सहज न समुझे कोय …(ललित निबंध)
शरवन के पार जा कर कैलास के एक समतल सी दिखती चट्टान पर नारद ने अपनी ढेंकी उतार दी।
नारद की यह ढेंकी भी एक विचित्र वाहन है। उसे न चारा चाहिये, न कोई ईंधन! चोरी का भी कोई डर नहीं। तो जब चाहे, जहाँ चाहे, उतार देते हैं और छोड़ कर चल देते हैं। तो चल दिये! नन्दी ने देखा, किन्तु उसे नारद को रोकने-टोकने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। नारद तो कभी भी, कहीं भी आते-जाते ही रहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, या शिव, किसी ने उनके आने पर कभी कोई आपत्ति नहीं जतायी थी तो नन्दी को क्या पड़ी थी व्यर्थ के बकझक की? अतः नारद बढ़ते गये।
कैलास के एक निभृत कोने में स्थित चिंतामणि द्वीप पर कल्पवृक्षों से परिवेष्टित मणि-मन्दिर में सेविकाओं की खर-भर मच गयी – नारद आये हैं!
महाकालि-महालक्ष्मि-महासरस्वति, त्रयी विग्रह परस्पर एक दूसरे को देख शंकितमना हो उठा। सबके मन में एक ही भाव उपजा – शुभ नहीं दिखता!
सर्वप्रथम सरस्वती की वैखरी फूटी,“पुत्र आया है देवियों! नारद वैसे नहीं हैं जैसी उनकी प्रसिद्धि है!”
लक्ष्मी से नहीं रहा गया,“जाने क्या दुःसंवाद लाये हैं नारद! नारायण ही कुशल करें!”
सरस्वती तिनक गयीं,“आने तो दीजिये! निश्चित ही नारद सुसंवाद ही लाये हैं।”
“आज तक नारद ने किसी को कोई सुसंवाद दिया भी है? नारद पीछे आते हैं, विपत्ति पहले आयी रहती है! इस समय उनका आना शुभ नहीं हुआ!”, लक्ष्मी को भीतर कुछ काँपता सा लगा जो जिह्वा पर आ ही गया।
त्रिपुरसुन्दरी स्वरूपा महाकालि रुद्राणी ने धैर्य बँधाया,”जो भी हो, नारद के स्वागत एवं सम्मान में कोई ऊना परिलक्षित नहीं होनी चाहिये देवियों! त्रिदेवों को यह अच्छा नहीं लगेगा! सेविकाओं! नारद को आने दो!”
“आने क्या दें देवि! वे द्वार पर ही हैं।”, सेविका ने उत्तर दिया।
“हे भगवान्! कहीं नारद ने कुछ सुन न लिया हो! अस्तु! भेजो!”
नारद ने कक्ष में प्रवेश किया,”नारायण! नारायण! प्रणाम माताओं! मेरा परम सौभाग्य है कि तीनों माताओं के दर्शन एकत्र ही हुए अन्यथा मैं तो सोच रहा था कि मुझे ब्रह्मलोक, कैलास तथा क्षीरसिन्धु तीनों स्थानों तक की यात्रा करनी पड़ेगी! मेरा बहुत सा समय तथा श्रम बच गया माताओं!”
“आओ नारद! आसन ग्रहण करो! ऐसा क्या विशेष कार्य आ पड़ा जो तुम्हें एक साथ ब्रह्मलोक, कैलास तथा क्षीरसागर की यात्रा करनी पड़ती?” सरस्वती के इस स्नेह-वाक्य में जो आशंका छिपी थी उसे लक्ष्मी एवं पार्वती ने भी अनुभव किया।
“आसन ग्रहण करने भर का समय नहीं है माताओं! किन्तु मुझे आश्चर्य है कि आज तीनों माताएं एक साथ यहाँ कर क्या रहीं हैं? यदि अनुचित न प्रतीत हो तो पुत्र यह जानने हेतु उत्कण्ठित है।”
“हम तीनों यहाँ त्रिदेवों की प्रतीक्षा कर रही हैं पुत्र! तुम आसन ग्रहण करो! त्रिदेव भी आते ही होंगे!”
“यही तो समस्या है माताओं! मुझे खेद के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि त्रिदेव अब कभी यहाँ नहीं आयेंगे!”
“क्या कहते हैं नारद जी?” लक्ष्मी के लाख प्रयत्नों के उपरान्त भी उनकी झुँझलाहट मुखर हो उठी,”स्पष्ट कहिये। कौन सा दुःसंवाद ले कर पधारे हैं आप? कहाँ हैं त्रिदेव? क्यों नहीं आयेंगे अब वे?”
“माताओं! मुझे यह तो ज्ञात नहीं कि यह सुसंवाद है या दुःसंवाद, किन्तु सत्य तो यह है कि इधर तो संसृति का सृजन, पालन तथा संहार, तीनों रुके पड़े हैं तथा उधर त्रिदेव महर्षि अत्रि के आश्रम में एक बकुल वृक्ष के नीचे तीन अबोध शिशुओं के रूप में तीन पालनों में झूलते हुए माता अनसूया के अगाध वात्सल्य का अबाध आस्वादन प्राप्त कर रहे हैं।
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“हो नहीं सकता है माताओं! ऐसा हो चुका है।”
तीनों देवियों की दृष्टियाँ परस्पर मिलीं और जा कर नारद पर स्थिर हो गयीं। शिवानी ने कहा,”नारद जी! अच्छा हो कि टुकड़ों में कहने के स्थान पर आप सारा वृत्तांत आद्यांत कह सुनायें। ऐसा कैसे हो गया? त्रिदेव शिशुओं के रूप में कैसे परिवर्तित हो गये?”
“माता अनसूया के योगबल तथा तपबल से माता! किन्तु क्या आप लोगों को वास्तव में कुछ भी ज्ञात नहीं? ऐसा होना तो नहीं चाहिए!”
“हमें क्या ज्ञात है और क्या नहीं इसकी चिंता छोड़ो नारद! तुम जिस अनर्थ की सूचना ले कर उपस्थित हुए हो उसका सविस्तार वर्णन प्रस्तुत करो!”, देवी सरस्वती की व्यग्रता चरम पर थी।
“नारायण! नारायण! माता! आपकी व्यग्रता से यह आभास होता है कि आप को प्रकरण का पूर्व-प्रकरण अवश्य ज्ञात है। किन्तु मुझे उससे क्या? जितना मुझे ज्ञात है वह मैं आप सभी को बता देता हूँ। हुआ यह माताओं! कि जाने त्रिदेवों को क्या सूझी थी जो वे भिक्षुक के छद्म-वेश में महर्षि अत्रि के आश्रम जा पधारे। जब त्रिदेव महर्षि अत्रि के आश्रम पहुँचे थे तब महर्षि आश्रम में नहीं थे। अतिथि-सत्कार का दायित्व माता अनसूया पर आ पड़ा तथा त्रिदेव भी स्वयं को अत्यंत क्षुधा–पीड़ित प्रदर्शित करते हुए माता अनसूया से आहार की याचना कर बैठे।”
“इसमें क्या विशेष है? त्रिदेव समय-समय पर ऐसी लीलाएं करते ही रहते हैं। क्या अनसूया ने उन्हें भोजन नहीं दिया?”
‘दिया न माते! अवश्य दिया! क्षुधा भर आहार दिया! किन्तु वह आहार त्रिदेवों हेतु जितना ही सुपाच्य है, आप तीनों सहित समस्त संसृति को उतना ही गरिष्ठ सिद्ध होने वाला है।”
“आप बात को उलझा क्यों रहे हैं नारद जी?”
“मैं बात को नहीं उलझा रहा हूँ माता! बात स्वयं ही इतनी उलझ चुकी है कि उसका कोई सिरा हाथ ही नहीं आ रहा! हुआ ऐसा कि त्रिदेवों ने सती के समक्ष आहार ग्रहण करने का एक पूर्वबंध रख दिया कि वे आहार तभी ग्रहण करेंगे जब सती अनसूया उन्हें नग्नावस्था में आहार प्रस्तुत करें।”
“अनसूया को सती न कहो नारद! अभी उसका सतीत्व प्रमाणित नहीं हुआ है!”, सरस्वती रोष में बोलीं।
“आह! अब समझा! तो सृष्टि पर आयी इस विपत्ति के मूल में आप तीनों मातायें ही हैं? यह उनके सतीत्व का नहीं तो और किसका प्रमाण है माताओं! कि जगत के कर्ता, भर्ता तथा हर्ता, तीनों माता अनसूया के ममता की डोर से बँधे पालने में झूल रहे हैं, उनके हाथों से अञ्जन-उबटन का आनंद ले रहे हैं, उनके आँचल तले पयपान कर रहे हैं तथा उनकी लोरियाँ सुन-सुन कर सो रहे हैं?”
“अच्छा अच्छा! आगे कहिये नारद जी! त्रिदेवों के उक्त आग्रह को अनसूया ने किस प्रकार पूर्ण किया?”, लक्ष्मी का चञ्चल मन व्याकुल हो रहा था।
“आगे कुछ कहना अभी शेष ही है माता? तीन अपरिचित भिक्षुकों का यह आग्रह अप्रत्याशित था, अतः माता ने इस विचित्र आग्रह का कारण जानने हेतु अपने योगबल का प्रयोग किया। क्षणार्द्ध में उन्हें ज्ञात हो गया कि उनके द्वार पर पधारे भिक्षुक सामान्य भिक्षुक नहीं, स्वयं ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश हैं। त्रिदेवों की लीला का भान होते ही एक लीला सती अनसूया ने भी रच दी। उन्होंने निकट ही धरे महर्षि के कमण्डल से थोड़ा सा जल ले कर उसमें अपने तपोबल की शक्ति सम्मिलित की तथा त्रिदेवों पर छिड़क दिया। उस अभिमंत्रित जल का स्पर्श होते ही त्रिदेव छः मास के अबोध शिशुओं में परिवर्तित हो गये। माता अनसूया ने उन्हें गोद में बिठाया तथा एकान्त कक्ष में नग्नावस्था में तीनों को अपना स्तनपान करा कर उनकी सबंध याचना पूर्ण कर दी।”
“धन्य! धन्य सती अनसूया!”, तीनों देवियों के मुख से एक साथ निकला।
“वे तो धन्य हैं माताओं! किन्तु आप लोग तो अब अपनी सोचिये! और इस सृष्टि की सोचिये! यदि त्रिदेव ऐसे ही अत्रि–आश्रम में बाल-क्रीड़ा करते रह गये तो यह संसार कैसे चलेगा?”
