अल्पवयस्क थे तो विज्ञान की पुस्तक में पढ़ते थे ‘विज्ञान आओ करके सीखें’, क्या भाषा ऐसे नहीं सीखी जा सकती? अवश्य सीखी जा सकती है, संस्कृत आओ करके सीखें।
पुराकाल (तात्पर्य टीवी आने से पहले का युग) में संस्कृत सीखने के निमित्त द्विजों, आश्रमों, पुरोहितों या पारम्परिक व्यवस्था से पढ़े जनों से ज्ञान ले लिया जाता था। तब बहुधा विद्यालयों में संस्कृत शिक्षक संस्कृत बोलने और ज्ञान में आज के शिक्षकों से अनेक कारणों से आगे थे। पारम्परिक रूप से शिक्षित लोग भी बहुलता से होते थे, जिनमें संस्कृत का अभिज्ञान रहता ही था। संस्कृतज्ञ जनों की संख्या भी अधिक थी और हर वीथि मोहल्ले में, मंदिर में, आश्रम में ऐसे जन प्रायः उपलब्ध थे। यहाँ संस्कृतज्ञ से मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि सभी व्याकरणाचार्य या विद्यावारिधि थे। हिन्दी भाषा की स्थिति अपेक्षाकृत ठीक थी और प्रायः संस्कृत शब्द प्रयोग में थे जिसके कारण प्रायः जनमानस संस्कृत के निकट था।
टीवी/ फोन/ केबल के पश्चात वातावरण में शीघ्रता से परिवर्तन हुआ और अन्यान्य कारणों से भाषाई परिवर्तन हुए। सामान्य जन्य संस्कृत से दूर होता चला गया। जो भी विशेषताएं टीवी से पहले के युग में संस्कृत के लिए थीं, वे विरलतर होती चलीं गयीं और जनसामान्य में संस्कृत सीखने की प्रवृत्ति एवं आवश्यकता नीचे की ओर ही जाने लगीं। सेकुलरिज्म नामी रुग्णता ने इसे कोढ़ में खाज बना दिया और लोग संस्कृत के विरुद्ध भी होने लगे।
पिछले कुछ समय से संस्कृत सीखने की ललक बढ़ती दिख रही है जिसके अनेक कारण हैं। एक तो कुछ संस्कृतज्ञ जिन्हें जनसामान्य में विशेष महत्व नहीं मिलता (क्योंकि सामान्य जन संस्कृत को ही महत्त्व नहीं दे रहा था) था, वे स्वांतःसुखाय और परोपकारार्थ शनैः शनैः सोशल मीडिया, इण्टरनेट पर सामग्री बनाते रहे, संस्कृत की पुस्तकें भी सर्वसुलभ होने लगीं। दूसरे कुछ विद्वज्जनों ने संस्कृत सेवा करते हुए विभिन्न प्रकार के ऐप्प, वेबसाइट और यूट्यूब चैनल इत्यादि बना दिए इससे सोशल मीडिया और घर-घर पहुँचे सूचना प्रवाह के साथ लोगों ने हाथों-हाथ ले लिया। यद्यपि अभी भी गम्भीर अध्येताओं का अभाव है, पर कुछ तो परिवर्तन अवश्य हुआ है।
एक इच्छुक व्यक्ति जो संस्कृत जानना और समझना चाहता है वह क्या करे, करे कैसे?
