राव गारु, नमस्कारम!
15 अगस्त सन् 2009 जब मैंने गिरिजेश राव को पहली ईमेल लिखी थी तो उसका आरम्भ इन्हीं तीन शब्दों से हुआ था। देवकी की पीड़ा, और बाऊ के देश-काल के अलावा भी ऐसा बहुत कुछ था “एक आलसी का चिट्ठा” में जिससे मेरे जैसा हिन्दी-पट्टी से पूर्णतया विरक्त प्रवासी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका और थोड़ा सोच-विचार कर इस हिन्दी जानने वाले बुज़ुर्ग आन्ध्र को ईमेल लिख ही दी। आज जब अभिलेख के लिये यह सब याद कर रहा हूँ तो आँखें सजल हैं क्योंकि कभी यह विचारा भी नहीं था कि गिरिजेश के बारे में यह आलेख इस स्थिति में लिखना पड़ेगा।
गिरिजेश से मैं पहली बार उनके ब्लॉग पर मिला। वही उनकी आरम्भिक ऑनलाइन पहचान और चिरस्थायी मैत्री का सूत्र था। गिरिजेश एक नागरिक और एक व्यक्ति के रूप में अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग व्यक्ति थे। उनके ब्लॉग की पहली पोस्ट (गुरुवार, 13 नवंबर 2008) पर ही अपने परिवेश की वनस्पतियों से बढ़ते अपरिचय की चिन्ता है। वनस्पति उन्हें प्रिय रहीं। उस पोस्ट के अन्त में लिखा था —
माँ से कहकर दुआरे एक शमी का पौधा लगवा दिया है। माँ रोज़ उसके नीचे दिया बाती करती है… नाना का घर खण्डहर हो रहा है तो क्या हुआ… दुआरे वह फूल रहा है… बौराये फूलों की गन्ध नथुनों में भर रही है… एसी कमरे में बैठा छलछलाए मन से सोचता हूँ रिटायर होने तक शमी कुर्सी लगाकर छाँव में बैठने लायक हो जाएगा…
उस पोस्ट पर कुछ वर्ष बाद लिखी मेरी टिप्पणी में अपने रिटायरमेंट के पुराने सपने का सन्दर्भ याद आया था —
किशोरावस्था में अपने भी बड़े सपने थे, लम्बी सूची थी रिटायरमेण्ट के बाद करने वाले कामों की, इस बुढापे में समझ आ गयी है कबीर बाबा की बात “पल में बहुरि होयेगी …”
तब किसे पता था कि रिटायरमेंट कितनी दूर है और भंगुर जीवन किस प्रकार धोखा देने वाला था। उसी पोस्ट पर एक बेनामी टिप्पणी (मुझे पता है किस सहृदय सखी की है) गिरिजेश के व्यक्तित्व के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बिंदु पर प्रकाश डालती है —
आज आपके अर्काइव से पुराने पोस्ट खोलने लगा हूँ — अजीब सा लग रहा है – कि कभी आपने भी पहली पोस्ट लिखी थी।
कुछ वैसा जैसे एक बार मेरी माँ ने कहा कि “जब हम छोटे थे तो …..” – तो मैंने कहा: “आप छोटे भी थे?” – मेरे बाल मन को यह बात ही समझ नहीं आ रही थी कि माँ भी कभी छोटी रही हो सकती हैं 🙂 – कुछ वैसे ही – आपका यह कहना कि “चलो – एक पढने वाला मिला” बड़ा ही अजीब सा लग रहा है सच में ….”