“किन्तु अनसूया को तो अब त्रिदेवों को उनके वास्तविक स्वरूप में परिवर्तित कर देना चाहिये!”
“चाहिये तो माताओं! किन्तु सती का ऐसा कोई चिकीर्षित प्रतीत तो नहीं होता! और हो भी क्यों? अत्रि एवं अनुसूया के कोई संतान नहीं थी। अब उन्हें एक साथ तीन–तीन पुत्रों का सुख प्राप्त हो गया है तथा पुत्र भी कैसे? स्वयं ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश! वे ऐसा स्वर्णिम अवसर अपने हाथ से क्यों जाने देंगी? नहीं माताओं! त्रिदेवों को अब अनसूया के पुत्र बन कर ही रहना होगा! विचित्र स्थिति है। यदि कहूँ कि प्रलय हो जायेगी तो यह भी नहीं कह सकता! क्योंकि प्रलय के देवता रुद्र तो अत्रि के आश्रम में अपना अंगूठा चूस रहे हैं! और प्रलय होगी कैसे नहीं जब सबका भरण-पोषण करने वाले विष्णु अपनी ही क्षुधा-पूर्ति हेतु माता अनसूया पर आश्रित हैं? सब कुछ रुका पड़ा है माताओं! सब कुछ!”
“अब क्या होगा नारद?”, सरस्वती का कण्ठ रुद्ध हो गया।
“मैं क्या जानूँ माता? मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा कि त्रिदेवों को यह लीला रचने की आवश्यकता क्यों पड़ी?”
“हमने उन्हें विवश किया था नारद! हम अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेना चाह रहे थे।”
“तो अब आप तीनों के सतीत्व की परीक्षा की घड़ी है माताओं! अतः उचित होगा कि आप तीनों महर्षि अत्रि के आश्रम की और प्रस्थान करें तथा देखें कि क्या हो सकता है और क्या किया जा सकता है। मेरे मतानुसार तो विलम्ब उचित नहीं होगा। और एक निवेदन है माताओं! आप लोग सती अनसूया के समक्ष विनम्र ही रहें तो उचित रहेगा क्योंकि त्रिदेवों को उनके वास्तविक स्वरुप में उनके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं ला सकता, स्वयं महर्षि अत्रि भी नहीं!”
“तो ऐसा ही हो नारद! चलो!”
“नारायण! नारायण! मैं चल कर क्या करूँगा माता? मेरी उपस्थिति तो कार्य साधक होने के स्थान पर उलटे बाधक हो सकती है क्योंकि मेरी उपस्थिति में आप लोग सहज वार्ता नहीं कर पायेंगी। और महर्षि अत्रि भी मेरी ही भाँति मेरे पिता के मानस-पुत्र हैं तो देवी अनसूया हुईं मेरी भ्रातृजाया! और इस समय उनके क्रोड़ में खेल रहे हैं उनके तीन लाल! वे तीनों हुए मेरे भ्रातृज! और आप तीनों उनकी… सारे सम्बंध ही उलटे – पुलटे हुए जा रहे हैं माताओं!”
“नारद जी!”
“नारायण! नारायण! आज्ञा दें माताओं!”
नारद की ढेंकी कैलास से उड़ी तो जाने किधर गयी, किन्तु तीनों देवियों के वाहन अवश्य अत्रि के आश्रम की ओर चले। हंसपगा सरस्वती का वाहन हंस अपने उड्डीन गति से चला। जाने क्या सोच कर लक्ष्मी जी ने उलूक के स्थान पर गरुड का प्रयोग उचित समझा और त्रिपुरसुन्दरी तो सर्ववाहनवाहना ही ठहरीं!
किन्तु अनसूया ने विनम्रतापूर्वक कह दिया,”देवियों! आप तीनों पधारीं, मेरा अहोभाग्य! परन्तु मेरे पति संन्यासी! मैं उनकी अर्द्धांगिनी! जब तक आपके पति शिशु हैं, मुझे कोई समस्या नहीं, उनका पालन मेरे दुग्ध से हो जायेगा। किन्तु उनके बड़े होने पर उनके योग्य इस आश्रम में क्या धरा है? अतः मुझे आपके पतियों को यहाँ रोक रखने का कोई प्रयोजन नहीं! आप लोग अपना – अपना पति पहचान लें और ले जाँय!”
तीनों देवियों ने देखा – तीन लघु दोलिकाओं में एक रंग, एक रूप, तीन दिव्य शिशु! इनमें कौन ब्रह्मा, कौन विष्णु, कौन रुद्र? कोई अंतर नहीं! सत्य कहा था नारद ने! उनके आने पर संकट घना हो जाता क्योंकि तीनों देवियों को अनसूया की बहुत मनुहार करनी पड़ी। नारद के समक्ष संभवतः वे उस स्तर तक जा कर मनुहार नहीं कर पातीं! अंततः, सती ने पुनः मंत्राभिषिक्त जल छिड़क कर त्रिदेवों को उनका मूल स्वरुप लौटाया तथा प्रतिदान में उन्हें मिला तीन पुत्रों का वरदान! एक पुत्र ब्रह्मा सा, एक विष्णु सा तथा एक रुद्र सा। चलते-चलते विष्णु ने अनसूया को यह भी वर दिया कि मेरे आशीर्वाद से उत्पन्न पुत्र में ब्रह्मदेव तथा शिव के गुण भी होंगे।
साक्षात सतोगुण स्वरूप ब्रह्मा के वर के प्रभाव से अत्रि के प्रथम पुत्र हुए चन्द्रदेव, रजस के प्रतिरूप विष्णु के वर के प्रभाव से उत्पन्न हुए दत्त तथा तमस के मूर्तिमान स्वरूप रुद्र के वर-प्रभाव से उत्पन्न हुए क्रोध के न भूतो-न भविष्यति उदाहरण क्रोध-भट्टारक दुर्वासा! सत, रज तथा तम के प्रतीक त्रिदेव धरा पर अपना एक–एक प्रतिरूप छोड़ कर अपनी-अपनी शक्तियों के साथ अपने–अपने धाम को पधारे।
सतोगुण के अंश चन्द्रदेव अपने समय के सर्वाधिक रूपवान पुरुष थे। सतोगुण का स्वरूप शान्त-स्निग्ध आकर्षण से युक्त होता ही है। किन्तु चन्द्रदेव ने अपने सतोगुण का जो परिचय इस विश्व को दिया वह स्वयं में एक विचित्र इतिहास है। एक-एक कर दक्ष की सताईस पुत्रियाँ व्याह लाये, रोहिणी के प्रति विशेष आसक्ति के फलस्वरूप क्षय-रोग का शाप भोगा, जैसे–तैसे उस शाप से मुक्त भी हुए तो बृहस्पति की पत्नी तारा पर आकृष्ट हो गये, आकृष्ट ही नहीं हुए, अपहृत कर ले गए तथा तारकामय की भूमिका रच डाली, बुध के पिता बने, अहल्या प्रकरण में भी लांछित हुए, येन केन प्रकारेण देव-मण्डल में भी सम्मिलित हुए, और ग्रह -मण्डल में भी!