इण्टरनेट या अन्तर्जाल सूचना का समुद्र है, अनुक्रम या सोपानिकी बहुधा ओझल रहती है तो अध्येता संस्कृत सीखने के अनेक माध्यमों, पुस्तकों, वेबसाइट के मध्य खो सा जाता है और इतस्ततः भ्रमण करता हुआ अपनी जिज्ञासा या इच्छा को दबा देता है या विलीन ही कर देता है। यद्यपि संस्कृत विद्यालय, आश्रम, विश्वविद्यालय आज भी हैं और सभी स्थानों पर संस्कृत विभाग भी हैं, पर पारम्परिक संस्कृतज्ञ एवं संस्कृत विद्यालय के अतिरिक्त संस्कृत सम्भाषण करते हुए शिक्षक नहीं मिलते। अध्येता अधिकतर अन्य व्यवसायों में या विषय में लगे होते हैं और विद्यालय-विश्वविद्यालय में प्रवेश पाकर इसे नहीं सीख पाते।
किसी भी कारण से और किसी भी कार्य के लिए संस्कृत सीखने के लिए मुझे जो ठीक लगा, वह मैं अपनी मति द्वारा प्रकट करता हूँ जिससे कि जिज्ञासा न मरे, आनन्द बढ़े और ज्ञान भी।
इसके लिए नीचे दिए गए क्रम में संसाधनों का प्रयोग करें –
१. अब तो सीबीएसई आंग्लभाषिक विद्यालयों की छोटे-छोटे नगरों में भी बहुलता है परन्तु पहले ऐसा नहीं था और हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले विद्यार्थी अपनी अंग्रेजी सुधारने के लिए अंग्रेजी समाचारपत्र पढ़ते थे। उसी प्रकार संस्कृत समाचार-पत्र या सरल संस्कृत की पत्रिकाएं संस्कृत सुधरने में बहुत योगदान दे सकती हैं, गीता साधक सञ्जीवनी भी वरदान है यदि उधर किञ्चित भी झुकाव हो तो। कुछ विकल्प इस प्रकार हैं – सम्भाषण सन्देश पत्रिका, विश्वस्यवृत्तान्तं समाचारपत्र, सुधर्मा समाचारपत्र इत्यादि। ये सभी ऑनलाइन उपलब्ध हैं या वास्तविक प्रतियाँ भी अत्यल्प शुल्क में प्राप्त की जा सकती हैं। इससे इन प्रकाशनों को तो बल मिलेगा ही, हमारी भाषिक योग्यता भी बढ़ेगी। दैनिक कार्यक्रम में इन्हें सम्मिलित करें और बस पढ़ें, न समझ में आये तब भी। शनैः शनैः संस्कृत भाषा की समझ बढ़ने लगेगी।
२. संस्कृत भारती द्वारा बनाये गए संस्कृत सम्भाषण के पाठ्यक्रम विशिष्ट हैं और ये रैपिडेक्स के अनुकरण में बनाये गए हैं। प्रारम्भ ठीक वैसे ही है जिससे कोई भी विद्यार्थी पहले कुछ बोल कर अपने आत्मविश्वास को पाए और तत्पश्चात आगे बढ़े। इनमें व्याकरण को संस्कृत भाषा सीखने की पहली सीढ़ी नहीं बनाया गया है, अर्थात अनजाने में विद्यार्थी संस्कृत व्याकरण भी सीख रहा है परन्तु उसे अइउण, ऋलृक ,एओङ, ऐऔच के चक्कर में अपनी रुचि को खो देने का भय नहीं रहता। आगे जबतक विद्यार्थी सम्यक समझ और आत्मविश्वास विकसित नहीं कर लेता है तब तक के लिए व्याकरण के सूत्रों को छोड़ देते हैं। इसके लिए दो माध्यम हैं –
(क) राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (अधुना केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय) से प्रकाशित प्रथमा से लेकर पञ्चमी दीक्षा की संस्कृतस्वाध्याय शृङ्खला
(ख) यहीं से उपलब्ध यूट्यूब वीडियो की शृङ्खला जो इसी प्रकाशित शिक्षण पद्धति पर आधारित है।
मात्र इन दोनों संसाधनों को यदि आप पकड़ लें और ३ माह तक नियमित रहें तो कोई कारण नहीं है कि आप संस्कृत समझ, लिख या बोल न पाएं। हाँ, एक अवस्थापना है कि आपके निकट वातावरण हो, यथा आप कहीं लिखते हों, आप किसी से वार्तालाप करते हों अर्थात जो सीख रहे हैं उसका प्रयोग कर सकें। राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के सभी परिसरों में मैंने देखा है कि संस्कृत सम्भाषण बहुत ही सामान्य है।
