सप्ता दियो सुहाग ! प्रतिभा सक्सेना का मघा में पहला लेख है।
हिन्दी भाषा में परम्परा से चले आते कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका समय के प्रवाह एवं परिस्थितियों के चक्र में पड़ कर बहुत अर्थोपकर्ष हो चुका है। सामाजिक परिवर्तनों तथा सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारण शब्द भी अपनी व्यञ्जना शक्ति और प्रभावशीलता खो कर सामान्य और रूढ़ हो जाते हैं।
ऐसा ही एक प्रचलित शब्द है – सुहाग, जिसका तात्पर्य अहिवात या विधवा न होना, अर्थात पति का जीवित होना, यही सुहाग के लिये पर्याप्त है। फिर एक नई व्यञ्जना सामने आई – जिसको पिया चाहे वही सुहागिन।
मूल रूप में ‘सुहाग’ एक शब्द-मात्र नहीं, व्यापक अर्थ से परिपूर्ण एक व्यञ्जक पद है, एक सांस्कृतिक अवधारणा है जिसमें नारी के सर्वाङ्ग-संपूर्ण जीवन की परिकल्पना समाई है। सफल-सुखी नारी-जीवन का बोधक है यह छोटा-सा शब्द।
सुहाग की परिभाषा कर उसे किसी सीमा में बाँधना संभव नहीं, पीढ़ियों की मान्यताओं और आचार-व्यवहार से पोषित धारणायें लोकमन पर गहरी पकड़ रखती हैं तथा सदियों के संस्कार-सञ्चित ऐसे शब्दों की अनूभूति-प्रवणता मंद नहीं होती (व्यर्थ के बौद्धिक व्यायाम से उसमें अर्थ-अनर्थ की संभावना कोई कर ले तो बात दूसरी है)। इस प्रकार के शब्दों का किसी दूसरी भाषा में उचित अनुवाद सम्भव नहीं होता, क्योंकि किसी भाषा के शब्द, जिन मूल्य-मानों को वहन करते हैं वे उसकी समाजिक-सांस्कृतिक धरोहर होते हैं जिन्हें दूसरी भाषायें स्वाभाविक रूप में ग्रहण और व्यक्त नहीं कर पाती।
इस शब्द का सही अर्थ समझने के लिये एक लोक-प्रचलित पद्यमय कथन ‘आरी-बारी’ दृष्टव्य है, जो स्त्रियाँ अपनी व्रत-पूजाओं में अक्षत-पुष्प हाथ में ले कर श्रद्धापूर्वक कहती-सुनती हैं। सुहाग की कामना करती कुमारी कन्या, अपने भावी जीवन की परिकल्पना में देवी से कृपा-याचना करती है –
आरी-बारी –
‘ आरी-बारी, सोने की दिवारी,
तहाँ बैठी बिटिया कान-कुँवारी।
का धावै, का मनावै ?
‘सप्ता धावै, सप्ता मनावै।
सप्ता धाये का फल पावै ?
पलका पूत, सेज भतार,
अमिया तर मइको, महुआ तर ससुरो।
डुलियन आवैं पलकियन जायँ।
भइया सँग आवें, सइयाँ सँग जायँ।
चटका चौरो, माँग बिजौरो,
गौरा ईश्वर खेलैं सार।
बहुयें-बिटियाँ माँगें सुहाग-
सात देउर दौरानी, सात भैया भौजाई,
पाँव भर बिछिया, माँग भर सिंदुरा,
पलना पूत, सेज भतार,
कजरौटा सी बिटियां सिंधौरा सी बहुरियाँ,
फल से पूत, नरियर से दमाद।
गइयन की राँभन, घोड़न की हिनहिन।
देहरी भरी पनहियाँ, कोने भर लठियाँ,
अरगनी लँगुटियाँ
चेरी को चरकन,
बहू को ठनगन
बाँदी की बरबराट, काँसे की झरझराट,
टारो डेली, बाढ़ो बेली,
वासदेव की बड़ी महतारी।
जनम-जनम जनि करो अकेली।’
मैं जानी बिटिया बारी-भोरी,
चन मँगिहै, चबेना मँगिहै,
बेटी माँगो कुल को राज।
पायो भाग,
सप्ता# दियो सुहाग !
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(#सप्तमातृका)
(#सप्तमातृका)
सांसारिक जीवन में अपनी बहुमुखी भूमिका निबाहती, सुखी समृद्ध गार्हस्थ्य की धुरी के रूप में कल्याणमयी नारी का स्वरूप ही सुहाग की मूल अवधारणा है।