तमस के अंश दुर्वासा अपने मूलभूत गुण तमस के साथ सदा न्याय करते रहे। वे आजीवन दुःवासा भी रहे, कहीं टिक कर रहें उनके स्वभाव में ही न था, दुःवासस् भी रहे, मोटा-झोटा पहने फक्कड़ यायावर, तथा दुःवाचा भी रहे, क्या पता कि कभी इनकी जिह्वा से कोई मधुर शब्द निकला भी था अथवा नहीं, और संभवतः दुःआशा भी रहे, कुछ भी खा कर पड़ रहने वाले या संभवतः कुछ भी खाने-पचाने वाले। इनकी कुख्याति तो अब तक इतनी है कि आज भी किञ्चित सा क्रोधी व्यक्ति भी दुर्वासा की सञ्ज्ञा प्राप्त कर लेता है, किन्तु दुर्वासा तो दुर्वासा ही थे। अपने इस एक दुर्गुण को अपनी तपश्चर्या के आभामण्डल में ढाँप कर उन्होंने ऋषि-पद प्राप्त किया। इन महाशय की तो स्वतंत्र जीवनी लिखी जानी चाहिये।
विष्णु के वर-स्वरूप, रजस के प्रतीक, महर्षि अत्रि तथा अनसूया के द्वितीय पुत्र दत्त, जो अपने पिता के नाम पर दत्तात्रेय कहलाये, वे अपने दोनों भ्राताओं से कुछ भिन्न थे। कहते हैं कि वे मद-कलश के साथ ही उत्पन्न हुए थे। ये दत्तात्रेय लोक में गुरु दत्त, गुरु दत्तात्रेय तथा भगवान् दत्तात्रेय के नाम से जाने गये तथा यही भगवान् दत्तात्रेय तन्त्र साधनाओं के सर्वाधिक गूढ़ एवं रहस्यमय मार्ग ‘अघोर मार्ग’ के प्रवर्तक आदिगुरु माने गये। सत्य है कि सभी तन्त्र-साधनाओं के प्रणेता आदि-शिव ही माने जाते हैं किन्तु लोक में अघोर–पद्धति के नाम से जानी जाने वाली विशिष्ट एवं रहस्यमयी साधना-पद्धति को प्रचलित करने वाले भगवान् दत्तात्रेय ही थे।
हमारा देश कहानियों का देश है तथा इस देश की अनगिन कथा-कहानियों में से एक, त्रिदेवों के शिशु-रूप में अनसूया का पयपान करने की यह कथा भी विस्मयकारी रूप से रोचक है। किन्तु यह कथा एक काल्पनिक कथ्य है, या कोई पौराणिक तथ्य है अथवा यह ऐतिहासिक सत्य है? मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह तीनों ही नहीं है। यह कथा तो ‘वह चितवनि औरे कछू’ जैसी कुछ है।
हमारा देश कहानियों का देश अवश्य है किन्तु हमारा देश मात्र कहानियों का ही देश नहीं है। जिस देश की धूलि का एक-एक कण चन्दन सा गंधमय एवं पवित्र हो वह मात्र कथा-कहानियों का देश हो भी कैसे सकता है? इस देश की माटी ने संसार को कण एवं क्षण की महत्ता का ज्ञान–विज्ञान ही नहीं सौंपा, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ज्ञान-यात्रा के द्वार ही नहीं उन्मुक्त किये, इसने पिण्ड की अंतर्यात्रा के भी अनेक मार्ग उद्घाटित किये तथा वेदों, श्रुतियों, ब्राह्मण-ग्रंथों, उपनिषदों आदि के दर्शन किये, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा तथा वेदान्त जैसे दर्शन दिये, निगमों के साथ ही तन्त्र तथा आगम जैसी साधना-पद्धतियाँ खोजीं, सूर्य तन्त्र, हेरम्ब तन्त्र, वैष्णव तन्त्र, शैव तन्त्र, शाक्त तन्त्र, समयाचार, कौलाचार, चीनाचार तथा अघोराचार आदि जाने कितने पथ खोजे, उन पथों से हो कर यात्रा की विधियाँ भी बताईं तथा उनके विधान भी निश्चित किये तथा यह सब इस इस विनम्रता तथा अकिंचनता के साथ किया, कि सब कुछ उसका कहा हुआ कह दिया जो समस्त सृष्टि का आदि-कारण तथा आदि-योनि है, विशेषतया तन्त्र के सिद्धांतों को, जिनके उद्घाटनकर्ता आदिशिव कहे गये।
तन्त्र निश्चित ही एक रहस्यमय विज्ञान है, मात्र अपने विधियों एवं विधानों की दृष्टि से ही नहीं, वरन् अपनी भाषा की दृष्टि से भी। और तन्त्र का अपना एक विशिष्ट दर्शन भी है जो अल्प रहस्यमय नहीं है। और इस रहस्यमयी भाषा तथा रहस्यमय दर्शन का कूट ‘अ’ से ले कर ‘ज्ञ’ तक की हमारी चिर-परिचित वर्णमाला में निहित है और साथ ही यह कूट निहित है कुछ प्रतीकों में भी जिनके रहस्य समझे तो जा सकते हैं किन्तु अविकल रूप से समझाये या बताये नहीं जा सकते। बहुधा तंत्र की भाषा अपने साथ तीन-तीन अर्थ लिये चलती है, कभी-कभी तो तीन से अधिक अर्थ भी! और ऐसा मात्र तन्त्र के ही साथ नहीं है, वेदों के साथ भी है। अल्पतम शब्दों में अधिक से अधिक कह देने की तन्त्र की शैली ने तन्त्र को संकेतों का शास्त्र बना दिया जो एक विवशता भी थी तथा यह आवश्यक भी था। आज का विज्ञान भी तत्वों को, पदार्थों को, अभिक्रियाओं को, स्थिरांकों को, कुछ विशिष्ट प्रतीक चिह्न प्रदान करता है। सरलतम उदाहरण के रूप में पाई का चिह्न π लिया जा सकता है जो दिखने में कुछ-कुछ देवनागरी वर्णमाला के ‘ग’ जैसा दिखता है। इसकी वर्तुलाकार डंडी वृत्त की परिधि का, सीधी डंडी व्यास का तथा शिरोरेखा जो इन दोनो वर्तुल एवं सीधी डण्डियों को मिलाती है वह इन दोनों के, परिधि तथा व्यास के, सम्बंध को दर्शाती है। गणित के सामान्य ज्ञाता को भी यह पाई का चिह्न तत्काल ही किसी वृत्त की परिधि तथा व्यास का सम्बन्ध सूचित कर देता है जिसे गणित न जानने वाला कदापि नहीं समझ सकता। तंत्र की भाषा भी आधुनिक गणित तथा विज्ञान की उस भाषा जैसी ही है जिसे स्पष्ट समझने हेतु उन संकेतों तथा उन प्रतीकों को समझना होगा जो उनका निहितार्थ है। तंत्र का एक शब्द ‘त्रि’ भी ऐसा ही प्रतीक-शब्द है। तन्त्र में ‘त्रि’ रज, सत तथा तम नामक तीन विशिष्ट गुणों का, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया का, जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्ति तीन अवस्थाओं का, स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण तीन देह का, वाचक है। स्वयं ॐ भी अ, उ तथा म, इन तीन वर्णों का एकीकृत स्वरुप-चित्र है जिसमें ‘अ’, ‘उ’ तथा ‘म’ क्रमशः त्रिगुणवाची हैं।
इस विशेष प्रतीकार्थ को ध्यान में रखें तो अत्रि का अर्थ हुआ ‘जो रज, सत तथा तम इन गुणों से, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया से, जागृति, स्वप्न तथा सुषुप्ति से तथा स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण तीन देह आदि से परे हो’। किन्तु यह असंभव है क्योंकि यह समस्त सृष्टि ही त्रिगुणात्मक है! त्रिगुण से परे कुछ भी होना संभव नहीं है। सत, रज तथा तम का परस्पर अनुपात परिवर्तित हो सकता है तथा इस अनुपात में जिसका अंश अधिक हो वह गुण विशिष्ट हो सकता है किन्तु इनका अथवा इनमें से किसी एक का भी, सर्वथा अभाव हो ऐसा कदापि संभव नहीं! किन्तु यदि कोई हो, जो खदिर-राग, नागवल्ली-पत्र-रस, तथा सुधा-अवलेह, तीनों को चर्वित-मर्दित करके कृष्ण, लोहित एवं शुक्ल को एकसार कर कोई नया ही रंग, नया ही रस उद्भावित कर दे तो कहा जा सकता है कि वह तीनों के पार चला गया। ऐसे सत, रज, तथा तम के त्रिगुण ताम्बूल-चर्वण हेतु इन तीनों का एक समानुपात में होना भी आवश्यक है। अतः अत्रि का अर्थ हुआ – जो त्रिगुण को एक समबाहु त्रिभुज के तीन बिन्दुओं पर स्थापित कर त्रिभुज की तीन भुजाओं के रूप में उनसे सम्बद्ध भी रहे और इस प्रकार तीनों के साथ एक समानुपात सम्बंध स्थापित कर, उनके साथ हो कर भी उससे निर्लिप्त हो जाय!
असूया का अर्थ है ‘ईर्ष्या’। अतः अनसूया का अर्थ हुआ जिसमें ईर्ष्या न हो! ईर्ष्या का न होना, स्नेह का होना नहीं, निर्लिप्त होना है। और ऐसा भी तभी हो सकता है जब कोई त्रिगुण से आक्रान्त न हो। सत, रज तथा तम जिसे स्पर्श तो करें किन्तु किसी वृत्त की तीन स्पर्श रेखाओं की भांति, छुआ, छुआ, न छुआ न छुआ जैसे! किन्तु प्रत्येक वृत्त का एक केंद्र होता है, एक बिन्दु। जब प्रसरित होता है तो वही बिन्दु वृत्त बनता है तथा वृत्त ही जब संकुचित होता है तो बिन्दु बनता है। इस विस्फार की सीमा में जो आ गया वह वृत्त का भाग हुआ, और इस सङ्कोच की प्रक्रिया में जो छूट गया वह छूट गया। यह प्रक्रिया न राग को जानती है न द्वेष को, तो असूया कैसी? कुछ स्थानों पर अनसूया को अनुसूया भी कहा गया है। दोनों में कौन सा शुद्ध है मुझे इसके विवाद में नहीं पड़ना क्योंकि यदि अनुसूया ही शुद्ध हो तो ‘सूया’, असूया का विलोम हुआ और असूया के विलोम गुण की अनुवर्तिनी अनुसूया यथार्थतः अनसूया ही हुई।
क्या ऐसा नहीं प्रतीत होता कि अत्रि तथा अनसूया का तात्पर्य समझाने के प्रयास में मैं रेखागणित के सिद्धांतों में उलझता जा रहा हूँ? नहीं! यन्त्र, मन्त्र तथा चित्र या मूर्ति तन्त्र के अविभाज्य अंग हैं तथा तन्त्र के यन्त्र रेखागणित के माध्यम से रचित कुछ विशेष आकृतियाँ होती हैं जिनमें कुछ विशेष संकेत समाहित होते हैं। प्रत्येक यंत्र में कुछ ऊर्ध्व तथा कुछ अधोमुख त्रिकोण, कुछ वृत्त, एक केंद्रीय बिंदु तथा इनके बाहर कुछ पद्म-पत्र जैसी आकृतियाँ, कुछ चतुर्भुज, एवं उस रेखाचित्र के विशिष्ट भागों में लिखे कुछ विशिष्ट अक्षर या बीज होते हैं।