अभी सोच रहा हूँ कि गिरिजेश के साथ हुए पहले संवाद को मात्र 11 वर्ष बीते हैं लेकिन ऐसा लगता है जैसे हम लोग एक दूसरे को सदा-सर्वदा से जानते हों। कितनी वार्ताएँ, कितने अनुसन्धान पुस्तक-दान और न जाने कितनी ही टिप्पणियों और ईमेल का भण्डार बना है इन 11 वर्षों में। जब मैंने भगत सिंह के नाम से प्रचारित किये जा रहे पत्र “मैं नास्तिक क्यों हूँ?” की जानकारी ढूंढनी शुरू की तो सबसे पहली पुस्तक “शहीदेआज़म की जेल नोटबुक” भारत से आयी जिसे गिरिजेश ने भेजा था। मेरे अलावा जाने कितने मित्र हैं जिनके पास गिरिजेश का भेजा हुआ कोई न कोई उपहार मिल जायेगा क्योंकि उदारता के मामले में गिरिजेश की ऊँचाई तक कम लोग ही पहुँचेंगे।
गिरिजेश की चिन्ताओं में एक बड़ी चिन्ता हमारी आगामी पीढ़ियों की चिन्ता थी और यह अपने बच्चों तक सीमित नहीं थी। गिरिजेश आगामी पीढ़ियों के लिये पहले से अधिक सुघड़ संसार छोड़ने के पक्षधर थे और इसके लिये अपनी पूरी क्षमता से लगे रहे और विनम्रता इतनी कि कइयों पर अकेले भारी पड़ने वाले व्यक्ति, अनेक पत्थरों को छूकर स्वर्ण करने वाले पारस के ब्लॉग का नाम “एक आलसी का चिट्ठा” है क्योंकि गिरिजेश एक जीवन में कई जीवनों का कार्य पूर्ण करना चाहते थे।
यह सोचकर मुझे आश्चर्य होता है कि मैंने गिरिजेश को कभी नहीं देखा। हमने शायद कभी विडियो चैट भी नहीं की। सच यह है कि मुझे बार-बार ऐसा लग रहा है जैसे मैं डेमेंशिया की स्थिति में हूँ और गिरिजेश से कई बार हुई भेंटों की बात भूल गया हूँ। लेकिन मुझे उनके अनुज से मिलना अच्छी तरह याद है। वही भलमनसाहत, वही विनम्रता, और लगभग वही नैन-नक़्श। दिल्ली में हुई उस भेंट को भी लम्बा समय बीत चुका है लेकिन उस यात्रा की स्मृति अब तक ताज़ी है।
प्रशंसा के मामले में मैं बहुत कंजूस और बेशऊर हूँ लेकिन मेरे मन में गिरिजेश का सदा विशेष स्थान रहा है। उनकी लगन और शोधवृत्ति के बिना उनका उल्लेख अधूरा है। नयी भाषाएँ, और लिपियाँ सीखना हो या सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय का अध्ययन करना, मैंने अपने जीवन में गिरिजेश जैसा सक्षम व्यक्ति नहीं देखा। पिछले वाक्य में वाङ्मय लिखते हुए याद आया कि यह एक शब्द हिन्दी में सबसे अधिक ग़लत लिखे जाने वाले शब्दों में से एक है। इस एक शब्द पर ही गिरिजेश ने न जाने कितनों को टोका होगा। वर्तनी की शुद्धता की बात चलने पर समस्त हिन्दी ब्लॉगजगत के सामने यदि एक नाम आयेगा तो वह गिरिजेश के सिवाय कोई और हो ही नहीं सकता।
“अहिंसा परमो धर्म:” जैसे आदर्श वाक्य में आँख मूंदकर “धर्म हिंसा तथैव च” का जेहादी पुछल्ला लगाने वाले भोले-भाले परन्तु उग्र छद्मभक्तों को वास्तविकता बताने की बात हो या हर बात में भारतीयता या हिन्दुत्व के अपमान करने का बहाना ढूंढने वालों को शीशा दिखाने की, गिरिजेश जैसा उत्साह पाना दुर्लभ है। मघा के बारे में तो बहुत से लोग जानते हैं लेकिन उससे बहुत पहले गिरिजेश ने निरुक्त पर कार्य आरम्भ कर दिया था।
गिरिजेश के अप्रत्याशित प्रयाण से हमारे कई विमर्श अधूरे छूट गये जो अब कभी भी पूरे नहीं हो पायेंगे। अपनी एक पङ्क्ति पर गिरिजेश की टिप्पणी याद आती है —
“सजी चिता तपती प्रेमाग्नि जीवन अपना यूँ खपना था”
प्रेम, जीवन और मृत्यु – बस खप जाना और फिर चिता तपना तपाना तापना? भैया क्या कह दिया आप ने! सोचे ही जा रहा हूँ…
पिछले कुछ वर्षों में गिरिजेश और मैं, हम दोनों ही अपने-अपने कार्यों में कुछ इस प्रकार अति-व्यस्त हो गये थे कि कभी नियमित रही हमारी वार्ताएँ पहले जैसी निरन्तर नहीं रही थीं। फिर भी हमारा साहित्यिक सहयोग बना रहा था। गिरिजेश ने मघा में लिखने के अनेक अवसर मुझे प्रदान किये थे और वे खुद भी सेतु में प्रकाशित होते रहे हैं।
गिरिजेश आज दैहिक रूप में हमारे बीच भले न हों वे और उनकी स्मृतियाँ हमारे हृदय में हैं और सदा रहेंगी।
— अनुराग शर्मा, पिट्सबर्ग