजिगीषु’ अर्थात् विजय प्राप्ति की इच्छा रखने वाला का पर्याय है। कौटल्य के अर्थशास्त्र में भी दण्ड-संहिता के तत्व निहित हैं।
जिहादी आतंकवाद भी अपारंपरिक युद्ध है। सैनिकों के शीश काट लेना व उनके शवों को क्षत विक्षत कर देना राक्षसी प्रवृत्ति का द्योतक है। आज के समय में दण्डात्मक कार्यवाही का सबसे कारगर तरीका है ‘स्पेशल फ़ोर्स’ की क्षमता का उपयोग। भरत कर्नाड लिखते हैं कि यदि भारत को अपने दूरगामी सामरिक हित साधने हैं और दक्षिण एशिया क्षेत्र में अपनी सीमाओं के पार दूरवर्ती परिधि में सुरक्षा के मानक स्थापित करने हैं तो हमारे पास तीन मूलभूत क्षमताओं का होना अनिवार्य है: आणविक आयुध सम्पन्न अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र (इंटर कॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल), नेटवर्क-केंद्रित विद्युत-चुम्बकीय युद्धक प्रणाली तथा सुगठित सर्व साधन युक्त स्पेशल फ़ोर्स कमान। इस दृष्टि से प्रथम क्षमता आणविक शक्ति के रूप में हमारे पास है किंतु कार्यकारी तंत्र की उदासीनता के कारण यह शक्ति निस्तेज होती जा रही है।
आणविक अस्त्र मूलतः रणनीतिक हथियार हैं किंतु वे अपारंपरिक युद्ध की नीति निर्धारण में बाधक भी नहीं हैं। सूक्ष्म विश्लेषण किया जाये तो आणविक अस्त्र राष्ट्रीय चेतना को दीर्घकालिक सामरिक आस्था में परिवर्तित करने के उपकरण हैं।
मेजर जनरल गगनदीप बक्शी ने अपनी पुस्तक में महाभारत काल में ‘अप्रक्ष्य’ युद्धक रणनीति का उल्लेख किया है जो परम्परागत युद्ध कौशल से अधिक उन्नत और कारगर है। आज इसे कॉवर्ट ऑपरेशन कहा जाता है। ज्ञातव्य है कि भारत एकमात्र अणुशक्ति सम्पन्न देश है जो विगत सात दशकों से अपनी धरती पर अपारंपरिक युद्ध लड़ रहा है जिसमें निजी राष्ट्रीय सम्पदा की निरन्तर अपूर्णीय क्षति हो रही है। आज जॉइंट चीफ़ ऑफ़ स्टाफ के गठन के साथ ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं की संयुक्त स्पेशल फ़ोर्स कमान बनाने की चर्चा हो रही है ताकि पाकिस्तान पर की गयी कथित ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को नियमित दण्डात्मक कार्यवाही का विस्तृत स्वरूप दिया जा सके। रक्षा प्रणाली सुधार समिति- नरेश चन्द्रा टास्क फ़ोर्स- ने संयुक्त स्पेशल ऑपरेशन कमान का गठन करने का सुझाव दिया था।
भविष्य के युद्ध जटिल और बहुत हद तक ग़ैर परम्परागत रणनीति से लड़े जायेंगे जिनमें कुछ विशेष लक्षित उद्देश्यों की पूर्ति स्पेशल फ़ोर्स द्वारा ही सम्भव हो सकेगी। भारतीय सेना की स्पेशल फ़ोर्स का गौरवशाली इतिहास रहा है परन्तु राजनैतिक नेतृत्व ने इस विशेष सैन्यबल का अब तक समुचित उपयोग नहीं किया है। इस विषय पर विस्तार से लेख के अगले अंक में चर्चा करेंगे।
सन्दर्भ:
- राम की शक्ति पूजा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
- The making of the Indian Atomic Bomb by Itty Abraham
- Nucleus and Nation by Robert Anderson
- India’s National Security: A Reader edited by Kanti Bajpai and Harsh V Pant
- Nuclear Weapons and Indian Security by Bharat Karnad
- Special Forces: Doctrine, Structures and Employment across the Spectrum of Conflict in the Indian context edited by Lt General Vijay Oberoi
- India’s National Security Annual Review 2012 edited by Satish Kumar (Published by FNSR New Delhi)
- Arming without Aiming: India’s Military Modernization by Stephen Cohen and Sunil Dasgupta
- The Indian Art of War by Major General G D Bakshi
- Article by Lt General Prakash Katoch, Lt General Hardev Singh Lidder and Saikat Datta
https://scroll.in/article/816958/crossing-the-lines-uri-is-a-reminder-that-proxy-wars-cannot-be-fought-the-conventional-way