तंत्र में विशिष्ट यंत्रों में निहित संकेतों का समझना ही यंत्रों का उद्धार कहलाता है अतः प्रकारांतर से यह विवेचना दत्तात्रेय-यंत्र का उद्धार है यद्यपि यह अति संक्षिप्त, तथा साङ्केतिक है क्योंकि पाठकों को तन्त्र की दुर्गम घाटियों की अबूझ पगडण्डियों के जाल में उलझाना आलेख का उद्देश्य नहीं है फिर भी इतना अवश्य कहना है कि यंत्र का रहस्य उतना ही गूढ़ है और उतना ही सरल भी जैसे अभियांत्रिकी का कोई विशेष चित्र, जिसकी रेखायें तथा उनके साथ लिखे गये अक्षर किसी संरचना-विशेष का स्वरुप तथा उसकी विशिष्टियाँ प्रदर्शित करते हैं जिन्हें उससे सम्बंधित जन जानते और समझते हैं, उनके अनुरूप क्रिया-निष्पादन करते हैं तथा अपने उद्देश्य में सफल होते हैं, जबकि उसे न जानने-समझने वालों हेतु वह मात्र रेखाओं का एक अनबूझ जाल है। जैसे ड्राइंग अभियंताओं की भाषा है, तांत्रिक यन्त्र भी तांत्रिकों की भाषा हैं।
रहस्यमय अघोर मार्ग तथा नाथ-पंथ (पंथ पथ का ही अपभ्रंश है अतः अघोर-पंथ या अघोर-मार्ग तथा नाथ-पंथ या नाथ-मार्ग समानार्थी हैं) का प्रणेता कोई दत्तात्रेय, किसी ऐसे ही अत्रि तथा अनसूया से उत्पन्न हुआ हो सकता है।
भगवान् दत्तात्रेय का जो स्वरुप है वह भी इसी अत्रि तथा अनसूया शब्द सा ही एक संकेत-चिह्न है।
दत्तात्रेय का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा गया है कि श्री दत्तात्रेय के तीन शिर हैं तथा छह भुजायें हैं जिनमें वे क्रमशः चक्र, त्रिशूल, शंख, गदा, कमण्डलु एवं सुवर्ण-निर्मित भिक्षापात्र धारण करते हैं (साधना-प्रक्रिया भेद से भिक्षापात्र के स्थान पर अक्षमाला, तथा गदा के स्थान पर डमरू भी ग्राह्य है तथा छह हाथ में से किस विशेष हाथ में उन्होंने क्या धारण किया है इसमें भी मत-वैभिन्य है), उनका स्वरुप कर्पूर-गौर वर्ण का है जिस पर विभूति रमी है, उनके निकट तथा उनके संरक्षण में एक स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट गौ है, उनके निकट चार श्वान सदैव रहते हैं, तथा वे मातापुर नामक स्थान पर एक औदुम्बर वृक्ष के नीचे दिगम्बर अवधूत रूप में सदा निवास करते हैं।
साधना के किसी भी मार्ग में इष्ट के जिस स्वरुप का ध्यान करना होता है वह स्वरुप शब्दार्थ से भिन्न संकेतात्मक परिभाषायें हैं। मात्र दत्तात्रेय का ही नहीं, तन्त्र-साधना में या किसी भी उपासना पद्धति में ध्यान-मन्त्रों का विशेष अर्थ होता है जो उस इष्ट के चित्रमय-निरूपण का रहस्यमय विवरण होता है, चाहे वह इष्ट काली हो, दुर्गा हो, त्रिपुरसुन्दरी हो, छिन्नमस्ता हो, धूमावती हो, गणेश हो, कोई भी हो। इसे उस देवता-विशेष का मूर्ति-रहस्य कहते हैं। श्री दुर्गासप्तशती में भी मूर्ति-रहस्य उद्घाटित है किन्तु वह रहस्य भी, तथा ऐसे सभी देवताओं के मूर्ति-रहस्य भी, रहस्यात्मक शैली में ही लिखे गये हैं। उस रहस्य को कोई मात्र समर्थ गुरु द्वारा ही जान सकता है। उदाहरण स्वरुप, श्री दत्तात्रेय की मूर्ति या चित्र के रहस्यमय स्वरुप के कुछ संकेतों का उद्घाटन असमीचीन नहीं होगा।
श्री दत्तात्रेय के तीन शिर तो उसी त्रिगुण के प्रतीक हैं जिनकी चर्चा अत्रि प्रकरण में की गयी है। स्थूल रूप से ब्रहमा, विष्णु तथा महेश भी उसी त्रिगुण के प्रतीक हैं किन्तु वे विशुद्ध गुण अर्थात् प्रत्येक स्वयं में गुण-विशेष का विशुद्ध रूप हैं अतः दत्तात्रेय के तीन शिर ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के रूप में ही चित्रित किये जाते हैं, किन्तु उन तीन शीशों का तात्पर्य यही है कि श्री दत्तात्रेय त्रिगुणात्मक हैं।
दतात्रेय के हाथ का चक्र, काल-चक्र, ज्ञान तथा गति का प्रतीक है। समस्त ब्रह्माण्ड काल-चक्र के अधीन है किन्तु यह काल किसी के अधीन नहीं। काल मात्र महाकाल के अधीन है। ज्ञान के इस सुदर्शन अस्त्र से ही साधक के षड-रिपुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मत्सर का वध हो सकता है तथा गति के जो तीन अर्थ हैं, गमन, अवस्था तथा प्रगति, ये तीनों तभी संभव भी हो सकते हैं।
तन्त्र की प्रत्येक साधना चाहे वह किसी भी प्रकार की हो तथा किसी भी दर्शन-धारा से अनुप्राणित हो, उसका मूल कुण्डलिनी है। दत्त के हाथ का ही नहीं, किसी भी देवता के हाथ का त्रिशूल अपने दार्शनिक रूप में इसी कुण्डलिनी तंत्र से सम्बंधित इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना के प्रतीक हैं, जो वाम, दक्षिण तथा मध्यवर्ती नाड़ियाँ है। ये नाड़ियाँ तंत्र में विविध नामों से उल्लिखित हैं जिनमें इनका एक नाम गंगा, यमुना तथा सरस्वती भी है। और यह एक दण्ड के ऊपर जड़ा त्रिफलकीय आयुध ब्रह्मदंड के ऊपर त्रिधा-शक्ति का अवस्थान भी सूचित करता है।
भारतीय अध्यात्म में शंख का एक विशिष्ट ही महत्व है जिसे उल्लिखित करना आवश्यक नहीं प्रतीत होता किन्तु यदि इस शंख शब्द पर ध्यान दें तो ‘शं’ का अर्थ है कल्याण तथा ‘ख’ का अर्थ है अंतरिक्ष या सकल ब्रह्माण्ड! अपने समस्त दैवी तथा आध्यात्मिक गुणों के साथ, शंख समस्त ब्रह्माण्ड के कल्याण का प्रतीक है। यह एक साथ विस्तार तथा लय दोनों का प्रतीक है। वर्तमान में ज्योतिषीय दृष्टिकोण से मकर राशि में गुरु तथा शनि की युति है। यह तन्त्र की दृष्टि से नियति द्वारा विश्व-कल्याण की, शम् खम् की एक छोटी सी भूमिका है क्योंकि शंख ज्यौतिष में बृहस्पति तथा शनि नामक दो महत्वपूर्ण ग्रहों के एक साथ होने का भी प्रतीक है, यह गुरु तत्व के ‘अंतर हाथ सहार दे’, तथा शनि तत्व के ‘बाहर बाहे चोट’ का प्रतीक है, और नाद का प्रतीक तो यह है ही! और ‘नाद’ तन्त्र का विशेष अवयव है, जिसका विस्तार यहाँ संभव नहीं।
गदा अहं का प्रतीक है। तथा दत्त की यह गदा, यह अहं, अपने शीर्ष की ओर से भूमि पर आधारित है। विष्णु हों या हनुमान, आपने शांत स्वरुप में इन दोनों की गदा भी शीर्ष भाग भूमि पर टिकी अवस्था में ही चित्रित की जाती है। यह भूमि पर टिकी गदा, यह अहं, मूलाधार में स्थित शिव से अलग पड़ी कुण्डलिनी शक्ति का प्रतीक है। चूँकि मूलाधार पृथ्वी तत्व का परिचायक है अतः पृथ्वी स्वयं उसी मूलाधार चक्र का प्रतीक है, और जब तक मूलाधार स्थित यह अहं अधोमुखी है तब तक किसी काम की नहीं, वैसे ही जैसे गदा जब तक उठे न, तब तक प्रहार में सक्षम नहीं। यह सुषुप्त अहं, यह सुषुप्त कुण्डलिनी, जाग्रत हो कर उर्ध्वमुखी हो तभी शिव-सायुज्य प्राप्त कर सकेगी। ‘हं’ शिव-वाच्य है तथा अहं का अर्थ ही है जो शिव से वियुक्त हो। शिव का अर्थ शुभ भी है अतः अहं शुभ से भी वियुक्त है। इस अहं-शक्ति का, इस कुण्डलिनी शक्ति का जागरण तथा उन्नयन ही इसे शिव से, शुभ से संयुक्त कर सकता है। किन्तु, सामान्य व्यक्ति के लिये इस गदा को पृथ्वी पर, इस अहं को निम्नतम स्तर पर, इस कुण्डलिनी को मूलाधार में ही, रहने देने में ही कल्याण है क्योंकि ये जब जाग्रत हो तो बड़े उपद्रव खड़े करता है। अतः अघोरी को तो सप्रयास यह गदा उठानी है, और अन्यों को प्रयास करके इसे भूमि पर टिके रहने देना है।
कमण्डलु का उपयोग है जल को धारण करना और जल आपः शक्ति है, प्रक्षालिनी शक्ति है, जीवनी शक्ति है, प्राण शक्ति है। ऋग्वेद कहता है कि जल में समस्त देवताओं का वास है। यजुर्वेद के अनुसार सृष्टि का प्रथम बीज पानी में ही पड़ा। विज्ञान भी मानता है कि जीवन का प्रारम्भ जल में हुआ तथा जल के अभाव में जीवन की कोई सम्भावना नहीं। अतः वेदों से लेकर अन्यान्य शास्त्रों में वर्णित जल के जो तात्पर्य हैं, दत्त के हाथ का कमण्डल साधना में उन सबकी धारण-प्रक्रिया तथा धारण-क्षमता का प्रतीक है!
दत्त के हाथ का भिक्षापात्र भी एक विचित्र भिक्षापात्र है – सुवर्ण निर्मित! जिसका भिक्षा-पात्र सोने का हो वह भिक्षुक कैसे हो सकता है? किन्तु श्री दत्तात्रेय ऐसे ही भिक्षुक हैं। समस्त ऋद्धियों एवं सिद्धियों की उपलब्धि के पश्चात भी उनका न संग्रह, न विपणन! उतना ही ग्रहण करना जितना जीव-धर्म के पालन हेतु अनिवार्य है और वह भी समाज से अकिंचन हो कर, भिक्षुक हो कर स्वीकार करना। और दत्त स्वयं हैं गुरु-तत्व के प्रतीक तो कोई गुरु अपने शिष्यों से भिक्षा में क्या चाह सकता है? मात्र उसका अज्ञान, उसकी दुष्प्रवृत्तियाँ, उसके दोष एवं अवगुण, उसके काम-क्रोधादि, उसके बन्धन! इसके अतिरिक्त दत्त को हम तथा आप दे भी क्या सकते हैं? उस स्वर्ण-भिक्षापात्र में हम अपनी न्यूनता ही डाल सकते हैं तथा वही हमें डालना भी है। और इस भिक्षापात्र में जो आता है उसके भोक्ता भी श्री दत्त एकाकी स्वयं नहीं हैं। इस भिक्षापात्र का अन्न चार श्वान भी ग्रहण करते हैं तथा एक गो भी! अर्थात जो भी अल्प मात्रा में ग्रहण किया गया वह सब का सब हमारा नहीं है, उसमें अन्यों का भी भाग है, गाय का भी, कुत्तों का भी!