इसके उपरांत आते हैं गंभीर संस्कृत या इसके साहित्य सीखने पर तो इतना सीख चुकने के उपरान्त आप अपनी रुचि के अनुसार संस्कृत भाषा ही नहीं, संस्कृत में लिखे उपनिषद्, वेद, रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि को बहुत शीघ्रता से नहीं तो धीरे-धीरे पढ़ ही पायेंगे। अतः ऐसी पुस्तकें पढ़ें जिनमें संस्कृत श्लोकादिक के साथ उनके संस्कृत में अनुवाद या हिन्दी में शब्दानुवाद दिए हों। व्याख्या, टीका और शब्दार्थ में भेद को समझें, जब आप ‘श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप’ पढ़ रहे होते हैं तो गीता नहीं, वरन श्रील प्रभुपाद द्वारा की गई व्याख्या पढ़ रहे होते हैं जो उनके विचार हैं। संस्कृत के स्वयं के शब्दज्ञान से आप अपने धार्मिक, साहित्यिक, विज्ञान विषयक ग्रन्थों को उन्हीं की मूल-भाषा में समझ पाएंगे। स्मरण रहे कि रामायण इत्यादि के शब्दप्रयोग व उनके चमत्कार संस्कृत में जो अलौकिक आनन्द देते हैं, वह आनन्द हिन्दी या आङ्ग्ल भाषानुवाद में हो ही नहीं सकता।
यहाँ तक जो लिखा, वह संस्कृत को प्रायोगिक रूप से कैसे सीखें, यह था।
अब समझते हैं कि पुराकाल में संस्कृत कैसे सीखते थे और वह तब उपयुक्त मार्ग कैसे था और अब क्यों नहीं है।
भारतीय विद्याओं को पढ़ाने की पद्धति पहले विद्या को कण्ठ कर लेने की और तत्पश्चात वय और समझ के साथ उस विद्या पर चिन्तन-मनन-जुगाली करने की रही है। एक उदाहरण लीजिये। किसी नैष्ठिक आश्रम में एक विद्यार्थी अल्पवयस्क ही आचार्य के निकट शिक्षार्थ आता है। आचार्य वेद, वेदाङ्ग, व्याकरण इत्यादि में से शीघ्रबोध जैसे कुछ छोटे सरल पुस्तक छात्र को रटा देता है (कण्ठस्थ)। इसी के साथ आश्रम में अन्य अनेक स्तरों के विद्यार्थी होंगे, अनेक आचार्य वहाँ आते-जाते हैं। अत:, परस्पर विचार-विनिमय होता है। इससे उस अल्पवयस्क विद्यार्थी को अपने कण्ठस्थ ज्ञान की जुगाली का पर्याप्त अवसर मिलता है। यहाँ मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि आचार्य मात्र रटाता है, नहीं, अपितु वय और समझ के अनुसार समझाता है और शेष को रटाता भी है जो आगे के विद्याज्ञान के लिए सोपान और जुगाली के लिए अधपचा भोजन बनता है। इससे प्रत्येक विद्यार्थी भले ही आगे विद्वान न बने, तब भी उसे इतना ज्ञान हो जाता है कि वह जीवन-यापन कर सके, और इस पद्धति से विद्वान बनने की प्रक्रिया पर भी कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है।
अधुना व्यवस्था ऐसी नहीं है, रटने और कण्ठस्थ करने में ध्यान का होना बहुत आवश्यक है परन्तु आज सामान्य शिक्षु के साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि वह अन्यान्य गतिविधियों में लगा है और एक गतिविधि की भाँति संस्कृत और शास्त्र को सीख रहा है। जब तक वह संस्कृत नहीं सीखता उसे धार्मिक-साहित्यिक-गणितीय-वैज्ञानिक शास्त्रों में से कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। ऐसे संस्कृत सीखने वालों के लिए ऊपर दी गई पद्धति काम नहीं करेगी अतः रैपिडेक्स की भाँति थोड़ा पढ़ाना और उसका पर्याप्त अभ्यास बहुत ही कारगर है। इससे शीघ्र सीख लेने का आत्मविश्वास आता है और पुस्तक से शब्दानुशासन (जो सिद्धान्त अधिक है, अभ्यास अल्प) सीखने के भय को न्यून कर देता है। हाँ, आगे वह संस्कृत की और तकनीकी दक्षता सरलता से प्राप्त कर सकता है। अपनी मातृभाषा को बोलने वाले बच्चे भी उन भाषाओं में आगे जाकर दक्षता प्राप्त करते हैं जबकि उन भाषाओं को बोलना-समझना वे पहले से ही जानते हैं।
Sanskrit in North India is taught backwards: grammar first and immersion later.
Ecological psychology teaches that cognition is not a response to rule-based processing.
James J. Gibson: Ask not what’s inside your head, but what your head’s inside of.
— Subhash Kak (@subhash_kak) May 11, 2020
इसी को सम्भवतया आचार्य काक कहते हैं,”पारिस्थितिक मनोविज्ञान सिखाता है कि अनुभूति नियम-आधारित प्रसंस्करण की प्रतिक्रिया नहीं है।”
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