विचित्र है, किन्तु अनुभूत है कि अघोरियों के सन्निकट कुछ श्वान सदैव रहते हैं। कोई अघोरी उन्हें पालता नहीं है। अघोरी तो अपनी वृत्तियों तक को नहीं पालता तो कुत्ते या गाय क्यों पालेगा? किन्तु प्रत्येक अघोरी के सन्निकट कुछ कुत्ते अवश्य रहते हैं तथा अघोरी उन्हें अपने आहार का एक बड़ा भाग नियमित प्रदान करता है। कभी-कभी तो कुत्ते अघोरी के पात्र में ही भोजन करते देखे गये हैं। यद्यपि यह सामान्य व्यक्ति को घृणित प्रतीत हो सकता है, किन्तु अघोरी एक सामान्य व्यक्ति नहीं होता। दत्त के निकट भी चार कुत्ते हैं। तंत्र के आचार्य इन चारो श्वानों को चार वेद का प्रतीक कहते हैं तथा मुझे इस प्रतीक को मानने में कोई आपत्ति नहीं है। विद्वज्जन जो कहते हैं उस पर मुझे कभी कोई शंका नहीं रही। किन्तु चित्रों में उन चार श्वानों के रंग देखें! निश्चित ही मैं तन्त्र तथा उनके प्रतीकों से अनभिज्ञ चित्रकारों की कृतियों का सन्दर्भ नहीं लेना चाहूंगा क्यों कि वे तो अपनी मति-बुद्धि से चार कुत्तों का अंकन कर के संतुष्ट हो लेते हैं किन्तु प्रतीकार्थ निरूपित करने वाले श्री दत्तात्रेय के चित्रों में उन श्वानों का रंग क्रमशः शुक्ल, लोहित, श्याम तथा शबल चित्रित किया गया होता है तथा यदि नहीं किया जाता तो किया जाना चाहिये! श्वेताश्वतरोपनिषद का कथन है “अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः”। यह श्वेत, लाल, श्याम तथा शबल या चित्रकर्बुर रंग पुनः उसी त्रिगुणात्मक शक्ति के साथ माया का चतुष्टय है। श्वेत सत का रंग-गुण है, लोहित रजस का तथा श्याम तमस का। और माया का रंग तो चित्र-विचित्र, चित्रकर्बुर, अर्थात चितकबरा, है ही! अतः दत्त के संगी ये चार श्वक सत, रज, तम तथा माया के प्रतीक हैं जो एक साधक के साधना अर्जित उपलब्धियों का भोग करते हैं। उसकी कुछ उपलब्धियाँ सत को अर्पित होती हैं, कुछ रजस को, कुछ तमस को और कुछ माया को भी। यही कारण है कि अघोरी के सतोगुण अर्थात सात्विकता, रजोगुण अर्थात भोग आदि के उदाहरण, तमोगुण अर्थात क्रोध आदि जैसा कि हर अघोरी प्रदर्शित करता है, तथा माया के साथ क्रीडा भी, समय-समय पर लोगों को दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु यह सब है अघोरी के श्वानों का ही आहार, अघोरी के स्वयं का नहीं! अघोरी कुत्तों को खिला कर ही खाता है और जो खाता है वही खिला कर खाता है! और माया का तो अर्थ ही है मा या अर्थात नहीं है जो! ‘मा’ अर्थात नहीं, ‘या’ अर्थात जो!
दत्त के पास उनके संरक्षण में एक गो है, स्वस्थ, श्वेत, हृष्ट-पुष्ट गो! गो एक बहु-विकल्पी शब्द है। इस शब्द की चर्चा एकाधिक बार मेरे अन्यान्य निबंधों में हो चुकी है अतः चर्वित-चर्वण जुगुप्सा ही उत्पन्न करेगा किन्तु सन्दर्भ आ पड़ा है तो क्या करें? गो का अर्थ है गति, गो का अर्थ है वाणी, गो का अर्थ है इन्द्रियाँ, गो का अर्थ है प्रकाश-किरण, गो का अर्थ है भूमि या स्वयं यह धरित्री, गो का अर्थ है स्वयं साक्षात आदित्य या सूर्य या मित्र! गो का एक अर्थ स्तोता भी होता है। स्तोता – जो स्तुति करे! गो का अर्थ अन्न भी है, गो का अर्थ चर्म या त्वचा है, गो का अर्थ श्लेष्मा है, गो का अर्थ वृत्त की ज्या है, गो का अर्थ धनुष की ज्या भी है और गो का अर्थ गाय नामक पशु-विशेष तो है ही!
ऋग्वेद में पुरुष, अवि, अश्व, अजा एवं गो, ये पाँच पशु मेध्य-पवित्र हैं किन्तु इन पाँचों में से मात्र तीन, पुरुष, अश्व एवं गो को ही सृष्टि प्रक्रिया के प्रतीक रूप में अपनाया गया है। वैदिक दर्शन पुरुष प्रतीक से सर्वहुत् यज्ञ द्वारा सृष्टि विद्या का, अश्व प्रतीक से अश्वमेध द्वारा सृजन-प्रक्रिया का तथा गो प्रतीक द्वारा सृजन की गत्यात्मकता को प्रारूपित, निरूपित एवं व्याख्यायित करता है जो गो-विद्या, विराज् विद्या, अदिति विद्या, गोष्टोम आदि रूपों में है। अतः गो शब्द या गाय का चित्र या स्वयं गाय नामक पशु भी भारतीय चिंतन-धारा में उन सभी सूक्ष्म रूपों का प्रतीक है जिनकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं जाता और इस प्रकार तन्त्र या आगम की धारा वैदिक चिंतन धारा की न तो विरोधी है और न ही अनुवर्तिनी! तन्त्र का दर्शन आतंरिक रूप से वैदिक तथा वेदान्त दर्शन दोनों की एक सहयोगी एवं समान्तर धारा है।
तो दत्त के संरक्षण में जो गो है वह इन सभी अर्थों में उनके द्वारा संरक्षित है! तन्त्र कभी स्पष्ट शब्दावली का प्रयोग नहीं करता! किन्तु जिन्हें समझना होता है वे समझ लेते हैं! श्री दत्त, श्री दत्त आत्रेय, श्री दत्तात्रेय गो शब्द से अभिहित समस्त अर्थों के संरक्षक हैं।
लोग सूरदास को वात्सल्य का कवि मानते हैं। किन्तु स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो काव्य हो या भक्ति, ज्यौतिष हो या अध्यात्म, विज्ञान हो या साहित्य, तन्त्र एवं रहस्यवाद के बिना कुछ भी ढंग से सध ही नहीं सकता! तंत्र के अभाव में सारा ज्ञान-विज्ञान-ज्यौतिष-आयुर्वेद-कला-फंतासी-फिक्शन-कविता-कहानी-निबन्ध सब, सब कुछ भूसे की दँवरी है जिससे आनन्द का एक दाना नहीं मिलना! अवगुण्ठनवती नारी तथा अवगुण्ठन-युक्त भाषा का सौन्दर्य अप्रतिम होता है तथा कञ्चुक उतरना स्वयं में एक सुख है।
सगुण भक्ति-धारा के कवियों में सूरदास के वात्सल्य ने उनके तत्व ज्ञान एवं रहस्वाद को विस्मृत करने में महती भूमिका निभायी किन्तु अध्यात्म का उत्स एवं लक्ष्य मात्र अद्वैत का रहस्य है। इन्द्रियों का गो रूप में निरूपण करता सूर का एक पद प्रस्तुत है –
माधो नैकु हटको गाइ।
भ्रमत निसि वासर अपथ-पथ, अगह गहि नहिं जाइ।
क्षुधित अति, न अघाति कबहूँ, निगम द्रुम-दल खाइ।
अष्टदस घट नीर अँचवति, तृषा तऊ न बुझाइ।
छओ रस जो धरो आगे, तबहु न गध सुहाइ।
और अहित अभच्छ भच्छति, कला बरनि न जाइ।
व्योम, नद, घन, सैल, कानन, इतै चरि न अघाइ।
नील खुर, अरु अरुण लोचन, सेत सींग सुहाइ।
भुवन चौदह खुरन खोदति, सुधो कहा समाइ।
दीठ निठुर न डरति काहू, त्रिगुण ह्वै समुहाइ।
हरे खल-बल दनुज दानव, सुरनि सीस चढ़ाइ ॥
रचि विरचि मुख भौंह छवि लै, चरति चित्त चुराइ।
नारदादि सुकादि मुनिजन थके करत उपाइ।
ताहि कहु, कैसे कृपानिधि, सूर सकत चराइ ॥
हे कृष्ण! कनि इन गायों को हांको तो! ये गायें दिन-रात न जाने योग्य पथ पर भ्रमण करती रहती हैं, अतः भ्रमित हैं, अगह हैं, बंधनातीत, पकड़ में नहीं आतीं! अत्यंत क्षुधित हैं ये गायें! निगम के समस्त वृक्षों को खा कर भी इनका पेट अघाने जैसा तो कभी भरता ही नहीं। अष्टादश घटों (पुराणों) का नीर पी जाती हैं, धो-धा कर बहा देती हैं और तब भी इनकी तृषा शमित नहीं होती। छहो रस इनके आगे धर दो किन्तु इन गध, ग-ध, धावमान गौवों को सुहाता नहीं! और तो और, अहितकर भक्ष्य – अभक्ष्य, जिनकी विशिष्टियाँ भी अवर्णनीय हैं, उनका ये भक्षण करती रहती हैं। व्योम, घन, नद, शैल, वन, इन सभी को चर चुकीं ये, किन्तु अब तक तृप्त नहीं हुईं। नीले (नील रंग श्याम रंग का ही वाचक है जो विस्तार का भी बोधक है) शफों (खुरों) वाली, अरुण (लाल, लोहित) नेत्रों वाली तथा श्वेत शृंगों वाली (अर्थात त्रिगुणात्मक) ये इन्द्रिय-गौवें अपने खुरों से, अपनी तमस-वृत्ति से, चतुर्दश भुवन खूंद डाल रही हैं, तो सुधा, अमर तत्व, कहाँ प्रविष्ट हो? इनकी दृष्टि भी निष्ठुर है और ये किसी से डरती भी नहीं, जो इन त्रिगुणात्मिकाओं को कोई सम्भाले। ये लाख देवताओं को अपने शीश पर बिठा लें, किन्तु तब भी दनुज-दानवों का खल-बल (दुष्प्रवृत्तियों का आकर्षण) नित्य इनका हरण करता रहता है। मन में सुन्दर मुख तथा भौहों की कल्पना रच कर ये स्वयं चित्त को चोरी से चर जाती हैं। नारद, शुक, आदि मुनि सारे उपाय कर थक चुके, ये किसी के वश में नहीं, तो हे कृपानिधि! मैं अकिंचन सूर, इन गायों को चरा सकने में कैसे सक्षम हो सकता हूँ? तुम्हीं हाँको इन्हें! तुम्ही चराओ इन्हें!
इस पद का अर्थ स्वयं में ही एक सुदीर्घ निबंध का आधार-पटल है अतः विद्वान् पाठकों से अपेक्षा है कि ‘सुनहु, समझहु, गुनहु मनसा, को सकहिं समुझाइ?’। यह पंक्ति सूर की नहीं, मेरी अपनी है।
कबीर ने भी एक ऐसी ही गो का उल्लेख किया है, जो ज्ञान-गर्भिणी हो कर तो अमृत बरसाती है किन्तु प्रसूता होने के उपरान्त एक बूँद दूध नहीं देती, यह स्वयं दूध पीती है और गोवत्स दूध देता है, यह गो सिंह तक का भक्षण कर जाती है –
अवधू! कामधेनु गहि बांधी रे!
भांडा भंजन करे सबहि का, कछू न सूझे, आंधी रे!
जो ब्यावे तो दूध न देई, ग्याभन अमृत सरवे।
कोली घाल्या बीडरि चाल्ये, ज्यों घेरूं त्यों दरवे ॥
तिही धेन थे इंछया पूगी, पाकड़ि खूँटे बांधी।
ग्वाडा मांहै आनद उपज्यो, खूँटे दोऊ बाँधी ॥
सा ई माइ, सास पुनि सा ई, सा ई याकी नारि!
कहे कबीर, परमपद पाया, संतो लेहु विचारि ॥
इस पद के अर्थ की ग्राह्यता भी पाठक की रसानुभूति पर ही निर्भर है क्योंकि तंत्र की रहस्यानुभूति शब्दों से परे है। समझा तो जा सकता है, समझाया नहीं जा सकता! क्योंकि अर्थ शब्दों में स्वयं को अभिव्यक्त अवश्य करता है किन्तु तब भी, तुलसी का ‘गिरा-अरथ जल-वीचि सम’ अर्ध-सत्य है। वैशेषिक दर्शन (२/७/८) कहता है – शब्दार्थावसम्बद्धौ – शब्द तथा अर्थ का कोई सम्बन्ध नहीं होता! तथा इसका अनुभव मुझे तो प्रकर्ष रूप से हुआ है –
हर शब्द का माने से नाता है बहुत गहरा, मैंने पढ़ी-सुनी है सौ बार यह कहानी।
तुम तक पहुँच कर शब्दों ने अर्थ नया पाया! मैं लिखता रहा बादल! तुम पढ़ते रहे पानी!!
तो यह है दत्त की वह गो, जो उनके संरक्षण में है! जिस संस्कृति तथा सभ्यता ने गो, नारी, वाणी, प्रकाश तथा धरित्री, प्रशंसक, रक्षक आदि का अपमान किया वह निन्दित भी है और नष्ट भी होगी!
अब थोड़ा गो शब्द के ज्योतिषीय अन्वय पर भी विचार कर लें? गो शब्द ‘ग’ व्यंजन तथा ‘ओ’ स्वर के संयोग से बना है। तंत्र-ज्यौतिष के अनुसार ‘ग’ है गुरु अर्थात बृहस्पति तथा ‘ओ’ है सूर्य! इन दोनों का संयोग है गो! आज-कल खर-मास चल रहा है न? बृहस्पति की राशि में सूर्य का संचार? सूर्य तथा बृहस्पति का तत्वार्थ भी गो का ही एक अन्य तत्वार्थ भी है!
दत्त का निवास औदुम्बर वृक्ष तले है। औदुम्बर अर्थात गूलर! कहते हैं कि जब नृसिंह ने अपने नखों से हिरण्यकशिपु का उदर चीर कर उसका वध किया तो उनके नखों में भयानक दाह उत्पन्न हो गया। इस दाह से मुक्ति पाने हेतु उन्होंने अपने नखों को औदुम्बर-वृक्ष की त्वचा में धंसा दिया। औदुम्बर-क्षीर ने सारा दाह सोख लिया। नृसिंह विष्णु के नखों का दाह तो शमित हो गया किन्तु उनके नखों में समाया अघ-विष औदुम्बर वृक्ष में समा गया जिसके कारण औदुम्बर वृक्ष में पुष्प नहीं आते और जब पुष्प नहीं तो फल कैसे लगें? गूलर के फल, फल नहीं, उसके नसों में समाये विष के परिणामस्वरुप उसकी देह पर उगे फोड़े है! है न विचित्र? और उस व्रण-फल में भी भीतर कीट ही कीट भरे होते हैं। तत्वज्ञों ने इस संसार की उपमा गूलर के फल से दी है! बाहर पके फोड़े सा लाल, भीतर कीटों का समूह! किन्तु दत्त ऐसे औदुम्बर वृक्ष के नीचे निवास करते हैं। और दत्त का शिष्य हर अघोरी भी इसी सांकेतिक संसार-औदुम्बर वृक्ष के नीचे निवास करता है जिसका फल दूषित है, त्वचा कुरूप एवं मोटी है किन्तु उसकी शिराओं में प्रवाहित क्षीर समस्त सांसारिक दाहों का शामक है। आयुर्वेद भी गूलर के दूध को अंतर्दाह का शामक मानता है।
ज्ञान की भाषा मुझसे अधिक समय तक सधती नहीं! मैं तो अविद्या तथा अज्ञान पोषित जीव हूँ! बिना कथा-कहानियों के मेरी बुद्धि कुण्ठित हो रहती है, चेतना लुण्ठित हो रहती है, गति अवगुण्ठित हो रहती है।
गोदावरी का एक निभृत तट!
एक औदुम्बर वृक्ष तले एक युवा संन्यासी!
उसके समीप चार श्वान – श्वेत, लोहित, श्याम तथा शबल वर्णी!
निकट ही चरती एक सुपुष्ट श्वेत गौ!
कंधे पर धनुष, पीठ पर तूणीर कसे, कटि में कृपाण बाँधे, कवच वेष्ठित एक राजन्य गोदावरी के उस निभृत तट पर आ पहुँचा।
राजन्य ने इतस्ततः देखा, तो उसे वह संन्यासी दिखा। राजन्य ने श्रद्धा-भाव से प्रणिपात किया।
क्या इच्छा है राजन?
यह नदी पार करना चाहता हूँ भगवन!
तो पार करो! संशय कैसा? द्विधा कैसी? असमंजस क्यों? नदी है, तुम हो, इच्छा है, पार करो!
किन्तु कैसे महात्मन? साधन?
कैसा साधन चाहिये?
निकट कोई सेतु है?
सेतु तो नहीं है राजा! किन्तु तुम चाहो तो सेतु निर्मित कर सकते हो!
क्या हास्य है संन्यासी? सेतु क्या एक दिन में निर्मित होते हैं?
किन्तु तुम तो राजा हो!
तब भी सेतु-बंधन हेतु जन-बल चाहिये, धन-बल चाहिये, संसाधन चाहिए, समय चाहिये! ऐसे हर नदी पार करने का इच्छुक अपने लिये नये सेतु तो नहीं बाँधा करता न? आप मेरा उपहास कर रहे हैं!
अरे नहीं! उपहास क्यों करूँगा? तो कोई अन्य उपाय सोचो! क्योंकि सेतु तो नहीं है! यदि हो भी तो क्या भरोसा, कि वह पार तक ले ही जाये? और दूसरों के निर्मित सेतु से नदी पार करना तुम जैसे राजा को शोभा भी नहीं देता! कोई अन्य उपाय सोचो राजा!
कोई नौका मिलेगी?
इस नदी को नौका से पार करने के प्रयास में कई यात्री डूब चुके राजे! कोई नौका कितनी सुदृढ़ है, कोई नाविक कितना कुशल है, इसका भान हुए बिना तुम्हे इस माध्यम का चुनाव नहीं करना चाहिये!
तो क्या कोई उपाय नहीं संन्यासी?
है न! कूद जाओ नदी की धार में! अपने बाहुओं का भरोसा करो! नदी की लहरों को चीर कर आगे बढ़ो! तुम्हारे अपने प्रयास ही तुम्हें लक्ष्य तक पहुँचा सकते हैं राजे! कूद जाओ! निःसंकोच!
किन्तु मुझे तैरना नहीं आता!
लहरें सिखा देंगी राजे! और यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास हो, यदि तुम मुझे इस हेतु गुरु स्वीकार कर सको, तो तैरना मैं सिखा दूंगा!
नदी में भयानक जन्तु भी होंगे संन्यासी! मैं नदी की धारा को चीरूं उससे पूर्व वे मुझे चीर डालेंगे!
यह संकट तो है! किन्तु तुम्हारे पास खड्ग है! उनसे युद्ध करना! उन पर विजय प्राप्त करना! नदी पार करना!
यह तो घोर-कर्म है संन्यासी!
तो सेतु-बंधन घोर नहीं?
वह तो महा-घोर है!
और नौका का आश्रय? अनजाने नाविक पर विश्वास?
वह भी अति-घोर ही है संन्यासी!
तो इन तीनों उपायों में सहज क्या है?
स्वयं पर विश्वास!
और यह तो एक लौकिक नदी है राजे! तुमने इस संसारार्णव के सम्बन्ध में विचार किया कभी? उसे कैसे पार करोगे? अन्यों के द्वारा निर्मित सेतु से? अविश्वसनीय नौकाओं तथा अकुशल नाविकों के सहयोग से? या निज-बाहुओं के पराक्रम से? कौन है घोर? और कौन है सहज-अघोर?
स्वयं का प्रयास ही संन्यासी! स्वयं का पराक्रम ही! प्राणों के संकट होने पर भी अल्पशः यह मेरा अपना प्रयास तो है! यही सहज है! यही अघोर है!
हाँ राजे! शास्त्रों में वर्णित भक्ति एवं उपासना विधियाँ दूसरों के द्वारा निर्मित सेतु हैं। और संसारार्णव दूसरों द्वारा निर्मित सेतुओं के माध्यम से पार नहीं किया जा सकता! तुम अपना सेतु निर्मित करोगे तो जन्म-जन्मान्तर लग जायेंगे! इतना संसाधन, इतना धन-जन, इतना समय व्यय करना चाहोगे? इतनी प्रतीक्षा करना चाहोगे?
नहीं संन्यासी! कदापि नहीं! मुझे नदी अभी पार करनी है! मुझे यह संसारार्णव भी इसी जन्म में पार करना है!
तो क्या धर्मों एवं पंथों की अविश्वसनीय नौका की सहायता लेना चाहोगे? जिनके खेवइये स्वयं बीच में डूबते रहे? जिन्हें न धार का ज्ञान है न पार का, न घाट का पता है न बाट का? जो स्वयं नहीं पहुँचे वे तुम्हें पहुँचा सकेंगे? उन्हें खेवाई से प्रयोजन है राजे! तुम डूबो या पार हो सको, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं!
नहीं संन्यासी! ऐसी नौका और ऐसे नाविक निष्प्रयोज्य हैं, उपेक्षणीय हैं, त्याज्य हैं!
तो क्या करोगे?
कूदूँगा! यह घोरतर उपाय ही अघोर-उपाय है! आप मेरी सहायता करेंगे?
जो अपनी सहायता स्वयं करने को उद्यत हो, गुरु मात्र उसी की सहायता कर सकता है राजे! तुम्हें अपनी सहायता स्वयं करने का बोध प्रदान करना ही मेरी सहायता है। और वह सहायता तो मैंने तुम्हारे निवेदन करने से पूर्व ही कर दी! भविष्य में भी जो उचित एवं करणीय होगा उस पर विचार किया जायेगा। अवधूत वचन-बद्ध नहीं होता!
गुरु? आप मेरे गुरु? आप कौन हैं संन्यासी?
दत्त! अत्रिपुत्र आत्रेय दत्त! दत्तात्रेय! तुम चाहो तो गुरु दत्त कह सकते हो!
मैं कार्तवीर्य! माहिष्मती का सम्राट कार्तवीर्य! मैं आपको अपना गुरु स्वीकार करता हूँ भगवन्! कृपया मुझे इस नदी को पार करने में सहायता करें गुरुदेव! और इस संसारार्णव को पार करने में भी!
तो कूद जाओ राजा! अपने दो बाहुओं को सहस्रगुणित हुआ समझो! स्वयं को सहस्रबाहु ही समझो! कूदो! कूद जाओ सहस्रबाहु! तुम यह नदी भी पार करो! यह संसारार्णव भी!
नाथ सम्प्रदाय की साधना विधियाँ तथा अघोर मार्ग में बाहर से कोई भेद नहीं! दोनों का प्रारम्भिक मार्ग हठ-योग है। ‘ह’ अर्थात शिव, और सूर्य भी, ‘ठ’ अर्थात शक्ति, और चन्द्र भी। इस ‘ह’ तथा ‘ठ’ का सम्मिलन, यह शिव-शक्ति सायुज्य, यह सूर्य नाड़ी पिंगला तथा चन्द्र नाड़ी इड़ा का मेल, बलात करा देना ही तन्त्र का उद्देश्य है जो नाथ पंथ तथा अघोर पंथ में एक सा है, उपाय भले भिन्न हों। किन्तु इसके पश्चात दोनों के मार्ग भिन्न हो जाते हैं तथा अघोरी का मार्ग श्मशान की ओर चला जाता है। प्रत्येक जीवन अपने साथ मृत्यु की अनुज्ञप्ति ले कर प्रारम्भ होता है अतः यह समस्त संसार अघोरी का श्मशान है। जिन्हें कल मरना है उन्हें आज ही मृत मान लेने में क्या हानि है? और ‘अश्म’ है निर्जीव पाषाण, तो ‘श्म’ हुआ सारा जीवन-प्रपंच! यह जीवन-प्रपंच जिस स्थान पर शान्ति से सोता है वह स्थली ही श्मशान है। शमशान अपनी समस्त खर-भर के होते भी ‘चुप्पियों का महानगर’ है तथा अघोरी की यात्रा एक अनन्त मौन के उस महानगर तक की ही यात्रा है। नाथ पंथ एवं अघोर पंथ दोनों के पास एक पथ पर चलते–चलते अलग मार्गों पर मुड़ जाने की ऐसी अपनी विशिष्ट गुप्त आतंरिक साधना विधियाँ हैं जो परस्पर नितान्त भिन्न हैं तथा उनका ज्ञान किसी भी ऐसे व्यक्ति को नहीं हो सकता जो उस मार्ग का दीक्षित तथा अधिकारी पथिक न हो! अघोर साधना हो या नाथ पथ की साधना, शाक्त साधना हो या शैव, वैष्णव पाञ्चरात्र हो या गणेश–तंत्र, सबके मार्ग भिन्न हैं, विधियों में भेद है, विधान भिन्न हैं, किन्तु लक्ष्य एक है – वह अंतर्यात्रा जो अग्रसर तो स्थूल से सूक्ष्म की ओर एवं सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की ओर होती है किन्तु पहुँचती विराट तक है। शैव जिसे शक्ति कहते हैं, सांख्य जिसे पराप्रकृति कहते हैं, सूर्य-तन्त्र की जो महानिशा, या सिनीवाली, या कुहू, या राका, या अनुमति, या शर्वरी, या अमावस्या है, बौद्ध जिसे तारा कहते हैं, जैन जिसे श्री से संबोधित करते हैं, ब्रह्मज्ञान के पथिक जिसे स्वधा कहते हैं, वैदिक जिसे गायत्री कहते हैं, शाक्त जिसे त्रिपुरसुन्दरी के नाम से जानते हैं, योगियों की जो कुण्डलिनी है, और अज्ञानियों की जो मोहिनी है, वही अघोरी की सर्वेश्वरी है। द्वैत अज्ञ-जनों का विषय है, अविद्या का प्रतिफल है, विद्या तो अद्वैत को जानती है, अद्वैत को मानती है। भारतीय चिंतन की, भारतीय दर्शन की, भारतीय साधना की, भारतीय वाङ्मय की प्रत्येक धारा उसी अज्ञात, अव्याख्यायित, अचिन्त्य, अगोचर, परमब्रह्म रूपी सागर से मिलने का मार्ग सुझाती है चाहे कोई सेतु का आलंबन ले, नौका का या फिर स्वयं अपने बाहुओं एवं आत्मबल का! अघोर मार्ग अति घोर है, किन्तु इस मार्ग का पथिक मात्र अपने भुजबल एवं आत्मबल का भरोसा करता है, न किसी नौका का, न किसी नाविक का, न किसी सेतु का! आज अघोर साधना पद्धति का एक पर्याय ‘सहज’ साधना पद्धति हो गया है किन्तु सहज का जो रूढ़ अर्थ है, साधना के क्षेत्र में उससे अर्थ नितांत भिन्न है। यह साधना का ‘सहज’ मार्ग अत्यंत कठिन है। ‘स’ का अर्थ है शक्ति, ‘ह’ का का अर्थ है शिव, तथा ‘ज’ का अर्थ है जुड़ाव, मेल! मूलाधार में साढ़े तीन वर्तुलों में स्वयम्भू लिङ्ग को आवेष्ठित कर सोई कुण्डलिनी रूपी अहं शक्ति का जागरण, उसका उन्नयन, उसका शिव-सायुज्य अत्यंत कठिन साधना है! इसमें पग-पग पर परीक्षायें हैं, प्राणों का संकट है, विचलन है, पतन की सम्भावना है और तब भी एक अघोरी का ही यह साहस है कि वह चिता के समक्ष बैठा सृष्टि की आद्य-जननी-शक्ति तथा आदि-बीज शिव को भगाकृति अपराजिता तथा लिंगाकृति जपापुष्प अर्पित करता है, अपना विगलित मद ही प्रतीक में पीता भी है तथा अपने उपास्य पर ढलकाता भी है, पञ्च-मकार से भी आगे बढ़ सप्त-मकार से अपनी साधना करता, शव से शिव होने को अहं अहं अहं हं हं हं ठं ठं ठं हठं हठं हठं का ज़प करता हुआ उस चिताग्नि में, उस चिदाग्नि में अपने शुभ्र प्राण-सर्षप होम करता है! कबीर ने कहा था – सहज सहज सब जन कहे सहज न समुझे कोय! जिसे सभी सहज – सहज कहते हैं उस सहज का अर्थ कोई नहीं जानता।
अघोर साधकों का एक बहुत प्रचलित मन्त्र है –
ॐ। अघोरेभ्योऽथघोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेस्तु रूद्र रूपेभ्यः ॥
जो अघोर है, घोर है! घोर से भी घोरतर है! सर्व-संहारकारी है! ऐसे रूद्र रूप को नमस्कार है। अघोर शिव का पञ्चम मुख है!
बहुधा ‘सर्वशर्वेभ्यो’ को ‘सर्वसर्वेभ्यो’ उच्चरित किया जाता है। अब मैं कैसे कहूँ कि यह अशुद्ध है? तन्त्र तो, ज्ञान को कौड़ी का बहत्तर मानता है! वह इच्छा से सीधे क्रिया पर कूद जाता है क्योंकि तन्त्र एक प्रायोगिक विज्ञान है जिसमें गंधक, शोरा एवं कोयला के गुणधर्म जानना आवश्यक नहीं, वह तो बस तीनों को उचित अनुपात में मिश्रित करके अनल-चूर्ण बनाना बताता है और यह क्रिया-विधि यदि किसी अनधिकारी के पास पहुँच जाय तो वह विध्वंस का कारण हो सकता है। इसी कारण अनधिकारी हेतु तन्त्र गोपनीय है। तन्त्र के लिये अनुज्ञप्ति चाहिये, और यह अनुज्ञप्ति वही प्रदान कर सकता है जिसके पास इसे प्रदान करने का अधिकार-पत्र हो! यह अधिकार-पत्र मात्र गुरु के पास है, यह अधिकार-पत्र मात्र दत्त के पास है।
योग दर्शन में मन की एकाग्रता के बाधक नौ विघ्न-विक्षेपों का वर्णन है –
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽतरायाः।
व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्ति-दर्शन, अलब्ध-भूमिकत्व तथा अनवस्थितत्व चित्त के ये नौ विक्षेप हैं। मेरा शरीर निरंतर व्याधिग्रस्त, स्त्यान अर्थात अकर्मण्यता जनित असमर्थता मेरा स्वभावजन्य दोष, संशय ने मेरी मानसिकता को सदा ही आच्छादित रखा, नियमित अध्ययन-अध्यवसाय न करने के प्रमाद का मैं अभ्यासी, आलस्य मेरी शिराओं तक को जड़ीभूत किये, क्षुद्र विषयों की ओर मेरा दुर्निवार आकर्षण अतः अविरति भी है ही, काम्य एवं आवश्यक साधनों का अभाव भ्रान्ति-दर्शन भी उपजाता है, अलब्ध-भूमिकत्व के रूप में कार्य को प्रारम्भ न करना, प्रारम्भ कर के बीच में छोड़ देना, मन का उचट जाना जैसी दुर्बलतायें, तथा अनवस्थितत्व अर्थात चित्त की अस्थिरता, पूरब जाते-जाते अचानक दक्षिण को मुड़ जाने की प्रवृत्ति, मुझमें तो, ये नौ के नौ चित्त-विक्षेप भरे पड़े हैं! तो मैं क्या जानूँ कि क्या है तन्त्र, क्या है अघोर साधना, क्या है गुरु-तत्व, और क्या है दत्तात्रेय के स्वरुप का रहस्य? मैं तो वैदिक-ऋषि की उसी वाणी के गुंजलक में लिपटा, यही सोच रहा हूँ –
नास॑दासी॒न्नो सदा॑सीत्त॒दानीं॒ नासी॒द्रजो॒ नो व्यो॑मा प॒रो यत् ।
किमाव॑रीव॒: कुह॒ कस्य॒ शर्म॒न्नम्भ॒: किमा॑सी॒द्गह॑नं गभी॒रम् ॥
न मृ॒त्युरा॑सीद॒मृतं॒ न तर्हि॒ न रात्र्या॒ अह्न॑ आसीत्प्रके॒तः ।
आनी॑दवा॒तं स्व॒धया॒ तदेकं॒ तस्मा॑द्धा॒न्यन्न प॒रः किं च॒नास॑ ॥
तम॑ आसी॒त्तम॑सा गू॒ळ्हमग्रे॑ऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम् ।
तु॒च्छ्येना॒भ्वपि॑हितं॒ यदासी॒त्तप॑स॒स्तन्म॑हि॒नाजा॑य॒तैक॑म् ॥
काम॒स्तदग्रे॒ सम॑वर्त॒ताधि॒ मन॑सो॒ रेत॑: प्रथ॒मं यदासी॑त् ।
स॒तो बन्धु॒मस॑ति॒ निर॑विन्दन्हृ॒दि प्र॒तीष्या॑ क॒वयो॑ मनी॒षा ॥
ति॒र॒श्चीनो॒ वित॑तो र॒श्मिरे॑षाम॒धः स्वि॑दा॒सी३दु॒परि॑ स्विदासी३त् ।
रे॒तो॒धा आ॑सन्महि॒मान॑ आसन्त्स्व॒धा अ॒वस्ता॒त्प्रय॑तिः प॒रस्ता॑त् ॥
को अ॒द्धा वे॑द॒ क इ॒ह प्र वो॑च॒त्कुत॒ आजा॑ता॒ कुत॑ इ॒यं विसृ॑ष्टिः ।
अ॒र्वाग्दे॒वा अ॒स्य वि॒सर्ज॑ने॒नाथा॒ को वे॑द॒ यत॑ आब॒भूव॑ ॥
इ॒यं विसृ॑ष्टि॒र्यत॑ आब॒भूव॒ यदि॑ वा द॒धे यदि॑ वा॒ न ।
यो अ॒स्याध्य॑क्षः पर॒मे व्यो॑म॒न्त्सो अ॒ङ्ग वे॑द॒ यदि॑ वा॒ न वेद॑ ॥
(नासदीय सूक्त, ऋग्वेद, दशम मण्डल, सूक्त १२९)
और इस गुञ्जलक से मुझे मुक्ति नहीं, मुझे क्षमा नहीं, मुझे विराम नहीं क्योंकि मुझ पर कोई दत्त कृपालु नहीं! वह चिद्रूपिणी कुटिला जाग्रत भी है, अपना फण उठा कर फुफकार भी रही है, किन्तु अपना स्थान नहीं छोड़ती, और जिस धरा-चक्र में वह स्थान जमाये है उसकी सोंधी गंध मेरे नासापुटों से हो कर मेरा अंतस विभोर किये है अतः मुझे उस वामा को उत्तेजित करने की, उसे उसके मार्ग पर लगाने की सुधि ही नहीं। मैं तो कामनाओं के दुर्निवार जाल में उलझा अमृतत्व भी पाना चाहता हूँ तथा पञ्च-महाभूतों से चिपका भी रहना चाहता हूँ! मुझे अमृत भी रूप, रस, गंध, स्वाद तथा स्पर्श के रूप में ही चाहिये! किन्तु यह भी एक अघोर-साधना ही है! मेरी मुक्ति संभवतः इसी में है कि मैं सृष्टि के अंत तक इस महाश्मशान में ऐसे ही भटकता रहूँ, भटकता ही रहूँ!
आज मार्गशीर्ष की पूर्णिमा है न? आज तन्त्र के शिव-स्वरुप गुरु दत्तात्रेय का आविर्भाव-दिवस है। और मेरा मन अखिल राष्ट्र को, तन्त्र की आदि-योनि स्वरूपा त्रिकोणाकृति इस भारत-भू की समस्त सनातन भारती-प्रजा को, भगवान् श्री दत्तात्रेय जयन्ती की अनन्त-अशेष हार्दिक शुभकामनायें देते हुए यह प्रार्थना कर रहा है –
ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः। भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥
मैं सद्योजात की शरण हूँ, सद्योजात को नमस्कार है, जन्म-जन्मान्तरों के किसी भी जन्म में मेरा अतिभव – पराभव न हो! हे भवोद्भव! आपको मेरा नमस्कार है।
[ अंततः
पूर्वांचल की लोक-कथाओं में नारद का वाहन ढेंकी माना जाता है। लघुकाय ढेंकी या दीर्घकाय ढेंका, पूर्वांचल में धान कूटने का एक काष्ठ–निर्मित, उत्तोलक के सिद्धान्त पर बना सरल सा घरेलू संयंत्र है।
मत-वैभिन्य के आधार पर स्वीकृत श्री दत्तात्रेय के हाथों में धारण किये गये डमरू तथा अक्षमाला के निहितार्थ लेखक द्वारा आलेख में व्याख्यायित नहीं किये गये जिसका कारण उसकी अपनी पक्षधरता तथा उसकी अपनी साधना-पद्धति में इनकी अस्वीकार्यता है, किन्तु तब भी, डमरू नाद का तथा अक्षमाला मन्त्र-शक्ति तथा मनन के नैरन्तर्य का प्रतीक है।
श्री दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं तथा उनके शिष्यों का वर्णन करने से स-प्रयास बचा गया है क्योंकि सुधी पाठक इसे जानते ही होंगे ऐसा लेखक का विश्वास है।
इन पंक्तियों के लेखक को तन्त्र का कोई ज्ञान नहीं है अतः कृपया आलेख को मात्र लालित्य के आस्वाद का माध्यम समझें। आलेख में आयी अनगिन तथ्यात्मक त्रुटियों, जिनका निराकरण लेखक द्वारा संभव ही नहीं, के हेतु लेखक पाठकों से अग्रिम क्षमा-प्रार्थी है तथा संदेहों के निराकरण में भी लेखक असमर्थ है, क्योंकि शंकाओं के समाधान गुरु करते हैं, और लेखक तो योग्य शिष्य भी नहीं हो सका है! फिर भी, तन्त्र एक व्यापक विषय है तथा एक आलेख उस विषय की प्रस्तावना की प्रथम पंक्ति से अधिक कुछ नहीं!
शम् खम्! ]
आपको पढ़ के आत्मा तृप्त हो जाती है गुरुवर, भगवान श्री दत्तात्रेय जयन्ती की शुभकामनाएं, सादर प्रणाम।
पढ़ना हृदय को आनंदित कर गया तो समझने के प्रयास मात्र से खुद की मूढ़ता सामने उपस्थित हो गई। 🙏 गुरुदेव
💞🙏🥀
जय हो
इतना लंबा लेख आप कैसे लिखते हैं
अति सुंदर 🚩🚩
Bahut hi sundar। Aanand aa gya।
भाईसाब आनन्द आ गया।
सादर चरणस्पर्श।
सारगर्भित लेख…. साधु… साधु🙏🙏
बहुत अद्भुत माँ वागीश्वरी के अतिरिक्त कृपापात्र हो आप ल
❤️